शनिवार, 5 मई 2012

नवीन नवधा भक्ति

|| नवीन नवधा भक्ति ||
[ १ ] सत्संग --भगवद्भक्तों के दर्शन , चिंतन , स्पर्श तथा उनके वचन सुनने से अति हर्षित होना | [ २ ] कीर्तन -- प्रेम में मग्न होकर हर समय भगवन्नाम का स्मरण तथा प्रेम और प्रभाव के सहित भगवान के गुणों का कथन | [ ३ ] स्मरण -- सारे संसार में भगवान के स्वरूप का चिंतन | [ ४ ] शुभेच्छा -- भगवान के दर्शन की और उनमें प्रेम होने की उत्कट इच्छा | [ ५ ] संतोष -- जो कुछ आकर प्राप्त हो उसको भगवत - आज्ञा से हुआ मानकर आनंद से पतिव्रता स्त्री की भाँती स्वीकार करना | [ ६ ] सेवा -- सब जीवों को परमेश्वर का स्वरूप समझकर निष्काम - भाव से उनकी सेवा और सत्कार करना | [ ७ ] निष्काम कर्म -- शास्त्रोक्त निष्कामभाव से सब कर्मों में ईश्वर के अनुकूल बरतना अर्थात जिससे परमेश्वर प्रसन्न होवें , वही कर्म करना | [ ८ ] उपरामता -- संसार के भोगों से चित्त को हटाना | [ ९ ] सदाचार -- ईश्वर में प्रेम होने के लिए अहिंसा सत्य आदि का पालन करना |
नारदभक्तिसूत्र में कहा है - ईश्वर में परम अनुराग ही भक्ति है | भक्ति मुख्यतया दो प्रकार की मानी गई है -- वैधाभक्ति और पराभक्ति | वैधाभक्ति का फल है पराभक्ति | भागवत में नौ तरह की भक्ति बताई गई है - भगवान के गुण - लीला - नाम आदि का श्रवण , उन्हीं का कीर्तन , उनके नाम - रूप आदि का स्मरण , उनके चरणों की सेवा , पूजा , अर्चन , वन्दन , दास्य , सख्य और आत्मनिवेदन | इस नौ प्रकार की भक्ति का फल प्रेमलक्षणा भक्ति है | प्रेम ही भक्ति की अंतिम अवस्था है | भगवान ने गीता [ ११ / ५४ - ५५ ; १० / ९ - ११ ] में भक्ति के लक्षण बताए हैं |
यह नवधा भक्ति संक्षेप से बताई गई है | इनके फलस्वरूप प्रेमलक्षणा भक्ति प्रकट होती है | उस समय भक्त न तो किसी से डरता है , न मनमें दूसरी इच्छा रहती है | " न लाज तीन लोक की न वेद को कह्यो करे | न संक भूत प्रेतकी न देव यक्ष से डरे || सुने न कान औरकी द्रसे न और इच्छना | कहे न मुख और बात प्रेम भक्ति लक्षणा ||" यह प्रेमलक्षणा भक्ति के लक्षण हैं | यह भक्ति प्रकट होने से भगवान बड़े प्रेम से मिलते हैं | परमात्मा की भाँती ही प्रेम का स्वरूप भी अनिर्वचनीय है | प्रेम साधन भी है और साधनों का फल [ साध्य ] भी | गूंगे के स्वाद की तरह वह [ प्रेम ] वाणी का विषय नहीं होता |
प्रेम का वास्तविक महत्त्व कोई परमात्मा का अनन्यप्रेमी ही जानता है | प्रेमियों का प्रेम और ज्ञानियों का आनंद सब जगह है | प्रेम ही आनंद है और आनंद ही प्रेम है | भगवान सगुण - साकार की उपासना करनेवालों के लिए प्रेममय बन जाते हैं और निर्गुण - निराकार की उपासना करनेवालों के लिए आनंदमय बन जाते हैं | प्रेमियों का मिलन भी बड़ा ही विलक्षण - अत्यंत अलौकिक होता है | यहाँ अद्वेत होते हुए भी द्वेत है और द्वेत होते हुए भी अद्वेत है | जैसे दोनों हाथ परस्पर मिलकर सटकर एक हो जाते हैं , उस समय ये दो होते हुए भी एक हैं और एक होते हुए भी दो हैं | वैसे ही यहाँ न भेद है और न अभेद | प्रेम में प्रेमी और प्रेमास्पद का नित्य ऐक्य - शास्वत संयोग बना रहता है | प्रेम , प्रेमी और प्रेमास्पद में भेद नहीं रहता | भक्ति , भक्त और भगवान - सब एक हो जाते हैं |
|| इत्ती ||

भक्तियोग की श्रेष्ठता

|| भक्तियोग की श्रेष्ठता ||
[ १ ] श्रेष्ठ - भगवान में तल्लीन अंत:करण वाला श्रद्धावान भक्त संपूर्ण योगियों में श्रेष्ठ है [ ६ / ४७ ] | कारण की उसके श्रद्धा - विस्वाश भगवान पर ही होते हैं , उसका आश्रय भगवान ही रहते हैं | ज्ञानयोगी और भक्तियोगी - इन दोनों में भक्तियोगी श्रेष्ठ है [ १२ / २ ] ; कारण की वह नित्य - निरंतर भगवान में ही लगा रहता है | [ २ ] सुगम - भक्त श्रद्धा - भक्ति से जो पत्र , पुष्प , फल , जल आदि भगवान को अर्पण करता है , उसको भगवान खा लेते हैं | इतना ही नहीं , किसीके पास अगर ये भी न हो तो वह जो कुछ करता है , उसे भगवान के अर्पण करने से वह संपूर्ण बन्धनों से मुक्त होकर भगवान को प्राप्त हो जाता है [ ९ / २६ - २८ ] | कारण की भक्त में भगवान को अर्पण करने का भाव रहता है , और भगवान भी भावग्राही हैं | [ ३ ] शीघ्र - सिद्धि - भगवान में लगे हुए चित्त वाले भक्त का उद्धार भगवान बहुत जल्दी कर देते हैं [ १२ / ७ ] | कारण की वह केवल भगवान के ही परायण रहता है ; अत: उसका उद्धार करनेकी जिम्मेवारी भगवान पर आ जाती है | [ ४ ] पापों का नाश - भगवान अपने शरणागत भक्त को संपूर्ण पापों से मुक्त कर देते हैं [ १८ / ६६ ] | कारण की सर्वथा शरणागत भक्त की संपूर्ण जिम्मेवारी भगवान पर ही आ जाती है | [ ५ ] संतुष्टि - भगवान में मन लगाने पर भक्त संतुष्ट हो जाता है [ १० / ९ ] | कारण की भगवान में ज्यों - ज्यों मन लगता है , त्यों - त्यों उसे संतोष होता है की मेरा समय भगवान के चिंतन में लग रहा है | सिद्धावस्था में वह संतोष भक्त में स्वत: रहता है [ १२ / १४ ] | कारण की उसको भगवतप्राप्ति हो गई होती है | [ ६ ] शान्ति की प्राप्ति - भक्त परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है [ ६ / १५ ] ; [ ९ / ३१ ] | कारण की उसका आश्रय केवल भगवान ही रहते हैं | [ ७ ] समता की प्राप्ति - भगवान अपने भक्त को वह समता देते हैं , जिससे वह भगवान को प्राप्त हो जाता है [ १० / १० ] | कारण की वे केवल भगवान में ही लगे रहते हैं , भगवान के सिवाय कुछ भी नहीं चाहते | [ ८ ] ज्ञान की प्राप्ति - भगवान स्वयम अपने भक्त के अज्ञान का नाश करते हैं [ १० / ११ ] | कारण की भक्त केवल भगवान में ही लगा रहता है , भगवान के सिवाय कुछ चाहता ही नहीं | अत: भगवान अपनी तरफ से ही उसके अज्ञान का नाश करके भगवततत्त्व का ज्ञान करा देते हैं | [ ९ ] प्रसन्नता - [ स्वच्छता ] की प्राप्ति : - भक्त का अंत:करण प्रसन्न , स्वच्छ हो जाता है [ ६ / १४ ] | कारण की भगवतप्राप्ति के सिवाय भक्त का अन्य कोई उद्देश्य नहीं रहता |
|| इत्ती ||

