शनिवार, 5 मई 2012

नवीन नवधा भक्ति

|| नवीन नवधा भक्ति ||
[ १ ] सत्संग --भगवद्भक्तों के दर्शन , चिंतन , स्पर्श तथा उनके वचन सुनने से अति हर्षित होना | [ २ ] कीर्तन -- प्रेम में मग्न होकर हर समय भगवन्नाम का स्मरण तथा प्रेम और प्रभाव के सहित भगवान के गुणों का कथन | [ ३ ] स्मरण -- सारे संसार में भगवान के स्वरूप का चिंतन | [ ४ ] शुभेच्छा -- भगवान के दर्शन की और उनमें प्रेम होने की उत्कट इच्छा | [ ५ ] संतोष -- जो कुछ आकर प्राप्त हो उसको भगवत - आज्ञा से हुआ मानकर आनंद से पतिव्रता स्त्री की भाँती स्वीकार करना | [ ६ ] सेवा -- सब जीवों को परमेश्वर का स्वरूप समझकर निष्काम - भाव से उनकी सेवा और सत्कार करना | [ ७ ] निष्काम कर्म -- शास्त्रोक्त निष्कामभाव से सब कर्मों में ईश्वर के अनुकूल बरतना अर्थात जिससे परमेश्वर प्रसन्न होवें , वही कर्म करना | [ ८ ] उपरामता -- संसार के भोगों से चित्त को हटाना | [ ९ ] सदाचार -- ईश्वर में प्रेम होने के लिए अहिंसा सत्य आदि का पालन करना |
नारदभक्तिसूत्र में कहा है - ईश्वर में परम अनुराग ही भक्ति है | भक्ति मुख्यतया दो प्रकार की मानी गई है -- वैधाभक्ति और पराभक्ति | वैधाभक्ति का फल है पराभक्ति | भागवत में नौ तरह की भक्ति बताई गई है - भगवान के गुण - लीला - नाम आदि का श्रवण , उन्हीं का कीर्तन , उनके नाम - रूप आदि का स्मरण , उनके चरणों की सेवा , पूजा , अर्चन , वन्दन , दास्य , सख्य और आत्मनिवेदन | इस नौ प्रकार की भक्ति का फल प्रेमलक्षणा भक्ति है | प्रेम ही भक्ति की अंतिम अवस्था है | भगवान ने गीता [ ११ / ५४ - ५५ ; १० / ९ - ११ ] में भक्ति के लक्षण बताए हैं |
यह नवधा भक्ति संक्षेप से बताई गई है | इनके फलस्वरूप प्रेमलक्षणा भक्ति प्रकट होती है | उस समय भक्त न तो किसी से डरता है , न मनमें दूसरी इच्छा रहती है | " न लाज तीन लोक की न वेद को कह्यो करे | न संक भूत प्रेतकी न देव यक्ष से डरे || सुने न कान औरकी द्रसे न और इच्छना | कहे न मुख और बात प्रेम भक्ति लक्षणा ||" यह प्रेमलक्षणा भक्ति के लक्षण हैं | यह भक्ति प्रकट होने से भगवान बड़े प्रेम से मिलते हैं | परमात्मा की भाँती ही प्रेम का स्वरूप भी अनिर्वचनीय है | प्रेम साधन भी है और साधनों का फल [ साध्य ] भी | गूंगे के स्वाद की तरह वह [ प्रेम ] वाणी का विषय नहीं होता |
प्रेम का वास्तविक महत्त्व कोई परमात्मा का अनन्यप्रेमी ही जानता है | प्रेमियों का प्रेम और ज्ञानियों का आनंद सब जगह है | प्रेम ही आनंद है और आनंद ही प्रेम है | भगवान सगुण - साकार की उपासना करनेवालों के लिए प्रेममय बन जाते हैं और निर्गुण - निराकार की उपासना करनेवालों के लिए आनंदमय बन जाते हैं | प्रेमियों का मिलन भी बड़ा ही विलक्षण - अत्यंत अलौकिक होता है | यहाँ अद्वेत होते हुए भी द्वेत है और द्वेत होते हुए भी अद्वेत है | जैसे दोनों हाथ परस्पर मिलकर सटकर एक हो जाते हैं , उस समय ये दो होते हुए भी एक हैं और एक होते हुए भी दो हैं | वैसे ही यहाँ न भेद है और न अभेद | प्रेम में प्रेमी और प्रेमास्पद का नित्य ऐक्य - शास्वत संयोग बना रहता है | प्रेम , प्रेमी और प्रेमास्पद में भेद नहीं रहता | भक्ति , भक्त और भगवान - सब एक हो जाते हैं |
