शनिवार, 5 मई 2012

ज्ञानयोगी ब्रह्म ही होकर ब्रह्म को प्राप्त करता है

|| ज्ञानयोगी ब्रह्म ही होकर ब्रह्म को प्राप्त करता है ||
भगवान गीता [ ५ / २३ - २४ ] में , बाह्य विषयभोगों को क्षणिक और दू:खों का कारण समझकर तथा आसक्ति का त्याग करके जो काम - क्रोध पर विजय प्राप्त कर चूका है , अब ऐसे ज्ञानयोगी की अंतिम स्थिति का फलसहित वर्णन करते हुए कहते हैं " जो पुरुष अंतरात्मा में ही सुखवाला है , आत्मा में ही रमण करनेवाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञानवाला है , वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त सांख्ययोगी शांत ब्रह्म को प्राप्त होता है |" जो पुरुष बाह्य विषयभोगरूप सांसारिक सुखों को स्वप्न की भाँती अनित्य समझ लेने के कारण उनको सुख नहीं मानता किन्तु इन सबके अंत:स्थित परम आनंदस्वरूप परमात्मा में ही ' सुख ' मानता है , वही ' अंत:सुख ' अर्थात परमात्मा में ही सुखवाला है |
जो बाह्य विषयभोगों में सत्ता और सुख - बुद्धि न रहने के कारण उनमें रमण नहीं करता , इन सबमें आसक्तिरहित होकर केवल परमात्मा में ही रमण करता है अर्थात परमात्मा का ही निरंतर अभिन्नभाव से चिंतन करता रहता है , वह ' अन्तराराम ' कहलाता है | परमात्मा समस्त ज्योतियों की भी परम ज्योति है [ १३ / १७ ] | संम्पूर्ण जगत उसीके प्रकाश से प्रकाशित है | जो पुरुष निरंतर अभिन्न भाव से ऐसे परम ज्ञानस्वरूप परमात्मा का अनुभव करता हुआ उसीमें स्थित रहता है , जिसकी दृष्टि में एक विज्ञानानन्दस्वरूप परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी भी बाह्य दृश्य वस्तु की भिन्न सत्ता ही नहीं रही है , वही ' अंतर्ज्योति ' है | अभिप्राय यह है की बाह्य दृश्य प्रपंच से उस योगी का कुछ भी संबंध नहीं है ; क्योंकि वह परमात्मा में ही सुख , रति और ज्ञान का अनुभव करता है |
यहाँ ' ब्रह्मभूत ' पद ज्ञानयोगी का विशेषण है | ज्ञानयोग का साधन करनेवाला योगी अहंकार , ममता , और काम - क्रोधादि समस्त अवगुणों का त्याग करके निरंतर अभिन्नभाव से परमात्मा का चिंतन करते - करते जब ब्रह्मरूप हो जाता है , जब उसका ब्रह्म के साथ किंचिंन मात्र भी भेद नहीं रहता , तब इस प्रकार की अंतिम स्थिति को प्राप्त ज्ञानयोगी ' ब्रह्मभूत ' कहलाता है | इस स्थिति को तुलसीदासजी ने यूं कहा है " उलटा नाम जपे जग जाना , बाल्मीकी भए ब्रह्म समाना |"
यहाँ ' ब्रह्मनिर्वाणम ' पद सच्चिदानन्दघन , निर्गुण , निराकार , निर्विकल्प एवं शांत परमात्मा का वाचक है और अभिन्नभावसे प्रत्यक्ष हो जाना ही उसकी प्राप्ति है | ज्ञानयोगी की जिस अंतिम अवस्था का ' ब्रह्मभूत ' शब्द से निर्देश किया गया है , यह उसीका फल है ! श्रुति में भी कहा है ' ब्रह्मैव सन ब्रह्माप्येती ' अर्थात ' वह ब्रह्म ही होकर ब्रह्म को प्राप्त होता है |' इसीको परम शान्ति की प्राप्ति , अक्षय सुख की प्राप्ति , ब्रह्मप्राप्ति , मोक्षप्राप्ति और परमगति की प्राप्ति कहते हैं |