केवल भक्ति से विश्वरूप - दर्शन संभव है

|| केवल भक्ति से विश्वरूप - दर्शन संभव है ||
भगवान गीता [ ११ / ५२ - ५५ ] में विश्वरूप की दुर्लभता बताते हुए कहते हैं " हे अर्जुन ! जो विश्वात्मक रूप हमने तुम्हें बताया वह शंकर को , इतना तप करने पर भी नहीं जुडता और हे किरीटी ! योगीजन अष्टांग योग आदि के कष्ट सहते हैं तथापि उन्हें जिसकी भेंट का कभी अवसर नहीं प्राप्त होता | देवता भी इसके दर्शन को तरसते हैं | जिस विश्वरूप के समान वस्तु किसीको स्वप्न में भी नहीं दिखाई देती , सो यह स्वरूप तुमने सुख से देख लिया | हे सुभट ! इस रूप की प्राप्ति के लिए साधनों के मार्ग नहीं हैं तथा छहों शास्त्रों सहित वेद भी इससे हार खा चुके हैं | हे धनुर्धर ! मुझ विश्वरूप के मार्ग से चलने के लिए सब तपों के समूह में भी योग्यता नहीं है तथा दान आदि साधनों से भी मेरी प्राप्ति होना निश्चय से कठिन है | यज्ञों से भी मैं वैसा हाथ नहीं आता जैसा तुमने मुझे सुख से देख लिया | ऐसा मैं एक ही रीति से प्राप्त हो सकता हूँ अर्थात जब भक्ति आकर चित्त को जय- माल पहनावे |
परन्तु वह भक्ति ऐसी हो जैसी की वर्षा की धारा , जो पृथ्वी के अतिरिक्त दूसरी गति ही नहीं जानती ; अथवा सब जल संपदा लेकर जैसे गंगा समुद्र की खोज करती है और अनन्य गति से बारंबार उसी से मिलती है , वैसे ही भक्ति सब भावों के समूहसहित हृदय में न समाते हुए प्रेम से मुझमें मद्रूप हो प्रवेश करे | और मैं ऐसा हूँ जैसा की क्षीरसमुद्र , जो तीर पर तथा मध्य में समान ही क्षीर का बना रहता है ; और , मुझसे लेकर चींटी तक - किंबहुना चराचर में - भजन के लिए दूसरी वस्तु ही नहीं है | जो ऐसी भक्ति प्राप्त हो तो उसी क्षण मेरे इस रूप का ज्ञान होता और सहज दर्शन भी हो जाता है | फिर जैसे ईंधन नाम को नहीं रहता और मूर्तिमान अग्नि हो रहता है , अथवा जब तक सूर्य का उदय नही होता तब तक अन्धकार गगनरूप हो रहता है ; परन्तु उदय होते ही एकदम प्रकाशमय हो जाता है , वैसे ही मेरे साक्षात्कार से अहंकार का आवागमन बंद हो जाता है और अहंकार का लोप होते ही द्वेत का नाश हो जाता है | फिर वह भक्त , मैं और यह संपूर्ण विश्व , स्वभावत: एकमय ही हो रहते हैं | बहुत क्या कहें , वह भक्त ही सर्वत्र एकरूपता से समा जाता है |
जो केवल मुझे ही अपने सब कर्म समर्पित करता है , जिसे मेरे अतिरिक्त जगत में और कुछ भला नहीं दिखाई देता , जिसके इहलोक और परलोक सब एक मैं ही हूँ , जिसने अपने जीवन का फल मुझे ही निश्चित कर रखा है , और जो प्राणियों के भेद भूल गया है , क्योंकि उसकी दृष्टि में मैं ही भर गया हूँ - अतएव जो निर्वैर हो गया है , और सर्वदा भजन करता है , ऐसा जो भक्त हो , उसका जब यह कफ-वात - पित्तात्मक शरीर छूटता है तब हे पांडव ! वह मद्रूप हो रहता है |"
|| इत्ती ||

अव्यभिचारिणी भक्ति से ब्रह्म - प्राप्ति

|| अव्यभिचारिणी भक्ति से ब्रह्म - प्राप्ति ||
भगवान गीता [ १४ / २६ - २७ ] में कहते हैं " जो मनुष्य चित्त में दूसरा विषय न रखकर भक्तियोग से मेरी सेवा करता है वह गुणों का नाश कर सकता है | अतएव मैं कैसा हूँ , भक्ति कैसी होती है , एकनिष्ठ भक्ति का क्या लक्षण है , ये सब बातें स्पष्ट कहनी चाहिए | हे पार्थ ! सुनो | संसार में मैं ऐसा हूँ जैसे रत्न का तेज और रत्न [ यानी एक ही वस्तु ] , अथवा जैसे द्रवत्व ही पानी है , अवकाश ही आकाश है , या मधुरता ही शक्कर है दूसरी वस्तु नहीं | जैसे अग्नि ही ज्वाला है , वृक्ष ही जैसे शाखा या फूल आदि है , अथवा जमा हुआ दूध ही जैसे दही कहलाता है वैसे ही विश्व के नाम से सम्पूर्ण मैं ही प्रकट हुआ हूँ [ श्लोक ९ / १९ ] | जैसे आभूषण गलाया न जाय तथापि वह सोना ही है , वस्त्र [ थान ] की तह जैसे खोली न जाय तथापि वह तन्तु ही है , घडा जैसे चूर न किया जाय तथापि वह मिटटी ही है वैसे ही मैं ऐसा नहीं हूँ की विश्वत्त्व दूर करने पर ही दिखाई दूं | सब विश्व - समेत मैं ही हूँ [ श्लोक ७ / १९ ] | इस प्रकार मुझे जानना अव्यभिचारिणी भक्ति कहाती है | संसार में कुछ भी भेद जान पड़ा की वह व्यभिचार हुआ | इसलिए भेद को छोड़ अभेद - चित्त से निज के समेत सब मद्रूप ही जानो | हे पार्थ ! जैसे सोने के ताबीज में सोने का ही कुंडा रहता है वैसे ही निज को कोई दूसरा मत मानो | किरणें जैसे सूर्य की होती हैं , सूर्य से ही उत्पन्न होती हैं , परन्तु सूर्य से ही लगी हुई है ; ऐसे ही निज को जानो | हिमालय में जैसे हिमकण रहते हैं , वैसे ही निज को मुझ में जानो | तरंगें जैसे समुद्र से भिन्न नहीं रहती , वैसे ही जब दृष्टि ऐसी एकता से विकसित होती है की मैं ईश्वर में हूँ , अतएव जुदा नहीं हूँ , तब उसे हम भक्ति कहते हैं | ज्ञान की उत्तम स्थिति भी इसी दृष्टि को समझनी चाहिए , तथा योग का सर्वस्व भी यही है |
जैसे कुऐ के मुंह और आकाश में कोई जोड़ न रह कर दोनों एक में ही मिल रहते हैं वैसे ही वह भक्त परम पुरुष में मिला रहता है | जैसे घास को जलाकर आग अपने आप बुझ जाती है वैसे ही भेद का नाश कर ज्ञान आप भी नहीं रहता | यह भेद नहीं रहता की मैं दूर हूँ और भक्त यहीं है | अनादीकाल से जो हमारी एकता है वही बनी रहती है | बहुत क्या कहें , हे मर्मज्ञ अर्जुन ! ऐसी जो दशा है वही ब्रह्मत्व है | यह दशा उसे प्राप्त होती है जो मेरी भक्ति करता है | जैसे गंगा के प्रवाह में जो पानी बहता है उसके लिए योग्य स्थल समुद्र ही है , दूसरा नहीं , वैसे ही हे किरीटी ! जो ज्ञान दृष्टि से मेरी भक्ति करता है वह ब्रह्मता के मुकुट का चुडामनी बनता है | इसी ब्रह्मत्व को सायुज्यता कहते हैं | इसी का नाम चौथा पुरुषार्थ है | परन्तु यह देख कर की मेरी सेवा ब्रह्मत्व को पहुंचने का मार्ग है , कहीं यह न समझ लेना की मैं ब्रह्मत्व का साधन हूँ , क्योंकि मेरे अतिरिक्त ब्रह्म कुछ दूसरी वस्तु नहीं है | हे पांडव ! ब्रह्म नाम का जो अर्थ है वह मैं ही हूँ | इन शब्दों से मेरा ही वर्णन किया जाता है | हे मर्मज्ञ ! चन्द्रमंडल और चन्द्रमा जैसे दो वस्तूवें नहीं हैं वैसे ही मुझमें और ब्रह्म में भेद नहीं है | जो नित्य है , अचल है , अनावृत है , धर्मरूप है , अपार है , अद्वितीय है , बहुत क्या कहूँ , अपना ही नाश कर ज्ञान जिस सिद्धांत के अपरिमित स्थान में लीन होता है , वह वस्तु मैं ही हूँ |"
|| इत्ती ||