|| इत्ती ||

भक्तियोग की श्रेष्ठता

|| भक्तियोग की श्रेष्ठता ||
[ १ ] श्रेष्ठ - भगवान में तल्लीन अंत:करण वाला श्रद्धावान भक्त संपूर्ण योगियों में श्रेष्ठ है [ ६ / ४७ ] | कारण की उसके श्रद्धा - विस्वाश भगवान पर ही होते हैं , उसका आश्रय भगवान ही रहते हैं | ज्ञानयोगी और भक्तियोगी - इन दोनों में भक्तियोगी श्रेष्ठ है [ १२ / २ ] ; कारण की वह नित्य - निरंतर भगवान में ही लगा रहता है | [ २ ] सुगम - भक्त श्रद्धा - भक्ति से जो पत्र , पुष्प , फल , जल आदि भगवान को अर्पण करता है , उसको भगवान खा लेते हैं | इतना ही नहीं , किसीके पास अगर ये भी न हो तो वह जो कुछ करता है , उसे भगवान के अर्पण करने से वह संपूर्ण बन्धनों से मुक्त होकर भगवान को प्राप्त हो जाता है [ ९ / २६ - २८ ] | कारण की भक्त में भगवान को अर्पण करने का भाव रहता है , और भगवान भी भावग्राही हैं | [ ३ ] शीघ्र - सिद्धि - भगवान में लगे हुए चित्त वाले भक्त का उद्धार भगवान बहुत जल्दी कर देते हैं [ १२ / ७ ] | कारण की वह केवल भगवान के ही परायण रहता है ; अत: उसका उद्धार करनेकी जिम्मेवारी भगवान पर आ जाती है | [ ४ ] पापों का नाश - भगवान अपने शरणागत भक्त को संपूर्ण पापों से मुक्त कर देते हैं [ १८ / ६६ ] | कारण की सर्वथा शरणागत भक्त की संपूर्ण जिम्मेवारी भगवान पर ही आ जाती है | [ ५ ] संतुष्टि - भगवान में मन लगाने पर भक्त संतुष्ट हो जाता है [ १० / ९ ] | कारण की भगवान में ज्यों - ज्यों मन लगता है , त्यों - त्यों उसे संतोष होता है की मेरा समय भगवान के चिंतन में लग रहा है | सिद्धावस्था में वह संतोष भक्त में स्वत: रहता है [ १२ / १४ ] | कारण की उसको भगवतप्राप्ति हो गई होती है | [ ६ ] शान्ति की प्राप्ति - भक्त परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है [ ६ / १५ ] ; [ ९ / ३१ ] | कारण की उसका आश्रय केवल भगवान ही रहते हैं | [ ७ ] समता की प्राप्ति - भगवान अपने भक्त को वह समता देते हैं , जिससे वह भगवान को प्राप्त हो जाता है [ १० / १० ] | कारण की वे केवल भगवान में ही लगे रहते हैं , भगवान के सिवाय कुछ भी नहीं चाहते | [ ८ ] ज्ञान की प्राप्ति - भगवान स्वयम अपने भक्त के अज्ञान का नाश करते हैं [ १० / ११ ] | कारण की भक्त केवल भगवान में ही लगा रहता है , भगवान के सिवाय कुछ चाहता ही नहीं | अत: भगवान अपनी तरफ से ही उसके अज्ञान का नाश करके भगवततत्त्व का ज्ञान करा देते हैं | [ ९ ] प्रसन्नता - [ स्वच्छता ] की प्राप्ति : - भक्त का अंत:करण प्रसन्न , स्वच्छ हो जाता है [ ६ / १४ ] | कारण की भगवतप्राप्ति के सिवाय भक्त का अन्य कोई उद्देश्य नहीं रहता |
