|| नवीन नवधा भक्ति ||
[ १ ] सत्संग --भगवद्भक्तों के दर्शन , चिंतन , स्पर्श तथा उनके वचन सुनने से अति हर्षित होना | [ २ ] कीर्तन -- प्रेम में मग्न होकर हर समय भगवन्नाम का स्मरण तथा प्रेम और प्रभाव के सहित भगवान के गुणों का कथन | [ ३ ] स्मरण -- सारे संसार में भगवान के स्वरूप का चिंतन | [ ४ ] शुभेच्छा -- भगवान के दर्शन की और उनमें प्रेम होने की उत्कट इच्छा | [ ५ ] संतोष -- जो कुछ आकर प्राप्त हो उसको भगवत - आज्ञा से हुआ मानकर आनंद से पतिव्रता स्त्री की भाँती स्वीकार करना | [ ६ ] सेवा -- सब जीवों को परमेश्वर का स्वरूप समझकर निष्काम - भाव से उनकी सेवा और सत्कार करना | [ ७ ] निष्काम कर्म -- शास्त्रोक्त निष्कामभाव से सब कर्मों में ईश्वर के अनुकूल बरतना अर्थात जिससे परमेश्वर प्रसन्न होवें , वही कर्म करना | [ ८ ] उपरामता -- संसार के भोगों से चित्त को हटाना | [ ९ ] सदाचार -- ईश्वर में प्रेम होने के लिए अहिंसा सत्य आदि का पालन करना |
नारदभक्तिसूत्र में कहा है - ईश्वर में परम अनुराग ही भक्ति है | भक्ति मुख्यतया दो प्रकार की मानी गई है -- वैधाभक्ति और पराभक्ति | वैधाभक्ति का फल है पराभक्ति | भागवत में नौ तरह की भक्ति बताई गई है - भगवान के गुण - लीला - नाम आदि का श्रवण , उन्हीं का कीर्तन , उनके नाम - रूप आदि का स्मरण , उनके चरणों की सेवा , पूजा , अर्चन , वन्दन , दास्य , सख्य और आत्मनिवेदन | इस नौ प्रकार की भक्ति का फल प्रेमलक्षणा भक्ति है | प्रेम ही भक्ति की अंतिम अवस्था है | भगवान ने गीता [ ११ / ५४ - ५५ ; १० / ९ - ११ ] में भक्ति के लक्षण बताए हैं |
यह नवधा भक्ति संक्षेप से बताई गई है | इनके फलस्वरूप प्रेमलक्षणा भक्ति प्रकट होती है | उस समय भक्त न तो किसी से डरता है , न मनमें दूसरी इच्छा रहती है | " न लाज तीन लोक की न वेद को कह्यो करे | न संक भूत प्रेतकी न देव यक्ष से डरे || सुने न कान औरकी द्रसे न और इच्छना | कहे न मुख और बात प्रेम भक्ति लक्षणा ||" यह प्रेमलक्षणा भक्ति के लक्षण हैं | यह भक्ति प्रकट होने से भगवान बड़े प्रेम से मिलते हैं | परमात्मा की भाँती ही प्रेम का स्वरूप भी अनिर्वचनीय है | प्रेम साधन भी है और साधनों का फल [ साध्य ] भी | गूंगे के स्वाद की तरह वह [ प्रेम ] वाणी का विषय नहीं होता |
प्रेम का वास्तविक महत्त्व कोई परमात्मा का अनन्यप्रेमी ही जानता है | प्रेमियों का प्रेम और ज्ञानियों का आनंद सब जगह है | प्रेम ही आनंद है और आनंद ही प्रेम है | भगवान सगुण - साकार की उपासना करनेवालों के लिए प्रेममय बन जाते हैं और निर्गुण - निराकार की उपासना करनेवालों के लिए आनंदमय बन जाते हैं | प्रेमियों का मिलन भी बड़ा ही विलक्षण - अत्यंत अलौकिक होता है | यहाँ अद्वेत होते हुए भी द्वेत है और द्वेत होते हुए भी अद्वेत है | जैसे दोनों हाथ परस्पर मिलकर सटकर एक हो जाते हैं , उस समय ये दो होते हुए भी एक हैं और एक होते हुए भी दो हैं | वैसे ही यहाँ न भेद है और न अभेद | प्रेम में प्रेमी और प्रेमास्पद का नित्य ऐक्य - शास्वत संयोग बना रहता है | प्रेम , प्रेमी और प्रेमास्पद में भेद नहीं रहता | भक्ति , भक्त और भगवान - सब एक हो जाते हैं |