गीता में अनन्य - भक्ति का स्वरूप

|| गीता में अनन्य - भक्ति का स्वरूप ||
भगवान गीता [ ११ / ५४ - ५५ ] में अनन्य भक्ति के द्वारा अपने को देखना , जानना और एकीभाव से प्राप्त करना सुलभ बतलाते हैं | भगवान में ही अनन्य प्रेम हो जाना तथा अपने मन , इन्द्रिय और शरीर एवं धन , जन आदि सर्वस्व को भगवान का समझकर भगवान के लिए भगवान की ही सेवा में सदा के लिए लगा देना - यही अनन्य भक्ति है | सांख्ययोग के द्वारा निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति बतलाईगयी है ; और वह सर्वथा सत्य है | परन्तु सांख्ययोग के द्वारा सगुण - साकार भगवान के दिव्य चतुर्भुजरूप के भी दर्शन हो जायं , ऐसा नहीं कहा जा सकता | क्योंकि सांख्ययोग के द्वारा साकाररूप में दर्शन देने के लिए भगवान बाध्य नहीं है | यहाँ प्रकरण भी सगुण भगवान के दर्शन का ही है | अतएव यहाँ केवल अनन्य भक्ति को ही भगवद -दर्शन आदि में हेतु बतलाना उचित ही है |
आगे [ ११ / ५५ ] कहते हैं " हे अर्जुन ! जो पुरुष केवल मेरे ही लिए सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को करने वाला है , मेरे परायण है , मेरा भक्त है , आसक्ति रहित है और सम्पूर्ण भूतप्राणियों में वैरभाव से रहित है - वह अनन्यभक्तियुक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है |" जो मनुष्य स्वार्थ , ममता और आसक्ति को छोड़कर , सब कुछ भगवान का समझकर , अपने को केवल निमित्त मात्र मानता हुआ यज्ञ , दान , तप और खान - पान , व्यवहार आदि समस्त शास्त्रविहित कर्तव्यकर्मों को निष्कामभाव से भगवान की ही प्रसन्नता के लिए भगवान की आज्ञानुसार करता है - वह ' मत्कर्मकृत ' अर्थात भगवान के लिए भगवान के कर्मों को करनेवाला है | जो भगवान को ही परम आश्रय , परमगति , एकमात्र शरण लेनेयोग्य , सर्वोत्तम , सर्वाधार , सर्वशक्तिमान , सबके सुहृद , परम आत्मीय और अपने सर्वस्व समझता है तथा उनके किये हुए प्रत्येक विधान में सदा सुप्रसन्न रहता है - वह ' मत्परम: ' अर्थात भगवान के परायण है |
भगवान में अनन्य प्रेम हो जाने के कारण जो भगवान में ही तन्मय होकर नित्य - निरंतर भगवान के नाम , रूप , गुण , प्रभाव और लीला आदि का श्रवण , कीर्तन और मनन आदि करता रहता है ; इनके बिना जिसे क्षण भर भी चैन नहीं पडती ; और जो भगवान के दर्शन के लिए अत्यंत उत्कंठा के साथ निरंतर लालायित रहता है - वह ' मद्भक्त:' अर्थात भगवान का भक्त है | शरीर , स्त्री , पुत्र , घर , धन , कुटुंब तथा मान - बडाई आदि जितने भी इस लोक और परलोक के भोग्य पदार्थ हैं - उन सम्पूर्ण जड - चेतन पदार्थों में जिसकी किंचिंन मात्र भी आसक्ति नहीं रह गई है ; भगवान को छोड़कर जिसका किसी में भी प्रेम नहीं है - वह ' संगवर्जित: ' अर्थात आसक्तिरहित है | समस्त प्राणियों को भगवान का ही स्वरूप समझने , अथवा सबमें एकमात्र भगवान को व्याप्त समझने के कारण किसी के द्वारा कितना भी विपरीत व्यवहार किया जाने पर भी जिसके मन में विकार नहीं होता ; तथा जिसका किसी भी प्राणी में किन्चिन मात्र भी द्वेष या वैरभाव नहीं रह गया है - वह ' सर्वभूतेषु निर्वैर: ' अर्थात समस्त प्राणियों में वैरभाव से रहित है | ' य: ' और ' स: ' पद उपर्युक्त लक्षणोंवाले भगवान के अनन्य भक्त के वाचक हैं और वह मुझको ही प्राप्त होता है - इस कथन का भाव चौवनवें [ १८ / ५४ ] श्लोक के अनुसार सगुण भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन कर लेना , उनको भलीभाँती तत्त्व से जान लेना और उनमें प्रवेश कर जाना है | अभिप्राय यह है की उपर्युक्त लक्षणों से युक्त जो भगवान का अनन्य भक्त है , वह भगवान को प्राप्त हो जाता है |
इससे पूर्व [ ११ / ५२ - ५३ ] दो श्लोकों में भगवान ने अपने चतुर्भुज देवरूप के दर्शन की दुर्लभता और उसकी महिमा बताई है | निष्कामभाव से भगवदर्थ और भगवदअर्पणबुद्धि से किये हुए यज्ञ , दान और तप आदि कर्म भक्ति के अंग होने के कारण भगवान की प्राप्ति में हेतु हैं - सकामभाव से किये जाने पर नहीं | अभिप्राय यह है की उपर्युक्त यज्ञादि क्रियाएँ भगवान का दर्शन कराने में स्वभाव से समर्थ नहीं हैं | भगवान के दर्शन तो प्रेमपूर्वक भगवान के शरण होकर निष्कामभाव से कर्म करने पर भगवतकृपा से ही होते हैं |
|| इत्ती ||

सुखपूर्वक संसार- बंधन से मुक्ति

|| सुखपूर्वक संसार- बंधन से मुक्ति ||
भगवान ने गीता [ ५ / २ ] में ज्ञानयोग की अपेक्षा कर्मयोग को [ सुगम होने से ] श्रेष्ठ बतलाया है | इसी बात को सिद्ध करने के लिए अगले [ ५ / ३ - ४ ] श्लोक में कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं और दोनों निष्ठाओं की फल में एकता का प्रतिपादन करते हैं | कर्मयोगी न किसी से द्वेष करता है और न किसी वस्तु की आकांक्षा करता है , वह द्वन्द्वों से सर्वथा अतीत हो जाता है | वास्तव में संन्यास भी इसी स्थिति का नाम है | जो राग - द्वेष से रहित है , वही सच्चा संन्यासी है | क्योंकि उसे न तो संन्यास - आश्रम ग्रहण करने की आवश्यकता है और न ज्ञानयोग की ही | अतएव यहाँ कर्मयोगी को ' नित्य - संन्यासी ' कहकर भगवान उसका महत्व प्रकट करते हैं की समस्त कर्म करते हुए भी वह सदा संन्यासी ही है और सुखपूर्वक अनायास ही कर्म - बंधन से छूट जाता है | मनुष्य के कल्याण - मार्ग में विघ्न करनेवाले अत्यंत प्रबल शत्रु राग - द्वेष ही है | इन्हीं के कारण मनुष्य कर्मबंधन में फंसता है | कर्मयोगी इनसे रहित होकर भगवदर्थ कर्म करता है , अतएव वह भगवान की दया से अनायास ही कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है |
' ज्ञानयोग ' और ' कर्मयोग ' दोनों ही परमार्थतत्व के ज्ञान द्वारा परमपदरूप कल्याण की प्राप्ति में हेतु है | इस प्रकार दोनों का फल एक होने पर भी जो लोग फलभेद की कल्पना करते हैं वे बालक हैं | ' ज्ञानयोग ' परमार्थतत्वज्ञान का नाम नहीं है , तत्वज्ञानियों से सुने हुए उपदेश के अनुसार किये जानेवाले उसके साधन का नाम है | क्योंकि गीता [ १३ / २४ ] में ध्यानयोग , सांख्ययोग और कर्मयोग - ये तीनों आत्मदर्शन के अलग - अलग स्वतंत्र साधन बताए गए हैं | भगवान ने गीता [ १८ / ४९ - ५५ ] में ज्ञाननिष्ठां का वर्णन करते हुए ब्रह्मभूत होने के पश्चात अर्थात ब्रह्म में अभिन्न भाव से स्थितिरूप ज्ञानयोग को प्राप्त होने के बाद उसका फल तत्वज्ञानरूप पराभक्ति और उससे परमात्मा के स्वरूप को यथार्थ जानकर उसमें प्रविष्ट हो जाना बतलाया है | इससे यह स्पष्ट हो जाता है की ज्ञानयोग के साधन से यथार्थ तत्वज्ञान होता है , तब मोक्ष की प्राप्ति होती है |
दोनों निष्ठाओं का फल एक ही है और वह है - परमार्थज्ञान के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति | दोनों में से किसी एक निष्ठां में भलीभाँती स्थित पुरुष दोनों के फल को प्राप्त कर लेता है | गीता [ १३ / २४ ] में भी भगवान ने दोनों को ही आत्मसाक्षात्कार का स्वतंत्र साधन माना है | कर्म - संन्यास का अर्थ है - ' सांख्य ' और कर्मयोग का अर्थ है - सिद्धि और असिद्धि में समत्वरूप ' योग ' [ २ / ४८ ] | भलीभाँती किये जाने पर दोनों ही साधन अपना फल देने में सर्वथा स्वतंत्र और समर्थ हैं , यहाँ ' एक में भी ' [ ५ / ४ ] इसी बात का द्योतक है |
|| इत्ती ||

संसार का असर कैसे छूटे ?