|| इत्ती ||

केवल भक्ति से विश्वरूप - दर्शन संभव है

|| केवल भक्ति से विश्वरूप - दर्शन संभव है ||
भगवान गीता [ ११ / ५२ - ५५ ] में विश्वरूप की दुर्लभता बताते हुए कहते हैं " हे अर्जुन ! जो विश्वात्मक रूप हमने तुम्हें बताया वह शंकर को , इतना तप करने पर भी नहीं जुडता और हे किरीटी ! योगीजन अष्टांग योग आदि के कष्ट सहते हैं तथापि उन्हें जिसकी भेंट का कभी अवसर नहीं प्राप्त होता | देवता भी इसके दर्शन को तरसते हैं | जिस विश्वरूप के समान वस्तु किसीको स्वप्न में भी नहीं दिखाई देती , सो यह स्वरूप तुमने सुख से देख लिया | हे सुभट ! इस रूप की प्राप्ति के लिए साधनों के मार्ग नहीं हैं तथा छहों शास्त्रों सहित वेद भी इससे हार खा चुके हैं | हे धनुर्धर ! मुझ विश्वरूप के मार्ग से चलने के लिए सब तपों के समूह में भी योग्यता नहीं है तथा दान आदि साधनों से भी मेरी प्राप्ति होना निश्चय से कठिन है | यज्ञों से भी मैं वैसा हाथ नहीं आता जैसा तुमने मुझे सुख से देख लिया | ऐसा मैं एक ही रीति से प्राप्त हो सकता हूँ अर्थात जब भक्ति आकर चित्त को जय- माल पहनावे |
परन्तु वह भक्ति ऐसी हो जैसी की वर्षा की धारा , जो पृथ्वी के अतिरिक्त दूसरी गति ही नहीं जानती ; अथवा सब जल संपदा लेकर जैसे गंगा समुद्र की खोज करती है और अनन्य गति से बारंबार उसी से मिलती है , वैसे ही भक्ति सब भावों के समूहसहित हृदय में न समाते हुए प्रेम से मुझमें मद्रूप हो प्रवेश करे | और मैं ऐसा हूँ जैसा की क्षीरसमुद्र , जो तीर पर तथा मध्य में समान ही क्षीर का बना रहता है ; और , मुझसे लेकर चींटी तक - किंबहुना चराचर में - भजन के लिए दूसरी वस्तु ही नहीं है | जो ऐसी भक्ति प्राप्त हो तो उसी क्षण मेरे इस रूप का ज्ञान होता और सहज दर्शन भी हो जाता है | फिर जैसे ईंधन नाम को नहीं रहता और मूर्तिमान अग्नि हो रहता है , अथवा जब तक सूर्य का उदय नही होता तब तक अन्धकार गगनरूप हो रहता है ; परन्तु उदय होते ही एकदम प्रकाशमय हो जाता है , वैसे ही मेरे साक्षात्कार से अहंकार का आवागमन बंद हो जाता है और अहंकार का लोप होते ही द्वेत का नाश हो जाता है | फिर वह भक्त , मैं और यह संपूर्ण विश्व , स्वभावत: एकमय ही हो रहते हैं | बहुत क्या कहें , वह भक्त ही सर्वत्र एकरूपता से समा जाता है |
जो केवल मुझे ही अपने सब कर्म समर्पित करता है , जिसे मेरे अतिरिक्त जगत में और कुछ भला नहीं दिखाई देता , जिसके इहलोक और परलोक सब एक मैं ही हूँ , जिसने अपने जीवन का फल मुझे ही निश्चित कर रखा है , और जो प्राणियों के भेद भूल गया है , क्योंकि उसकी दृष्टि में मैं ही भर गया हूँ - अतएव जो निर्वैर हो गया है , और सर्वदा भजन करता है , ऐसा जो भक्त हो , उसका जब यह कफ-वात - पित्तात्मक शरीर छूटता है तब हे पांडव ! वह मद्रूप हो रहता है |"
|| इत्ती ||

अव्यभिचारिणी भक्ति से ब्रह्म - प्राप्ति

|| अव्यभिचारिणी भक्ति से ब्रह्म - प्राप्ति ||