|| इत्ती |||| ज्ञानयोगी ब्रह्म ही होकर ब्रह्म को प्राप्त करता है ||
भगवान गीता [ ५ / २३ - २४ ] में , बाह्य विषयभोगों को क्षणिक और दू:खों का कारण समझकर तथा आसक्ति का त्याग करके जो काम - क्रोध पर विजय प्राप्त कर चूका है , अब ऐसे ज्ञानयोगी की अंतिम स्थिति का फलसहित वर्णन करते हुए कहते हैं " जो पुरुष अंतरात्मा में ही सुखवाला है , आत्मा में ही रमण करनेवाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञानवाला है , वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त सांख्ययोगी शांत ब्रह्म को प्राप्त होता है |" जो पुरुष बाह्य विषयभोगरूप सांसारिक सुखों को स्वप्न की भाँती अनित्य समझ लेने के कारण उनको सुख नहीं मानता किन्तु इन सबके अंत:स्थित परम आनंदस्वरूप परमात्मा में ही ' सुख ' मानता है , वही ' अंत:सुख ' अर्थात परमात्मा में ही सुखवाला है |
जो बाह्य विषयभोगों में सत्ता और सुख - बुद्धि न रहने के कारण उनमें रमण नहीं करता , इन सबमें आसक्तिरहित होकर केवल परमात्मा में ही रमण करता है अर्थात परमात्मा का ही निरंतर अभिन्नभाव से चिंतन करता रहता है , वह ' अन्तराराम ' कहलाता है | परमात्मा समस्त ज्योतियों की भी परम ज्योति है [ १३ / १७ ] | संम्पूर्ण जगत उसीके प्रकाश से प्रकाशित है | जो पुरुष निरंतर अभिन्न भाव से ऐसे परम ज्ञानस्वरूप परमात्मा का अनुभव करता हुआ उसीमें स्थित रहता है , जिसकी दृष्टि में एक विज्ञानानन्दस्वरूप परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी भी बाह्य दृश्य वस्तु की भिन्न सत्ता ही नहीं रही है , वही ' अंतर्ज्योति ' है | अभिप्राय यह है की बाह्य दृश्य प्रपंच से उस योगी का कुछ भी संबंध नहीं है ; क्योंकि वह परमात्मा में ही सुख , रति और ज्ञान का अनुभव करता है |
यहाँ ' ब्रह्मभूत ' पद ज्ञानयोगी का विशेषण है | ज्ञानयोग का साधन करनेवाला योगी अहंकार , ममता , और काम - क्रोधादि समस्त अवगुणों का त्याग करके निरंतर अभिन्नभाव से परमात्मा का चिंतन करते - करते जब ब्रह्मरूप हो जाता है , जब उसका ब्रह्म के साथ किंचिंन मात्र भी भेद नहीं रहता , तब इस प्रकार की अंतिम स्थिति को प्राप्त ज्ञानयोगी ' ब्रह्मभूत ' कहलाता है | इस स्थिति को तुलसीदासजी ने यूं कहा है " उलटा नाम जपे जग जाना , बाल्मीकी भए ब्रह्म समाना |"
यहाँ ' ब्रह्मनिर्वाणम ' पद सच्चिदानन्दघन , निर्गुण , निराकार , निर्विकल्प एवं शांत परमात्मा का वाचक है और अभिन्नभावसे प्रत्यक्ष हो जाना ही उसकी प्राप्ति है | ज्ञानयोगी की जिस अंतिम अवस्था का ' ब्रह्मभूत ' शब्द से निर्देश किया गया है , यह उसीका फल है ! श्रुति में भी कहा है ' ब्रह्मैव सन ब्रह्माप्येती ' अर्थात ' वह ब्रह्म ही होकर ब्रह्म को प्राप्त होता है |' इसीको परम शान्ति की प्राप्ति , अक्षय सुख की प्राप्ति , ब्रह्मप्राप्ति , मोक्षप्राप्ति और परमगति की प्राप्ति कहते हैं |
|| इत्ती ||

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