|| संसार का असर कैसे छूटे ? ||
साधकों की प्राय: यह शिकायत रहती है की यह जानते हुए भी की संसार की कोई भी वस्तु अपनी नहीं है , जब कोई वस्तु सामने आती है तो उसका असर पड जाता है | इस विषय में दो बातें ध्यान देने योग्य हैं | एक बात तो यह है की असर पड़े तो परवाह मत करो अर्थात उसकी उपेक्षा कर दो | न तो उसको अच्छा समझो , न बुरा समझो | न उसके बने रहने की इच्छा करो , न मिटने की इच्छा करो | उससे उदासीन हो जाओ | दूसरी बात यह है की असर वास्तव में मन - बुद्धि पर पडता है , आप [ आत्मा , स्वयम ] पर नहीं पडता | अत: उसको अपने में मत मानो | अर्थात संसार का असर मन में पड़े तो उसमें राग - द्वेष करके उसके साथ अपना सम्बन्ध मत जोड़ो | आप भगवान के भजन - साधन में लगे रहो | संसार का असर हो जाय तो होता रहे , अपना उससे कोई मतलब नहीं - इस तरह उसकी उपेक्षा करदो |
आपका संबंध शरीर - इन्द्रियाँ - मन - बुद्धि के साथ नहीं है , प्रत्युत परमात्मा के साथ है - इस बात को समझाने के लिए ही गीता [ १५ / ७ ] में भगवान कहते हैं " इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा मेरा ही सनातन अंश है " | इस बात को समझ लो तो आपकी वृतियों में , आपके साधन में फर्क पड जाएगा | आप अपने को ' मैं हूँ ' - इस तरह जानते हैं | इसमें ' मैं ' तो जड है और ' हूँ ' चेतन है | ' मैं ' के कारण से ' हूँ ' है | अगर ' मैं ' [ अहम ] न रहे तो ' हूँ ' नहीं रहेगा , प्रत्युत केवल ' है ' [ चिन्मय सत्तामात्र ] रह जाएगा | इसी बात को गीता [ २ / ७२ ] में भगवान ने कहा है की जब साधक निर्मम - निरहंकार हो जाता है , तब उसकी स्थिति ब्रह्म में हो जाती है | अहंकार हमारा स्वरूप नहीं है | अहंकार अपरा प्रकृति है और हम परा प्रकृति हैं | हम अलग हैं , अहंकार अलग है | जैसे , जाग्रत और स्वप्न में अहंकार जाग्रत रहता है , पर सुषुप्ति में अहंकार जाग्रत नहीं रहता , प्रत्युत अविद्या में लींन हो जाता है | सुषुप्ति में अहंकार न रहने पर भी हम रहते हैं | जैसे भगवान अव्यक्त हैं [ श्लोक ९ / ४ ] , ऐसे ही उनका अंश होने से हम भी स्वरूप से अव्यक्त [ निराकार ] हैं | यह शरीर तो भोगायतन [ भोगने का स्थान ] है | जैसे हम रसोईघर में बैठकर भोजन करते हैं , ऐसे ही हम शरीर में रहकर कर्मफल भोगते हैं |
साधक योगभ्रष्ट होता है तो वह दूसरे जन्म में श्रीमानों के घर जन्म लेता है अथवा योगियों के घर जन्म लेता है | शरीर तो मर गया , जला दिया गया , फिर श्रीमानों अथवा योगियों के घर कौन जन्म लेगा ? वही जन्म लेगा जो शरीर से अलग है | इसलिए आप इस बात को दृढता से स्वीकार करलें की हम शरीर नहीं हैं , प्रत्युत शरीर को जानने वाले हैं | इस बातको स्वीकार किये बिना साधन बढिया नहीं होगा , सत्संग की बातें ठीक समझ में नहीं आएँगी | शरीर तो प्रतिक्षण बदलता है , पर आप महासर्ग और महाप्रलय होने पर भी नहीं बदलते , प्रत्युत ज्यों - के - त्यों एकरूप रहते हैं [ १४ / २ ] | आपके परमात्मा हैं और आप परमात्मा के हो | साधन करके आप ही परमात्मा को प्राप्त होंगे , शरीर प्राप्त नहीं होगा |
प्रत्येक मनुष्य चाहता है की मैं कभी मरूं नहीं , मैं सब कुछ जान जाऊं और मैं सदा सुखी रहूँ | ये तीनों इच्छाएँ मूल में सत , चित और आनंद की इच्छा है | परन्तु वह इस वास्तविक इच्छा को शरीर की सहायता से पूरी करना चाहता है ; क्योंकि स्वयम परमात्मा का अंश होते हुए भी वह शरीर - इन्द्रियाँ - मन - बुद्धि को अपना मान लेता है [ १५ / ७ ] | वास्तव में मनुष्य अपनी इस इच्छा को शरीर अथवा संसार की सहायता से पूरी कर ही नहीं सकता | कारण की शरीर नाशवान है , इसलिए उसके द्वारा कोई मरने से नहीं बच सकता | शरीर जड़ है , इसलिए उसके द्वारा ज्ञान नहीं हो सकता | शरीर प्रतिक्षण बदलनेवाला है , इसलिए उसके द्वारा कोई सुखी नहीं हो सकता | अत: मनुष्य में जो सत , चित - आनंद की इच्छा है , उसकी पूर्ती शरीर से असंग [ सम्बन्ध - रहित ] होने पर ही हो सकती है | इसलिए साधक को आरंभ से ही इस सत्य को स्वीकार कर लेना चाहिए की मैं शरीर नहीं हूँ , शरीर मेरा नहीं है , और शरीर मेरे लिए नहीं है |
|| इत्ती ||

सनातन कृष्ण [ धूम / पितरयान ] मार्ग का वर्णन

|| सनातन कृष्ण [ धूम / पितरयान ] मार्ग का वर्णन ||
जिस मार्ग से गए हुए साधक वापस लौटते हैं , उसका वर्णन करते हुए भगवान गीता [ ८ / २५ ] में कहते हैं " जिस मार्ग में धूमाभिमानी देवता है , रात्री - अभिमानी देवता है तथा कृष्णपक्ष का अभिमानी देवता है और दक्षिणायन के छ: महीनों का अभिमानी देवता है , उस मार्ग में मरकर गया हुआ सकाम कर्म करनेवाला योगी उपर्युक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले गया हुआ चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने शुभकर्मों का फल भोगकर वापस आता है |"
यहाँ ' धूम: ' पद अन्धकार के अभिमानी देवता का वाचक है | उसका स्वरूप अन्धकारमय होता है | अग्नि - अभिमानी देवता की भाँती पृथ्वी के ऊपर समुद्र सहित समस्त देशमें इसका भी अधिकार है तथा दक्षिणायन - मार्ग से जानेवाले साधकों को रात्री - अभिमानी देवता के पास पहुँचा देना इसका काम है | दक्षिणायन - मार्ग से जानेवाला जो साधक दिन में मर जाता है , उसे यह दिनभर अपने अधिकार में रखकर रात्री का आरंभ होते ही रात्री - अभिमानी देवता को सौंप देता है और जो रात्री में मरता है , उसे तुरंत ही रात्री - अभिमानी देवता के अधीन कर देता है | यहाँ ' रात्री: ' पद को भी रात्री के अभिमानी देवता का ही वाचक समझना चाहिए | दिन के अभिमानी देवता की भाँती इसका अधिकार भी जहां तक पृथ्वीलोक की सीमा है , वहाँ तक है | भेद इतना ही है की पृथ्वी लोक में जिस समय जहां दिन रहता है , वहाँ दिन के अभिमानी देवता का अधिकार रहता है और जिस समय जहां रात्री रहती है , वहाँ रात्री - अभिमानी देवता का अधिकार रहता है | दक्षिणायन - मार्ग से जानेवाले साधक को पृथ्वीलोक की सीमा से पार करके अंतरिक्ष में कृष्णपक्ष के अभिमानी देवता के अधीन कर देना इसका काम है | यदि वह साधक शुक्लपक्ष में मरता है , तब तो उसे कृष्णपक्ष आने तक अपने अधिकार में रखकर और यदि कृष्णपक्ष में मरता है तो तुरंत ही अपने अधिकार से पार करके कृष्णपक्षाभिमानी देवता के अधीन कर देता है | इस प्रकार क्रम से दक्षिणायन अभिमानी देवता , पित्रलोकाभिमानी देवता , आकाशाभिमानी देवता को और वहाँ से चन्द्रमा के लोक में पहुँचा देता है | यहाँ चन्द्रमा का लोक उपलक्षणमात्र है ; अत: ब्रह्मा के लोक तक जितने भी पुनरागमन - शील लोक हैं , चन्द्रलोक से उन सभी को समझ लेना चाहिए |
स्वर्गादि के लिए पुण्यकर्म करनेवाला पुरुष भी अपनी ऐहिक भोगों की प्रवृति का निरोध करता है , इस दृष्टि से उसे भी ' योगी 'कहा गया है | इसके अतिरिक्त योगभ्रष्ट पुरुष भी इस मार्ग से स्वर्ग में जाकर , वहाँ कुछ कालतक निवास करके वापस लौटते हैं | वे भी इसी मार्ग से जानेवालों में हैं | अत: उनको ' योगी ' कहना उचित ही है | यह मार्ग उच्च लोकों की प्राप्ति के अधिकारी शास्त्रीय कर्म करनेवाले पुरुषों के लिए ही है [ २ / ४२ , ४३ , ४४ तथा ९ / २० , २१ आदि ] |
चन्द्रमा के लोक में जानेवाला साधक उस लोक में शीतल प्रकाशमय दिव्य देवशरीर पाकर अपने पुण्यकर्मों के फलस्वरूप दिव्य भोगों को भोगता है | वहाँ रहने का नियत समय समाप्त हो जाने पर इस मृत्युलोक में वापस लौटता है | वह चन्द्रलोक से आकाश में आता है , वहाँ से वायुरूप हो जाता है , फिर धूम के आकार में परिणित हो जाता है , धूम से बादल में आता है , बादल से मेघ बनता है , इसके अनंतर जल के रूप में पृथ्वी पर बरसता है , वहाँ गेहूं ,जो , तिल , उडद आदि बीजों में या वनस्पतियों में प्रविष्ट होता है | उनके द्वारा पुरुष वर्ग , फिर क्रमश: सम्बन्धित स्त्री वर्ग में अपने कर्मानुसार योनी को पाकर जन्म ग्रहण करता है |
परमेश्वर के परमधाम में जाने का जो मार्ग है , वह प्रकाशमय - दिव्य है | उसके अधिष्ठात्रिदेवता भी सब प्रकाशमय हैं ; और उसमें गमन करनेवालों के अंत:करण में भी सदा ही ज्ञान का प्रकाश रहता है ; इसलिए इस मार्ग का नाम ' शुक्ल ' रखा गया है | तथा जो ब्रह्मा के लोक तक समस्त देवलोकों में जाने का मार्ग है , वह शुक्लमार्ग की अपेक्षा अन्धकारयुक्त है | उसके अधिष्ठात्रीदेवता भी अन्धकारस्वरूप हैं और उसमें गमन करनेवाले लोग भी अज्ञान से मोहित रहते हैं | इसलिए उस मार्ग का नाम ' कृष्ण ' रखा गया है |
|| इत्ती ||