भगवान गीता [ १४ / २६ - २७ ] में कहते हैं " जो मनुष्य चित्त में दूसरा विषय न रखकर भक्तियोग से मेरी सेवा करता है वह गुणों का नाश कर सकता है | अतएव मैं कैसा हूँ , भक्ति कैसी होती है , एकनिष्ठ भक्ति का क्या लक्षण है , ये सब बातें स्पष्ट कहनी चाहिए | हे पार्थ ! सुनो | संसार में मैं ऐसा हूँ जैसे रत्न का तेज और रत्न [ यानी एक ही वस्तु ] , अथवा जैसे द्रवत्व ही पानी है , अवकाश ही आकाश है , या मधुरता ही शक्कर है दूसरी वस्तु नहीं | जैसे अग्नि ही ज्वाला है , वृक्ष ही जैसे शाखा या फूल आदि है , अथवा जमा हुआ दूध ही जैसे दही कहलाता है वैसे ही विश्व के नाम से सम्पूर्ण मैं ही प्रकट हुआ हूँ [ श्लोक ९ / १९ ] | जैसे आभूषण गलाया न जाय तथापि वह सोना ही है , वस्त्र [ थान ] की तह जैसे खोली न जाय तथापि वह तन्तु ही है , घडा जैसे चूर न किया जाय तथापि वह मिटटी ही है वैसे ही मैं ऐसा नहीं हूँ की विश्वत्त्व दूर करने पर ही दिखाई दूं | सब विश्व - समेत मैं ही हूँ [ श्लोक ७ / १९ ] | इस प्रकार मुझे जानना अव्यभिचारिणी भक्ति कहाती है | संसार में कुछ भी भेद जान पड़ा की वह व्यभिचार हुआ | इसलिए भेद को छोड़ अभेद - चित्त से निज के समेत सब मद्रूप ही जानो | हे पार्थ ! जैसे सोने के ताबीज में सोने का ही कुंडा रहता है वैसे ही निज को कोई दूसरा मत मानो | किरणें जैसे सूर्य की होती हैं , सूर्य से ही उत्पन्न होती हैं , परन्तु सूर्य से ही लगी हुई है ; ऐसे ही निज को जानो | हिमालय में जैसे हिमकण रहते हैं , वैसे ही निज को मुझ में जानो | तरंगें जैसे समुद्र से भिन्न नहीं रहती , वैसे ही जब दृष्टि ऐसी एकता से विकसित होती है की मैं ईश्वर में हूँ , अतएव जुदा नहीं हूँ , तब उसे हम भक्ति कहते हैं | ज्ञान की उत्तम स्थिति भी इसी दृष्टि को समझनी चाहिए , तथा योग का सर्वस्व भी यही है |
जैसे कुऐ के मुंह और आकाश में कोई जोड़ न रह कर दोनों एक में ही मिल रहते हैं वैसे ही वह भक्त परम पुरुष में मिला रहता है | जैसे घास को जलाकर आग अपने आप बुझ जाती है वैसे ही भेद का नाश कर ज्ञान आप भी नहीं रहता | यह भेद नहीं रहता की मैं दूर हूँ और भक्त यहीं है | अनादीकाल से जो हमारी एकता है वही बनी रहती है | बहुत क्या कहें , हे मर्मज्ञ अर्जुन ! ऐसी जो दशा है वही ब्रह्मत्व है | यह दशा उसे प्राप्त होती है जो मेरी भक्ति करता है | जैसे गंगा के प्रवाह में जो पानी बहता है उसके लिए योग्य स्थल समुद्र ही है , दूसरा नहीं , वैसे ही हे किरीटी ! जो ज्ञान दृष्टि से मेरी भक्ति करता है वह ब्रह्मता के मुकुट का चुडामनी बनता है | इसी ब्रह्मत्व को सायुज्यता कहते हैं | इसी का नाम चौथा पुरुषार्थ है | परन्तु यह देख कर की मेरी सेवा ब्रह्मत्व को पहुंचने का मार्ग है , कहीं यह न समझ लेना की मैं ब्रह्मत्व का साधन हूँ , क्योंकि मेरे अतिरिक्त ब्रह्म कुछ दूसरी वस्तु नहीं है | हे पांडव ! ब्रह्म नाम का जो अर्थ है वह मैं ही हूँ | इन शब्दों से मेरा ही वर्णन किया जाता है | हे मर्मज्ञ ! चन्द्रमंडल और चन्द्रमा जैसे दो वस्तूवें नहीं हैं वैसे ही मुझमें और ब्रह्म में भेद नहीं है | जो नित्य है , अचल है , अनावृत है , धर्मरूप है , अपार है , अद्वितीय है , बहुत क्या कहूँ , अपना ही नाश कर ज्ञान जिस सिद्धांत के अपरिमित स्थान में लीन होता है , वह वस्तु मैं ही हूँ |"