|| इत्ती ||
[ १ ] सत्संग --भगवद्भक्तों के दर्शन , चिंतन , स्पर्श तथा उनके वचन सुनने से अति हर्षित होना | [ २ ] कीर्तन -- प्रेम में मग्न होकर हर समय भगवन्नाम का स्मरण तथा प्रेम और प्रभाव के सहित भगवान के गुणों का कथन | [ ३ ] स्मरण -- सारे संसार में भगवान के स्वरूप का चिंतन | [ ४ ] शुभेच्छा -- भगवान के दर्शन की और उनमें प्रेम होने की उत्कट इच्छा | [ ५ ] संतोष -- जो कुछ आकर प्राप्त हो उसको भगवत - आज्ञा से हुआ मानकर आनंद से पतिव्रता स्त्री की भाँती स्वीकार करना | [ ६ ] सेवा -- सब जीवों को परमेश्वर का स्वरूप समझकर निष्काम - भाव से उनकी सेवा और सत्कार करना | [ ७ ] निष्काम कर्म -- शास्त्रोक्त निष्कामभाव से सब कर्मों में ईश्वर के अनुकूल बरतना अर्थात जिससे परमेश्वर प्रसन्न होवें , वही कर्म करना | [ ८ ] उपरामता -- संसार के भोगों से चित्त को हटाना | [ ९ ] सदाचार -- ईश्वर में प्रेम होने के लिए अहिंसा सत्य आदि का पालन करना |
नारदभक्तिसूत्र में कहा है - ईश्वर में परम अनुराग ही भक्ति है | भक्ति मुख्यतया दो प्रकार की मानी गई है -- वैधाभक्ति और पराभक्ति | वैधाभक्ति का फल है पराभक्ति | भागवत में नौ तरह की भक्ति बताई गई है - भगवान के गुण - लीला - नाम आदि का श्रवण , उन्हीं का कीर्तन , उनके नाम - रूप आदि का स्मरण , उनके चरणों की सेवा , पूजा , अर्चन , वन्दन , दास्य , सख्य और आत्मनिवेदन | इस नौ प्रकार की भक्ति का फल प्रेमलक्षणा भक्ति है | प्रेम ही भक्ति की अंतिम अवस्था है | भगवान ने गीता [ ११ / ५४ - ५५ ; १० / ९ - ११ ] में भक्ति के लक्षण बताए हैं |
यह नवधा भक्ति संक्षेप से बताई गई है | इनके फलस्वरूप प्रेमलक्षणा भक्ति प्रकट होती है | उस समय भक्त न तो किसी से डरता है , न मनमें दूसरी इच्छा रहती है | " न लाज तीन लोक की न वेद को कह्यो करे | न संक भूत प्रेतकी न देव यक्ष से डरे || सुने न कान औरकी द्रसे न और इच्छना | कहे न मुख और बात प्रेम भक्ति लक्षणा ||" यह प्रेमलक्षणा भक्ति के लक्षण हैं | यह भक्ति प्रकट होने से भगवान बड़े प्रेम से मिलते हैं | परमात्मा की भाँती ही प्रेम का स्वरूप भी अनिर्वचनीय है | प्रेम साधन भी है और साधनों का फल [ साध्य ] भी | गूंगे के स्वाद की तरह वह [ प्रेम ] वाणी का विषय नहीं होता |
प्रेम का वास्तविक महत्त्व कोई परमात्मा का अनन्यप्रेमी ही जानता है | प्रेमियों का प्रेम और ज्ञानियों का आनंद सब जगह है | प्रेम ही आनंद है और आनंद ही प्रेम है | भगवान सगुण - साकार की उपासना करनेवालों के लिए प्रेममय बन जाते हैं और निर्गुण - निराकार की उपासना करनेवालों के लिए आनंदमय बन जाते हैं | प्रेमियों का मिलन भी बड़ा ही विलक्षण - अत्यंत अलौकिक होता है | यहाँ अद्वेत होते हुए भी द्वेत है और द्वेत होते हुए भी अद्वेत है | जैसे दोनों हाथ परस्पर मिलकर सटकर एक हो जाते हैं , उस समय ये दो होते हुए भी एक हैं और एक होते हुए भी दो हैं | वैसे ही यहाँ न भेद है और न अभेद | प्रेम में प्रेमी और प्रेमास्पद का नित्य ऐक्य - शास्वत संयोग बना रहता है | प्रेम , प्रेमी और प्रेमास्पद में भेद नहीं रहता | भक्ति , भक्त और भगवान - सब एक हो जाते हैं |
|| इत्ती ||