भगवान के संकल्प से सृष्टि की रचना

|| भगवान के संकल्प से सृष्टि की रचना ||
सृष्टि की रचना के बारे में बताते हुए भगवान गीता [ १० / ६ - ७ ] में कहते हैं " सात महर्षिजन , चार उनसे भी पूर्वमें होनेवाले सनकादी तथा स्वायम्भुव आदि चौदह मनु - ये मुझमें भाववाले सब - के - सब मेरे संकल्प से उत्पन्न हुए हैं , जिनकी संसार में यह सम्पूर्ण प्रजा है |" ये सात ऋषि प्रत्येक मन्वन्तर में भिन्न - भिन्न होते हैं | यहाँ जिन सप्तर्षियों का वर्णन है , उनको भगवान ने ' महर्षि ' कहा है और उन्हें संकल्प से उत्पन्न बतलाया है | इनके लिए साक्षात परमेश्वर ने देवताओं सहित ब्रह्माजी से कहा है - ' मरीची , अंगिरा , अत्री , पुलस्त्य , पुलह , क्र्रतू और वसिष्ठ - ये सातों महर्षि तुम्हारे [ ब्रह्माजी के ] द्वारा ही अपने मनसे रचे हुए हैं | ये सातों वेद के ज्ञाता हैं , इनको मैंने मुख्य वेदाचार्य बनाया है | ये प्रवृतिमार्ग का संचालन करनेवाले हैं और [ मेरे ही द्वारा ] प्रजापति के कर्म में नियुक्त किये गए हैं |' इस कल्प के सर्वप्रथम स्वायम्भुव मन्वन्तर के सप्तर्षि यही हैं |
पूर्व में होनेवाले सनकादी के बारे में ब्रह्माजी ने स्वयम कहा है " मैंने विविध प्रकार के लोकों को उत्पन्न करने की इच्छा से जो सबसे पहले तप किया , उस मेरी अखंडित तपस्या से ही भगवान स्वयम सनक , सनन्दन , सनातन और सनत्कुमार - इन चार ' सन ' नामवाले रूपों में प्रकट हुए और पूर्वकल्प में प्रलयकाल के समय जो आत्मतत्व के ज्ञान का प्रचार इस संसार में नष्ट हो गया था , उसका इन्होंने भलीभाँती उपदेश किया , जिससे उन मुनियों ने अपने हृदय में आत्मतत्व का साक्षात्कार किया |' सनकादी सबको ज्ञान प्रदान करनेवाले निवृति -धर्म के प्रवर्तक आचार्य हैं | अतएव उनकी शिक्षा ग्रहण करनेवाले सभी लोग शिष्य के संबंध से उनकी प्रजा ही माने जा सकते हैं |
ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु होते हैं , प्रत्येक मनु के अधिकारकाल को ' मन्वन्तर ' कहते हैं | इकहत्तर [ ७१ ] चतुर्युगी से कुछ अधिक काल का एक मन्वन्तर होता है | प्रत्येक मन्वन्तर में धर्म की व्यवस्था और लोक - रक्षण के लिए भिन्न - भिन्न सप्तर्षि होते हैं | एक मन्वन्तर के बीत जाने पर जब मनु बदल जाते हैं , तब उन्हीं के साथ सप्तर्षि , देवता , इंद्र और मनुपुत्र भी बदल जाते हैं | चौदह मनुओं का एक कल्प बीत जाने पर सब मनु भी बदल जाते हैं | ब्रह्माजी का दिन ही कल्प है [ ४३२००००००० , अर्थात ४३२ करोड मानव वर्ष ] और इतनी ही बड़ी उनकी रात्री है | वर्तमान सातवें वैवस्वत मन्वन्तर के २७ चतुर्युग बीत चुके हैं | इस समय अठाईश्वें [ २८ वें ] चतुर्युग के कलियुग का संध्याकाल चल रहा है | इस २०४५ वी. तक कलियुग के ५०८९ वर्ष बीते हैं |
इस प्रकार भगवान की विभूतियों का वर्णन कर , उनके जानने का फल बताते हुए कहते हैं " जो पुरुष मेरी इस विभूति को और योगशक्ति को तत्व से जानता है , वह निश्चल भक्तियोग से युक्त हो जाता है - इसमें कुछ भी संशय नहीं है |" भगवान की जो अनन्यभक्ति है [ ११ / ५५ ] , जिसे ' अव्यभिचारिणी भक्ति ' [ १३ / १० ] और ' अव्यभिचारी भक्तियोग ' [ १४ / २६ ] भी कहते हैं ; [ ७ / १ ] में जिसे ' योग ' के नाम से पुकारा गया है और [ ९ / १३ , १४ , ३४ ; १० / ९ ] में जिसका स्वरूप बतलाया गया है - उस ' अविचल भक्तियोग ' का वाचक यहाँ ' अविकम्पेन ' विशेषण के सहित ' योगेन ' पद है और उसमें संलग्न रहना ही उससे युक्त हो जाना है | इसके आगे [ १० / ८ , ९ ] श्लोकों में उस भक्तियोग की प्राप्ति का क्रम बतलाया गया है |
|| इत्ती ||

धर्म - अधर्म विवेचन

|| धर्म - अधर्म विवेचन ||
भगवान गीता [ १८ / ३१ ] में राजसी बुद्धि के लक्षण बताते हुए कहते हैं " हे पार्थ ! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता , वह बुद्धि राजसी है |" सत्य , अहिंसा , दया , शांति , ब्रह्मचर्य , शम , दम , तितिक्षा तथा यज्ञ , दान , तप एवं अध्ययन , अध्यापन , प्रजापालन , कृषि , पशुपालन और सेवा आदि जितने भी वर्णाश्रम के अनुसार शास्त्रविहित शुभकर्म हैं - जिन आचरणों का फल शास्त्रों में इस लोक और परलोक के सुख - भोग बतलाया गया है - तथा जो दूसरों के हित के कर्म हैं , उन सबका नाम धर्म है | झूठ , कपट , चोरी , व्यभिचार , हिंसा , दंभ , अभक्ष्य - भक्षण आदि जितने भी पापकर्म हैं - जिनका फल शास्त्रों में दू:ख बतलाया है - उन सबका नाम अधर्म है | वर्ण, आश्रम , प्रकृति , परिस्थिति तथा देश और काल की अपेक्षा से जिस मनुष्य के लिए जो शास्त्रविहित करने योग्य कर्म है - वह कार्य [ कर्तव्य ] है और जिसके लिए शास्त्र में जिस कर्म को न करने योग्य - निषिद्ध बतलाया है , बल्कि जिसका न करना ही उचित है - वह अकार्य [ अकर्तव्य ] है | राजस भाव का फल दू:ख बतलाया है ; अतएव कल्याणकामी पुरुषों को सत्संग , सद्ग्रन्थों के अध्ययन और सद्विचारों के पोषण द्वारा बुद्धि में स्थित राजस भावों का त्याग करके सात्विक भावों को उत्पन्न करने और बढाने की चेष्टा करनी चाहिए |
शास्त्रों में धर्म की बड़ी महिमा है | इस विश्व की रक्षा करनेवाले वृषभरूप धर्म के चार पैर माने गए हैं | सतयुग में चारों पैर पूरे रहते हैं ; त्रेता में तीन , द्वापर में दो और कलियुग में एक ही पैर रह जाता है | धर्म के चार पैर हैं - सत्य , दया , शांति और अहिंसा | इनमें सत्य के बारह भेद हैं - ' झूठ न बोलना , स्वीकार किये हुए का पालन करना , प्रिय वचन बोलना , गुरु की सेवा करना , नियमों का द्रिढता से पालन करना , आस्तिकता , साधूसंग , माता - पिता का प्रिय कार्य करना , बाह्यशौच - आंतरशौच , लज्जा और अपरिग्रह |"
दया के छ: प्रकार हैं : - ' परोपकार , दान , सदा हंसते हुए बोलना , विनय , अपने को छोटा समझना और समत्वबुद्धि |' शान्ति के तीस लक्षण हैं : - ' किसी में दोष न देखना , थोड़े में संतोष करना , इन्द्रिय - संयम , भोगों में अनासक्ति , मौन , देवपूजा में मन लगाना , निर्भयता , गम्भीरता , चित्त की स्थिरता , रूखेपन का अभाव , सर्वत्र नि:स्प्रह्ता , निश्चयात्मिका बुद्धि , न करने योग्य कार्यों का त्याग , मान - अपमान में समता , दूसरे के गुण में श्लाघा , चोरी का अभाव , ब्रह्मचर्य , धैर्य , क्षमा , अतिथि - सत्कार , जप , होम , तीर्थसेवा , श्रेष्ठ पुरुषों की सेवा , मत्सरहीनता , बंध - मोक्ष का ज्ञान , संन्यास - भावना , अति दू:ख में भी सहिष्णुता , कृपणता का अभाव और मूर्खता का अभाव |'
अहिंसा के सात भाव हैं : - ' आसनजय , दूसरे को मन - वाणी - शरीर से दू:ख न पहुंचाना , श्रधा , अतिथिसत्कार , शांतभाव का प्रदर्शन , सर्वत्र आत्मीयता और दूसरे में भी आत्मबुद्धि |' यह धर्म है | इस धर्म का थोड़ा सा भी आचरण परम लाभदायक और इसके विपरीत आचरण महान हानिकारक है | इस चतुष्पाद धर्म के साथ - साथ ही अपने - अपने वर्णाश्रम अनुसार धर्मों का आचरण करना चाहिए | धर्म की रक्षा के लिए ही [ ४ / ८ ] के अनुसार भगवान युग - युग में प्रकट हुआ करते हैं |
|| इत्ती ||