|| इत्ती ||

गीता में अनन्य - भक्ति का स्वरूप

|| गीता में अनन्य - भक्ति का स्वरूप ||
भगवान गीता [ ११ / ५४ - ५५ ] में अनन्य भक्ति के द्वारा अपने को देखना , जानना और एकीभाव से प्राप्त करना सुलभ बतलाते हैं | भगवान में ही अनन्य प्रेम हो जाना तथा अपने मन , इन्द्रिय और शरीर एवं धन , जन आदि सर्वस्व को भगवान का समझकर भगवान के लिए भगवान की ही सेवा में सदा के लिए लगा देना - यही अनन्य भक्ति है | सांख्ययोग के द्वारा निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति बतलाईगयी है ; और वह सर्वथा सत्य है | परन्तु सांख्ययोग के द्वारा सगुण - साकार भगवान के दिव्य चतुर्भुजरूप के भी दर्शन हो जायं , ऐसा नहीं कहा जा सकता | क्योंकि सांख्ययोग के द्वारा साकाररूप में दर्शन देने के लिए भगवान बाध्य नहीं है | यहाँ प्रकरण भी सगुण भगवान के दर्शन का ही है | अतएव यहाँ केवल अनन्य भक्ति को ही भगवद -दर्शन आदि में हेतु बतलाना उचित ही है |
आगे [ ११ / ५५ ] कहते हैं " हे अर्जुन ! जो पुरुष केवल मेरे ही लिए सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को करने वाला है , मेरे परायण है , मेरा भक्त है , आसक्ति रहित है और सम्पूर्ण भूतप्राणियों में वैरभाव से रहित है - वह अनन्यभक्तियुक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है |" जो मनुष्य स्वार्थ , ममता और आसक्ति को छोड़कर , सब कुछ भगवान का समझकर , अपने को केवल निमित्त मात्र मानता हुआ यज्ञ , दान , तप और खान - पान , व्यवहार आदि समस्त शास्त्रविहित कर्तव्यकर्मों को निष्कामभाव से भगवान की ही प्रसन्नता के लिए भगवान की आज्ञानुसार करता है - वह ' मत्कर्मकृत ' अर्थात भगवान के लिए भगवान के कर्मों को करनेवाला है | जो भगवान को ही परम आश्रय , परमगति , एकमात्र शरण लेनेयोग्य , सर्वोत्तम , सर्वाधार , सर्वशक्तिमान , सबके सुहृद , परम आत्मीय और अपने सर्वस्व समझता है तथा उनके किये हुए प्रत्येक विधान में सदा सुप्रसन्न रहता है - वह ' मत्परम: ' अर्थात भगवान के परायण है |
भगवान में अनन्य प्रेम हो जाने के कारण जो भगवान में ही तन्मय होकर नित्य - निरंतर भगवान के नाम , रूप , गुण , प्रभाव और लीला आदि का श्रवण , कीर्तन और मनन आदि करता रहता है ; इनके बिना जिसे क्षण भर भी चैन नहीं पडती ; और जो भगवान के दर्शन के लिए अत्यंत उत्कंठा के साथ निरंतर लालायित रहता है - वह ' मद्भक्त:' अर्थात भगवान का भक्त है | शरीर , स्त्री , पुत्र , घर , धन , कुटुंब तथा मान - बडाई आदि जितने भी इस लोक