रविवार, 5 फ़रवरी 2012

मुक्ति का मार्ग


||    मुक्ति का मार्ग   ||
भगवान ने गीता  [  श्लोक १६ /  १ - ३ ]  में देवी संपदा का वर्णनं किया है |  ये सब भक्तों के २६ गुण बताए गए हैं |  यही बात [  श्लोक १८ /  ४२ -४४ ]  चारों वर्णों के स्वभाविक गुणों के रूप में भी कही गई है |  देवी संपदा मुक्ति के लिए और आसुरी संपदा बांधने के लिए मानी गयी है |  आसुरी सम्पति [ श्लोक १६ /  ७ से २१ ]  का आश्रय लेने वालों की अधो - गति होती है |  वे नर्क -गामी होते हैं |  काम , क्रोध ,और लोभ ये तीन प्रकार के नर्क के द्वार कहे गए हैं |  इसके विपरीत जो इनसे मुक्त होकर कल्याण का आचरण [ भक्ति ,सत्संग , स्वाध्याय ]  करता है [ श्लोक १६ / २२ ]  वह परम गति को प्राप्त हो जाता है |  भोग की इच्छा को लेकर '  काम "  तथा संग्रह की इच्छा को लेकर '  लोभ "  आता है और इन दोनों में बाधा पड़ने पर "क्रोध "  आता है |  ये तीनों ही आसुरी सम्पति के मूल हैं |  सब पाप इन तीनों से ही होते हैं |  इनसे रहित होने का मतलब है -इनके त्याग का उद्देश्य रखना ,इनके वश में नहीं होना |  मन - माने आचरण करने वाले को न सिद्धि [ अंत: करण की शुद्धि ]  और न ही सुख [  मन की शांति ]  मिलता है |  तथा न ही वह परम गति को प्राप्त होता है |  अत: कर्तव्य -अकर्तव्य की अवस्था में शास्त्र ही प्रमाण माना जाता है |  इतिहास के आधार पर सत्य का निर्णय नहीं हो सकता |  इतिहास से विधि प्रबल है ,  और विधि से भी निषेध प्रबल है |
कोई भी पुरुशार्थ [ धर्म ,अर्थ ,काम , मोक्ष ]  तभी सिद्ध हो सकता है ,जब इस दोष - समुदाय [  आसुरी संपदा ] का त्याग किया जाय |  त्रिदोष [ वात , पित , कफ ]  शरीर से निकल जाय , तीनों दुर्गुन्नों [  चोरी , चुगली , छीनली ]  से नगर मुक्त हो जाय ,अथवा अंत: करण के [  देहिक , देविक , भौतिक ]  संताप शांत हो जाय तो जैसा सुख होता है , वैसा ही सुख संसार में तीनों [  काम , क्रोध , लोभ ]  दोषों का त्याग करने से प्राप्त होता है |  तथा मोक्ष मार्ग में सज्जनों की संगति प्राप्त होती है |  फिर सत्संग ,  व स्वाध्याय से जन्म - मृत्यु - रुपी जंगल पार हो सकता है |  तब गुरु - कृपा से उस नगरी का लाभ होती है जो सम्पूर्ण आत्मानंद से बसी है |  वहाँ आत्मा - रुपी माता की भेंट होती है |  उसे ह्रदय से लगाते ही यह सांसारिक कोलाहल बंद हो जाता है | फिर गुरु - आज्ञा [  श्लोक १३ / २५ ]  से श्रवण - भक्ति द्वारा मुक्ति संभव है |  जब तक ब्रह्म से एक - रूपता न हो जाय , तब तक श्रुति [  वेद - निष्ठां ]  नहीं छोडनी चाहिए |  और जो सत्य - कर्तव्य ठहराया जाय , उसका शरीर से अच्छी तरह , प्रेम से आचरण करना चाहिए |  यही मुक्ति का मार्ग है | 
||    इत्ती  ||

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