आत्मज्ञान से सर्वद्रष्टा के दर्शन

|| आत्मज्ञान से सर्वद्रष्टा के दर्शन ||
रोगी को क्या रोग की चाह रहती है , दरिद्र को क्या दरिद्रता की इच्छा रहती है , फिर भी जिस बलिष्ठ प्रारब्धानुसार उन्हें रोग या दरिद्रता भोगनी ही पडती है , वह प्रारब्ध ईश्वर के वश होने के कारण अन्यथा कभी नहीं होता | वह ईश्वर भी तुम्हारे हृदय में बसता है | वह ईश्वर सम्पूर्ण भूतों के अहंकार से आवृत हो सर्वदा उल्लसित है | निजमायारुपी परदे की आड में खड़ा हो वह अकेला डोरी हिलाता है और बाहर की ओर चौरासी लाख छायाचित्रों को सजाता और ब्रह्मा से लेकर चींटी तक सब भूतों को उनकी योग्यतानुसार देहाकार दिखाता है एवं जिसके सम्मुख , उसकी योग्यतानुसार , जो देह रखता है उसे वह जीव समझता है , की यह मैं ही हूँ | इस बुद्धि से वह जीव उस देह पर आरूढ़ हो जाता है | इस प्रकार शरीर रुपी यंत्रों पर जीवों को बैठाकर वह ईश्वर आप पूर्व - कर्मरुपी सूत्र हिलाता है | भगवान गीता [ १८ / ६१ - ६३ ] में कहते हैं " हे धनुर्धर ! वायु जैसे तिनकों को आकाश में घुमाती है वैसे ही ईश्वर प्राणियों को स्वर्ग और संसार में घुमाता है | जो मूल प्रकृति के वश अनेक जीवों को उनके व्यापार में प्रवृत करता है वह एक ईश्वर तुम्हारे हृदय में है |
हे पांडव ! अर्जुनत्व को छोड़ तुममें जो अहंवृति उठती है , वही उस ईश्वर का तात्विक स्वरूप है | अर्थात ईश्वर स्वामी है , वह प्रकृति का नियमन करता है और प्रकृति अपनी इच्छानुसार इन्द्रियों से कर्म करवाती है | तुम्हें चाहिए की करना , न करना दोनों प्रकृति को सौंपकर , प्रकृति भी जिस हृदयस्थ ईश्वर के अधीन है , उसे अपना अहंकार , काया , वाचा और मन अर्पण कर गंगाजल जैसे समुद्र की शरण में जाता है , वैसे ही तुम उसकी शरण में जाओ | उसके प्रसाद [ कृपा ] से तुम सब विषयों की उपशांतिरुपी स्त्री के पति हो , आत्मानंद से निजरूप में ही रमण करोगे | तथा उत्पत्ति जहां से उत्पन्न होती है , विश्रान्ति जहां विश्राम पाती है , अनुभूति जिस अनुभव का अनुभव लेती है , लक्ष्मीनाथ कहते हैं , हे पार्थ ! उस अक्षय स्वात्म-पद के तुम राजा बन जाओगे |
यह जो गीता नाम से प्रसिद्ध है , जो सब वेदों का सार है , जिससे आत्मा रत्न के समान करगत हो सकता है , वेदान्त ने ज्ञान नाम से जिसकी महिमा वर्णन की है , अत: सब संसार में जिसकी उत्तम कीर्ति फ़ैल गई है , बुद्धि आदि ज्ञान जिस ज्ञान के सम्मुख अंधकाररूप है , जिसका उदय होते ही मैं सर्वद्रष्टा दिखाई देता हूँ , वह आत्मज्ञान मुझ सर्वगुण का भी गुप्तधन है , परन्तु तुम्हें पराया समझकर मैं उस गुप्तधन का क्या करू ? अतएव हे पांडव ! मैंने कृपा से व्याप्त हो वह गुप्तधन तुम्हें दे दिया | जैसे सूर्य को भी अंजन लगाया जाय वैसे ही मुझ सर्वज्ञ ने भी सब बातों की छानबीन कर निश्चय किया और हे धनंजय ! जो तुम्हारे हित का था वही उपदेश किया | अब इस पर तुम्हें क्या करना चाहिए , इसका तुम भी विचार कर निश्चय करो और फिर जैसा चाहो वैसा करो |
|| इत्ती ||

योगनिष्ठां [ निष्काम कर्मयोग ] का स्वरूप

|| योगनिष्ठां [ निष्काम कर्मयोग ] का स्वरूप ||
सब कुछ भगवान का समझकर सिद्धि - असिद्धि में समभाव रखते हुए , आसक्ति और फलकी इच्छा का त्याग करके भगवत - आज्ञानुसार सब कर्मों का आचरण करना [ २ / ४७ - ५१ ] अथवा श्रधाभक्तिपूर्वक मन , वाणी और शरीर से सब प्रकार भगवान की शरण होकर नाम , गुण , और प्रभाव सहित उनके स्वरूप का निरंतर चिंतन करना [ ६ / ४७ ] , यही ' योगनिष्ठां ' है | इसी का भगवान ने समत्वयोग , बुद्धियोग , तदर्थकर्म , मदर्थकर्म एवं सात्विक त्याग आदि नामों से उल्लेख किया है | योगनिष्ठां में सामान्यरूप से अथवा प्रधानरूप से भक्ति रहती ही है | गीतोक्त योगनिष्ठां भक्ति से शून्य नहीं है | जहां भक्ति अथवा भगवान का स्पष्ट शब्दों में उल्लेख नहीं है [ २ / ४७ - ५१ ] , वहाँ भी भगवान की आज्ञा का पालन तो है ही - इस दृष्टि से भक्ति का सम्बन्ध वहाँ भी है ही |
योगनिष्ठां के भी तीन मुख्य भेद हैं : - [ १ ] कर्मप्रधान कर्मयोग - समस्त कर्मों में और सांसारिक पदार्थों में फल और आसक्ति का सर्वथा त्याग करके अपने वर्णाश्रम धर्मानुसार शास्त्रविहित कर्म करते रहना ही कर्मप्रधान कर्मयोग है | इसके उपदेश में कहीं - कहीं भगवान ने केवल फल के त्याग की बात कही है [ ५ / १२ ; ६ / १ ; १२ / ११ ; १८ / ११ ] , कहीं केवल आसक्ति के त्याग की बात कही है [ ३ / १९ ; ६ / ४ ] और कहीं फल और आसक्ति दोनों के छोड़ने की बात कही है [ २ / ४७ , ४८ ; १८ / ६ , ९ ] | अर्थात कर्मयोग का साधन वास्तव में तभी पूर्ण होता है जब फल और आसक्ति दोनों का ही त्याग होता है |
[ २ ] भक्तिमिश्रित कर्मयोग - इसमें सारे संसार में परमेश्वर को व्याप्त समझते हुए अपने - अपने वर्णोंचित कर्म के द्वारा भगवान की पूजा करने की बात कही गई है [ १८ / ४६ ] , इसलिए इसको भक्तिमिश्रित कर्मयोग कह सकते हैं |
[ ३ ] भक्तिप्रधान कर्मयोग - [ क ] भगवद - अर्पण कर्म: - पूर्ण भगवद - अर्पण कर्म तो वह है जिसमें समस्त कर्मों में ममता , आसक्ति और फलेच्छा को त्यागकर तथा यह सब कुछ भगवान का है , मैं भी भगवान का हूँ और मेरे द्वारा जो कर्म होते हैं वे भी भगवान के ही हैं , भगवान ही मुझसे कठपुतली की भांति सब कुछ करवा रहे हैं - ऐसा समझते हुए भगवान की आज्ञानुसार , भगवान की ही प्रसन्नता के लिए शास्त्रविहित कर्म किये जाते हैं [ ३ / ३० ; १२ / ६ ; १८ / ५७ , ६६ ] |
इसके अतिरिक्त पहले किसी दूसरे उद्देश्य से किये हुए कर्मों को पीछे से भगवान के अर्पण कर देना , कर्म करते - करते बीच में ही भगवान के अर्पण कर देना , कर्म समाप्त होने के साथ - साथ भगवान के अर्पण कर देना अथवा कर्मों का फलमात्र भगवान के अर्पण कर देना - यह भी ' भगवद-अर्पण ' का ही प्रकार है |
[ ख ] भगवदर्थ कर्म - जो शास्त्रविहित कर्म भगवत - प्राप्ति , भगवत - प्रेम अथवा भगवान की प्रसन्नता के लिए भगवद - आज्ञानुसार किये जाते हैं वे तथा जो भगवान के विग्रह आदि का अर्चन तथा भजन - ध्यान आदि उपासनारूप कर्म जो भगवान के ही निमित्त किये जाते हैं और स्वरूप से भी भगवत - सम्बन्धी होते हैं , वे दोनों ही ' भगवदर्थ ' कर्म के अंतर्गत हैं | इन दोनों प्रकार के कर्मों का ' मत्कर्म ' और ' मदर्थ कर्म ' नाम से भी गीता में उल्लेख हुआ है [ ११ / ५५ ; १२ / १० ] |
|| इत्ती ||