और परलोक के भोग्य पदार्थ हैं - उन सम्पूर्ण जड - चेतन पदार्थों में जिसकी किंचिंन मात्र भी आसक्ति नहीं रह गई है ; भगवान को छोड़कर जिसका किसी में भी प्रेम नहीं है - वह ' संगवर्जित: ' अर्थात आसक्तिरहित है | समस्त प्राणियों को भगवान का ही स्वरूप समझने , अथवा सबमें एकमात्र भगवान को व्याप्त समझने के कारण किसी के द्वारा कितना भी विपरीत व्यवहार किया जाने पर भी जिसके मन में विकार नहीं होता ; तथा जिसका किसी भी प्राणी में किन्चिन मात्र भी द्वेष या वैरभाव नहीं रह गया है - वह ' सर्वभूतेषु निर्वैर: ' अर्थात समस्त प्राणियों में वैरभाव से रहित है | ' य: ' और ' स: ' पद उपर्युक्त लक्षणोंवाले भगवान के अनन्य भक्त के वाचक हैं और वह मुझको ही प्राप्त होता है - इस कथन का भाव चौवनवें [ १८ / ५४ ] श्लोक के अनुसार सगुण भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन कर लेना , उनको भलीभाँती तत्त्व से जान लेना और उनमें प्रवेश कर जाना है | अभिप्राय यह है की उपर्युक्त लक्षणों से युक्त जो भगवान का अनन्य भक्त है , वह भगवान को प्राप्त हो जाता है |
इससे पूर्व [ ११ / ५२ - ५३ ] दो श्लोकों में भगवान ने अपने चतुर्भुज देवरूप के दर्शन की दुर्लभता और उसकी महिमा बताई है | निष्कामभाव से भगवदर्थ और भगवदअर्पणबुद्धि से किये हुए यज्ञ , दान और तप आदि कर्म भक्ति के अंग होने के कारण भगवान की प्राप्ति में हेतु हैं - सकामभाव से किये जाने पर नहीं | अभिप्राय यह है की उपर्युक्त यज्ञादि क्रियाएँ भगवान का दर्शन कराने में स्वभाव से समर्थ नहीं हैं | भगवान के दर्शन तो प्रेमपूर्वक भगवान के शरण होकर निष्कामभाव से कर्म करने पर भगवतकृपा से ही होते हैं |
|| इत्ती ||

सुखपूर्वक संसार- बंधन से मुक्ति

|| सुखपूर्वक संसार- बंधन से मुक्ति ||
भगवान ने गीता [ ५ / २ ] में ज्ञानयोग की अपेक्षा कर्मयोग को [ सुगम होने से ] श्रेष्ठ बतलाया है | इसी बात को सिद्ध करने के लिए अगले [ ५ / ३ - ४ ] श्लोक में कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं और दोनों निष्ठाओं की फल में एकता का प्रतिपादन करते हैं | कर्मयोगी न किसी से द्वेष करता है और न किसी वस्तु की आकांक्षा करता है , वह द्वन्द्वों से सर्वथा अतीत हो जाता है | वास्तव में संन्यास भी इसी स्थिति का नाम है | जो राग - द्वेष से रहित है , वही सच्चा संन्यासी है | क्योंकि उसे न तो संन्यास - आश्रम ग्रहण करने की आवश्यकता है और न ज्ञानयोग की ही | अतएव यहाँ कर्मयोगी को ' नित्य - संन्यासी ' कहकर भगवान उसका महत्व प्रकट करते हैं की समस्त कर्म करते हुए भी वह सदा संन्यासी ही है और सुखपूर्वक अनायास ही कर्म - बंधन से छूट जाता है | मनुष्य के कल्याण - मार्ग में विघ्न करनेवाले अत्यंत प्रबल शत्रु राग - द्वेष ही है | इन्हीं के कारण मनुष्य कर्मबंधन में फंसता है | कर्मयोगी इनसे रहित होकर भगवदर्थ कर्म करता है , अतएव वह भगवान की दया से अनायास ही कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है |