सांख्यनिष्ठां [ ज्ञानयोग ] का स्वरूप

|| सांख्यनिष्ठां [ ज्ञानयोग ] का स्वरूप ||
सम्पूर्ण पदार्थ मृगतृष्णा के जल की भांति अथवा स्वप्न की सृष्टि के सदृश मायामय होने से माया के कार्यरूप सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं - इस प्रकार समझकर मन , इन्द्रिय और शरीर के द्वारा होनेवाले समस्त कर्मों में कर्त्तापन के अभिमान से रहित होना [ ५ / ८ - ९ ] तथा सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमात्मा के स्वरूप में एकीभाव से नित्य स्थित रहते हुए एक सच्चिदानन्दघन वासुदेव के सिवाय अन्य किसीके भी अस्तित्व का भाव न रहना [ १३ / ३० ] - यह सांख्यनिष्ठां है | ' ज्ञानयोग ' अथवा ' कर्मसंन्यास ' भी इसी के नाम हैं | ज्ञानयोग के अवांतर भेद कई होते हुए भी उन्हें मुख्य चार विभागों में बांटा जा सकता है : - [ १ ] इस चराचर जगत में जो कुछ प्रतीत होता है , सब ब्रह्म ही है ; कोई भी वस्तु एक परमात्मा से भिन्न नहीं है | कर्म , कर्म के साधन एवं उपकरण तथा स्वयम कर्त्ता - सब कुछ ब्रह्म ही है [ ४ / २४ ] | जिस प्रकार समुद्र में पड़े हुए बर्फ के ढेलों के बाहर और भीतर सब जगह जल - ही - जल व्याप्त है तथा वे स्वयम भी जलरूप ही हैं , उसी प्रकार समस्त चराचर भूतों के बाहर - भीतर एकमात्र परमात्मा ही परिपूर्ण हैं तथा उन समस्त भूतों के रूप में भी वे ही हैं [ १३ / १५ ] |
[ २ ] जो कुछ यह दृश्यवर्ग है , उसे मायामय , क्षणिक एवं नाशवान समझकर - इन सबका अभाव करके केवल उन सबके अधिष्ठानरूप एक परमात्मा ही हैं और कुछ भी नहीं है - ऐसा समझते हुए मन - बुद्धि को भी ब्रह्म में तद्रूप कर देना एवं परमात्मा में एकीभाव से स्थित होकर उनके अपरोक्षज्ञान द्वारा उनमें एकता प्राप्त कर लेना [ ५ / १७ ] |
[ ३ ] चर , अचर सब ब्रह्म है और वह ब्रह्म ही मैं हूँ ; इसलिए सब मेरा ही स्वरूप हैं - इस प्रकार विचारकर सम्पूर्ण चराचर प्राणियों को अपना आत्मा ही समझना | ऐसा साधन करनेवाले की दृष्टि में एक ब्रह्म के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं रहता , वह फिर अपने उस विज्ञान - आनंद - घन स्वरूप में ही आनंद का अनुभव करता है [ ५ / २४ ; ६ / २७ ; १८ / ५४ ] |
[ ४ ] जो कुछ भी यह मायामय , तीनों गुणों का कार्यरूप दृश्यवर्ग है - इसको और इसके द्वारा होनेवाली सारी क्रियाओं को अपने से पृथक नाशवान एवं अनित्य समझना तथा इन सबका अत्यंत अभाव करके केवल भावरूप आत्मा का ही अनुभव करना [ १३ / २७ , ३४ ] |
इस प्रकार की स्थिति प्राप्त करने के लिए भगवान ने गीता में अनेक युक्तियों से साधक को जगह - जगह यह बात समझाई है की आत्मा द्रष्टा , साक्षी , चेतन और नित्य है तथा यह देह आदि जड दृश्य - वर्ग - जो कुछ प्रतीत होता है - अनित्य होने से असत है ; केवल आत्मा ही सत है | इसी बात को पुष्ट करने के लिए भगवान ने [ २ / ११ से ३० ] नित्य , शुद्ध , बुद्ध , निराकार , निर्विकार , अक्रिय , गुनातीत आत्मा के स्वरूप का वर्णन किया है | अभेदरूप से साधन करनेवाले पुरुषों को आत्मा का स्वरूप ऐसा ही मानकर साधन करने से आत्मा का साक्षात्कार होता है | जो कुछ चेष्टा हो रही है , गुणों की ही गुणों में हो रही है , आत्मा का उससे कोई सम्बन्ध नहीं है [ ५ / ८ , ९ ; १४ / १९ ] | न वह कुछ करता है और न करवाता है - ऐसा समझकर वह नित्य - निरंतर अपने - आप में ही अत्यंत आनंद का अनुभव करता है [ ५ / १३ ] |
|| इत्ती ||

अभ्यास और वैराग्य विवेचन

|| अभ्यास और वैराग्य विवेचन ||
भगवान गीता [ ६ / ३५ ] में कहते हैं " हे महाबाहो ! नि:संदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होनेवाला है ; परन्तु हे कुंतीपुत्र अर्जुन ! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है |" मनको किसी लक्ष्य - विषय में तदाकार करने के लिए , उसे अन्य विषयों से खींच - खींचकर बार - बार उस विषय में लगाने के लिए किये जानेवाले प्रयत्न का नाम ही अभ्यास है | यह प्रसंग परमात्मा में मनलगाने का है , अतैव परमात्मा को अपना लक्ष्य बनाकर चितवृतियों के प्रवाह को बार - बार उन्हीं की ओर लगाने का प्रयत्न करना यहाँ ' अभ्यास ' है | परमात्मा ही सर्वोपरी , सर्वशक्तिमान , सर्वेश्वर और सबसे बढकर एकमात्र परमतत्व हैं तथा उन्हीं को प्राप्त करना जीवन का परम लक्ष्य है - इस बात की दृढ धारणा करके अभ्यास करना चाहिए | अभ्यास के अनेकों प्रकार शास्त्रों में बतलाये गए हैं | उनमें से कुछ ये हैं : -
[ १ ] श्रधा और भक्ति के साथ धैर्यवती बुद्धि की सहायता से मन को बार - बार सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में लगाने का अभ्यास करना [ ६ / २६ ] | [ २ ] जहां मन जाय , वहीं सर्वशक्तिमान अपने इष्टदेव परमेश्वर के स्वरूप का चिंतन करना | [ ३ ] भगवान की मानसपूजा का अभ्यास करना | [ ४ ] वाणी , श्वास , नाड़ी , कंठ और मन आदि में से किसी के भी द्वारा श्रीराम , कृष्ण , शिव , विष्णु , सूर्य , शक्ति आदि के किसी भी अपने परम इष्ट के नामको परम प्रेम और श्रधा के साथ परब्रह्म परमात्मा का ही नाम समझकर निष्कामभाव से उसका निरंतर जप करना | [ ५ ] शास्त्रों के भगवत - सम्बन्धी उपदेशों का श्रधा और भक्ति के साथ बार - बार मनन करना और उनके अनुसार प्रयत्न करना | [ ६ ] भगवतप्राप्त महात्मा पुरुषों का संग करके उनके अमृतमय वचनों को श्रधा - भक्तिपूर्वक सुनना और तदानुसार चलने की चेष्टा करना [ १३ / २५ ] | [ ७ ] मन की चंचलता का नाश होकर वह भगवान में ही लग जाय , इसके लिए हृदय के सच्चे कातरभाव से बार - बार भगवान से प्रार्थना करना | इनके अतिरिक्त और भी अनेकों प्रकार हैं | परन्तु इतना स्मरण रखना चाहिए की अभ्यास तभी सफल होगा , जब वह अत्यंत आदर - बुद्धि से , श्रधा और विश्वासपूर्वक बिना विराम के लगातार और लंम्बे समय तक किया जाएगा |
इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण पदार्थों में से जब आसक्ति और समस्त कामनाओं का पूर्णतया नाश हो जाता है , तब उसे ' वैराग्य ' कहते हैं | प्रकृति से अत्यंत विलक्षण पुरुष के ज्ञानसे तीनों गुणों में जो तृष्णा का अभाव हो जाना है , वह परवैराग्य या सर्वोत्तम वैराग्य है | वैराग्य के कुछ साधन ये हैं : - [ १ ] संसार के पदार्थों में विचार के द्वारा रमणीयता , प्रेम और सुख का अभाव देखना | [ २ ] उन्हें जन्म - मृत्यु , जरा , व्याधि आदि दू:ख दोषों से युक्त , अनित्य और भयदायक मानना | [ ३ ] संसार के और भगवान के यथार्थ तत्त्व का निरूपण करनेवाले सत - शास्त्रों का अध्ययन करना | [ ४ ] परम वैराग्यवान पुरुषों का संग करना , संग के अभाव में उनके वैराग्यपूर्ण चित्र और चरित्रों का स्मरण - मनन करना | [ ५ ] संसार के टूटे हुए विशाल महलों , वीरान हुए नगरों और गांवों के खंडहरों को देखकर जगत को क्षणभंगुर समझना | [ ६ ] एकमात्र ब्रह्म की ही अखंड , अद्वितीय सत्ता का बोध करके अन्य सबकी भिन्न सत्ता का अभाव समझना | [ ७ ] अधिकारी पुरुषों के द्वारा भगवान के अकथनीय गुण , प्रभाव , तत्त्व , प्रेम , रहस्य तथा उनकी लीला - चरित्रों का एवं दिव्य सौंदर्य - माधुर्य का बार -बार श्रवण करना , उन्हें जानना और उन पर पूर्ण श्रधा करके मुग्ध होना |
परन्तु यह स्मरण रखना चाहिए की ये दोनों एक - दूसरे के सहायक हैं | अभ्यास से वैराग्य बढता है और वैराग्य से अभ्यास की वृद्धि होती है | अतएव एक का भी अच्छी तरह आश्रय लेने से मन वश में हो सकता है |
|| इत्ती ||