' ज्ञानयोग ' और ' कर्मयोग ' दोनों ही परमार्थतत्व के ज्ञान द्वारा परमपदरूप कल्याण की प्राप्ति में हेतु है | इस प्रकार दोनों का फल एक होने पर भी जो लोग फलभेद की कल्पना करते हैं वे बालक हैं | ' ज्ञानयोग ' परमार्थतत्वज्ञान का नाम नहीं है , तत्वज्ञानियों से सुने हुए उपदेश के अनुसार किये जानेवाले उसके साधन का नाम है | क्योंकि गीता [ १३ / २४ ] में ध्यानयोग , सांख्ययोग और कर्मयोग - ये तीनों आत्मदर्शन के अलग - अलग स्वतंत्र साधन बताए गए हैं | भगवान ने गीता [ १८ / ४९ - ५५ ] में ज्ञाननिष्ठां का वर्णन करते हुए ब्रह्मभूत होने के पश्चात अर्थात ब्रह्म में अभिन्न भाव से स्थितिरूप ज्ञानयोग को प्राप्त होने के बाद उसका फल तत्वज्ञानरूप पराभक्ति और उससे परमात्मा के स्वरूप को यथार्थ जानकर उसमें प्रविष्ट हो जाना बतलाया है | इससे यह स्पष्ट हो जाता है की ज्ञानयोग के साधन से यथार्थ तत्वज्ञान होता है , तब मोक्ष की प्राप्ति होती है |
दोनों निष्ठाओं का फल एक ही है और वह है - परमार्थज्ञान के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति | दोनों में से किसी एक निष्ठां में भलीभाँती स्थित पुरुष दोनों के फल को प्राप्त कर लेता है | गीता [ १३ / २४ ] में भी भगवान ने दोनों को ही आत्मसाक्षात्कार का स्वतंत्र साधन माना है | कर्म - संन्यास का अर्थ है - ' सांख्य ' और कर्मयोग का अर्थ है - सिद्धि और असिद्धि में समत्वरूप ' योग ' [ २ / ४८ ] | भलीभाँती किये जाने पर दोनों ही साधन अपना फल देने में सर्वथा स्वतंत्र और समर्थ हैं , यहाँ ' एक में भी ' [ ५ / ४ ] इसी बात का द्योतक है |
|| इत्ती ||

संसार का असर कैसे छूटे ?

|| संसार का असर कैसे छूटे ? ||
साधकों की प्राय: यह शिकायत रहती है की यह जानते हुए भी की संसार की कोई भी वस्तु अपनी नहीं है , जब कोई वस्तु सामने आती है तो उसका असर पड जाता है | इस विषय में दो बातें ध्यान देने योग्य हैं | एक बात तो यह है की असर पड़े तो परवाह मत करो अर्थात उसकी उपेक्षा कर दो | न तो उसको अच्छा समझो , न बुरा समझो | न उसके बने रहने की इच्छा करो , न मिटने की इच्छा करो | उससे उदासीन हो जाओ | दूसरी बात यह है की असर वास्तव में मन - बुद्धि पर पडता है , आप [ आत्मा , स्वयम ] पर नहीं पडता | अत: उसको अपने में मत मानो | अर्थात संसार का असर मन में पड़े तो उसमें राग - द्वेष करके उसके साथ अपना सम्बन्ध मत जोड़ो | आप भगवान के भजन - साधन में लगे रहो | संसार का असर हो जाय तो होता रहे , अपना उससे कोई मतलब नहीं - इस तरह उसकी उपेक्षा करदो |
आपका संबंध शरीर - इन्द्रियाँ - मन - बुद्धि के साथ नहीं है , प्रत्युत परमात्मा के साथ है - इस बात को समझाने के लिए ही गीता [ १५ / ७ ] में भगवान कहते हैं " इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है " | इस बात को समझ लो तो आपकी वृतियों में , आपके साधन में फर्क पड जाएगा | आप अपने को ' मैं हूँ ' - इस तरह जानते हैं | इसमें ' मैं ' तो जड है और ' हूँ ' चेतन है | ' मैं ' के कारण से ' हूँ ' है | अगर ' मैं ' [ अहम ] न रहे तो ' हूँ ' नहीं रहेगा , प्रत्युत केवल ' है ' [ चिन्मय सत्तामात्र ] रह जाएगा | इसी बात को गीता [ २ / ७२ ] में भगवान ने कहा है की जब साधक निर्मम - निरहंकार हो जाता है , तब उसकी स्थिति ब्रह्म में हो जाती है | अहंकार हमारा स्वरूप नहीं है | अहंकार अपरा प्रकृति है और हम परा प्रकृति हैं | हम अलग हैं , अहंकार अलग है | जैसे , जाग्रत और स्वप्न में अहंकार जाग्रत रहता है , पर सुषुप्ति में अहंकार जाग्रत नहीं रहता , प्रत्युत अविद्या में लींन हो जाता है | सुषुप्ति में अहंकार न रहने पर भी हम रहते हैं | जैसे भगवान अव्यक्त हैं [ श्लोक ९ / ४ ] , ऐसे ही उनका अंश होने से हम भी स्वरूप से अव्यक्त [ निराकार ] हैं | यह शरीर तो भोगायतन [ भोगने का स्थान ] है | जैसे हम रसोईघर में बैठकर भोजन करते हैं , ऐसे ही हम शरीर में रहकर कर्मफल भोगते हैं |
साधक योगभ्रष्ट होता है तो वह दूसरे जन्म में श्रीमानों के घर जन्म लेता है अथवा योगियों के घर जन्म लेता है | शरीर तो मर गया , जला दिया गया , फिर श्रीमानों अथवा योगियों के घर कौन जन्म लेगा ? वही जन्म लेगा जो शरीर से अलग है | इसलिए आप इस बात को दृढता से स्वीकार करलें की हम शरीर नहीं हैं , प्रत्युत शरीर को जानने वाले हैं | इस बातको स्वीकार किये बिना साधन बढिया नहीं होगा , सत्संग की बातें ठीक समझ में नहीं आएँगी | शरीर तो प्रतिक्षण बदलता है , पर आप महासर्ग और महाप्रलय होने पर भी नहीं बदलते , प्रत्युत ज्यों - के - त्यों एकरूप रहते हैं [ १४ / २ ] | आपके परमात्मा हैं और आप परमात्मा के हो | साधन करके आप ही परमात्मा को प्राप्त होंगे , शरीर प्राप्त नहीं होगा |
प्रत्येक मनुष्य चाहता है की मैं कभी मरूं नहीं , मैं सब कुछ जान जाऊं और मैं सदा सुखी रहूँ | ये तीनों इच्छाएँ मूल में सत , चित और आनंद की इच्छा है | परन्तु वह इस वास्तविक इच्छा को शरीर की सहायता से पूरी करना चाहता है ; क्योंकि स्वयम परमात्मा का अंश होते हुए भी वह शरीर - इन्द्रियाँ - मन - बुद्धि को अपना मान लेता है [ १५ / ७ ] | वास्तव में मनुष्य अपनी इस इच्छा को शरीर अथवा संसार की सहायता से पूरी कर ही नहीं सकता | कारण की शरीर नाशवान है , इसलिए उसके द्वारा कोई मरने से नहीं बच सकता | शरीर जड़ है , इसलिए उसके द्वारा ज्ञान नहीं हो सकता | शरीर प्रतिक्षण बदलनेवाला है , इसलिए उसके द्वारा कोई सुखी नहीं हो सकता | अत: मनुष्य में जो सत , चित - आनंद की इच्छा है , उसकी पूर्ती शरीर से असंग [ सम्बन्ध - रहित ] होने पर ही हो सकती है | इसलिए साधक को आरंभ से ही इस सत्य को स्वीकार कर लेना चाहिए की मैं शरीर नहीं हूँ , शरीर मेरा नहीं है , और शरीर मेरे लिए नहीं है |
|| इत्ती ||