संन्यास और त्याग ; तत्त्व विवेचन

|| संन्यास और त्याग ; तत्त्व विवेचन ||
अर्जुन ने [ १८ / १ ] में पूरी गीता का सार जानने के उद्देश्य से भगवान के सामने संन्यास यानी ज्ञानयोग और त्याग यानी फलासक्ति के त्यागरूप कर्मयोग का तत्त्व भलीभाँती अलग - अलग जानने की इच्छा प्रकट की | प्रत्युत्तर में भगवान ने [ १८ / १३ - १७ तक ] संन्यास [ ज्ञानयोग ] का स्वरूप बतलाया है | गीता श्लोक [ १८ / १९ - ४० तक ] जो सात्विक भाव और कर्म बतलाये हैं , वे इसके साधन में उपयोगी हैं ; और राजस , तामस इसके विरोधी हैं | श्लोक [ १८ / ५० - ५५ तक ] उपासना सहित ज्ञानयोग की विधि और फल बतलाया है तथा श्लोक [ १८ / १७ ] में केवल ज्ञानयोग का साधन करने का प्रकार बतलाया है |
इसी प्रकार [ १८ / ६ ] में [ फलासक्ति के त्यागरूप ] कर्मयोग का स्वरूप बतलाया है | श्लोक [ १८ / ९ ] में सात्विक त्याग के नाम से केवल कर्मयोग के साधन की प्रणाली बतलाई है | श्लोक [ १८ / ४७ , ४८ ] में स्वधर्म के पालन को इस साधन में उपयोगी बतलाया है और श्लोक [ १८ / ७ , ८ ] में वर्णित तामस , राजस त्याग को इसमें बाधक बतलाया है | श्लोक [ १८ / ४५ , ४६ ] में भक्तिमिश्रित कर्मयोग का और श्लोक [ १८ / ५६ - ६६ तक ] भक्तिप्रधान कर्मयोग का वर्णन है | श्लोक [ १८ / ४६ ] में लौकिक और शास्त्रीय समस्त कर्म करते हुए भक्तिमिश्रित कर्मयोग के साधन करने की रीति बतलाई है और श्लोक [ १८ / ५७ ] में भगवान ने भक्तिप्रधान कर्मयोग के साधन करने की रीति बतलाई है |
भगवान [ १८ / ५ , ६ ] में अपना निश्चित किया हुआ उत्तम मत बताते हुए कहते हैं " यज्ञ , दान और तप - ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को पवित्र करनेवाले हैं ; इसलिए हे पार्थ !इन यज्ञ , दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए |" यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है - इस कथन से भगवान ने यह भाव दिखलाया है की मेरे मतसे इसीका नाम त्याग है ; क्योंकि इस प्रकार कर्म करनेवाला मनुष्य समस्त कर्मबन्धनों से मुक्त होकर परमपद को प्राप्त हो जाता है , कर्मों से उसका कुछ भी संबंध नहीं रहता | भगवान के कथनानुसार समस्त कर्मों में ममता , आसक्ति और फल का त्याग कर देना ही पूर्ण त्याग है | इसके करने से कर्मबंधन का सर्वथा नाश हो जाता है ; क्योंकि कर्म स्वरूपत: बंधनकारक नहीं है ; उनके साथ ममता , आसक्ति और फल का संबंध ही बंधनकारक है | यही भगवान के मत में विशेषता है |
इस प्रकार अपना सुनिश्चित मत बतलाकर अब भगवान शास्त्रों में कहे हुए तामस , राजस और सात्त्विक , इन तीन प्रकार के त्यागों में सात्त्विक त्याग ही वास्तविक त्याग है और वही कर्तव्य है ; दुसरे दोनों त्याग वास्तविक त्याग नहीं हैं , अत: वे करने योग्य नहीं हैं - यह बात समझाने के लिए तथा अपने मत की शास्त्रों के साथ एकवाक्यता दिखलाने के लिए आगे के तीन श्लोकों [ १८ / ७ , ८ , ९ ] में क्रमसे तीन प्रकार के त्यागों के लक्षण बतलाते हैं |
|| इत्ती ||

भक्तिप्रधान कर्मयोग में अधिकारी भेद-अनुसार उपासना

|| भक्तिप्रधान कर्मयोग में अधिकारी भेद-अनुसार उपासना ||
भगवान ने [ १२ / २ ] में सगुण- साकार परमेश्वर के उपासकों को उत्तम योगवेत्ता बताया और निर्गुण - उपासना की अपेक्षा सगुण- उपासना की सुगमता का प्रतिपादन किया | इसलिए अब भगवान अर्जुन को उसी प्रकार मन , बुद्धि लगाकर सगुण - उपासना [ १२ / ८ , ९ , १० , ११ ] करने की आज्ञा देते हैं | भगवान ने पहले मन - बुद्धि को अपने में लगाने के लिए कहा , फिर अभ्यासयोग बतलाया , तदनंतर मदर्थ कर्म के लिए कहा और अंत में सर्वकर्मफलत्याग के लिए आज्ञा दी और एक में असमर्थ होने पर दुसरे का आचरण करने के लिए कहा ; भगवान का इस प्रकार का यह कथन न तो फलभेद की दृष्टि से है , क्योंकि सभी का एक ही फल भगवतप्राप्ति है ; और न एक की अपेक्षा दुसरे को सुगम ही बतलाने के लिए है , क्योंकि उपर्युक्त साधन एक - दुसरे की अपेक्षा उत्तरोत्तर सुगम नहीं है | जो साधन एक के लिए सुगम है , वही दुसरे के लिए कठिन हो सकता है | इस विचार से यह समझ में आता है की इन चारों साधनों का वर्णन केवल , अधिकारीभेद से ही किया गया है , जो इस प्रकार से है : -
[ १ ] जिस पुरुष में सगुण भगवान के प्रेम की प्रधानता है , जिसकी भगवान में स्वाभाविक श्रद्धा है , उनके गुण , प्रभाव और रहस्य की बातें तथा उनकी लीला का वर्णन जिसको स्वभाव से ही प्रिय लगता है - ऐसे पुरुष के लिए [ १२ / ८ ] में बतलाया हुआ साधन [ मन और बुद्धि को भगवान में लगाना ] सुगम और उपयोगी है |
[ २ ] जिस पुरुष का भगवान में स्वाभाविक प्रेम तो नहीं है , किन्तु श्रद्धा होने के कारण जो हठपूर्वक साधन करके भगवान में मन लगाना चाहता है - ऐसी प्रकृति वाले पुरुष के लिए [ १२ / ९ में बतलाया गया ] साधन [ अभ्यासयोग ] सुगम और उपयोगी है |
[ ३ ] जिस पुरुष की सगुण परमेश्वर में श्रद्धा है तथा यज्ञ , दान , तप आदि कर्मों में जिसका स्वाभाविक प्रेम है और भगवान की प्रतिमादी की सेवा - पूजा करने में जिसकी श्रद्धा है - ऐसे पुरुष के लिए [ १२ / १० में बताया ] साधन [ मदर्थ कर्म ] सुगम और उपयोगी है |
[ ४ ] जिस पुरुष का सगुण - साकार भगवान में स्वाभाविक प्रेम और श्रद्धा नहीं है , जो ईश्वर के स्वरूप को केवल सर्वव्यापी निराकार मानता है , व्यावहारिक और लोकहित के कर्म करने में ही जिसका स्वाभाविक प्रेम है तथा कर्मों में श्रद्धा और रुचि अधिक होने के कारण जिसका मन [ १० / ९ में बतलाये हुए ] अभ्यासयोग में भी नहीं लगता - ऐसे पुरुष के लिए [ १२ / ११ में बतलाया हुआ ] सर्वकर्मफलत्याग का साधन सुगम और उपयोगी है |
समस्त कर्मों को भगवान में अर्पण करना , भगवान के लिए समस्त कर्म करना और सब कर्मों के फल का त्याग करना - ये तीनों ही ' कर्मयोग ' हैं ; और तीनों का ही फल परमेश्वर की प्राप्ति है , अतएव फलमें किसी प्रकार का भेद नहीं है | केवल साधकों की भावना और उनके साधन की प्रणाली के भेद से इनका भेद किया गया है | समस्त कर्मों को भगवान में अर्पण करना और भगवान के लिए समस्त कर्म करना - इन दोनों में तो भक्ति की प्रधानता है ; सर्वकर्मफलत्याग में केवल फल - त्याग की प्रधानता है | यही इनका मुख्य भेद है |
|| इत्ती ||

शरणागति ही परम कर्तव्य और शरणागति से ही परमगति

|| शरणागति ही परम कर्तव्य और शरणागति से ही परमगति ||
भगवान गीता [ १८ / ६२ ] में अर्जुन को उसका कर्तव्य बतलाते हुए कहते हैं " हे भारत ! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में जा | उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शान्ति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा |" जिन सर्वशक्तिमान , सर्वाधार , सबके प्रेरक , सर्वान्तर्यामी , सर्वव्यापी , परमेश्वर को [ श्लोक १८ / ६१ में ] समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित बतलाया गया है , उन्हीं को यहाँ ' उस परमेश्वर ' कहा गया है और अपने मन , बुद्धि , इन्द्रियों को , प्राणों को और समस्त धन , जन आदि को उनके समर्पण करके उन्हीं पर निर्भर हो जाना सब प्रकार से उस परमेश्वर की शरण में चले जाना है |
भगवान के गुण , प्रभाव , तत्व और स्वरूप का श्रद्धापूर्वक निश्चय करके भगवान को ही परम प्राप्य , परम गति , परम आश्रय और सर्वस्व समझना तथा उनको अपना स्वामी , भर्त्ता , प्रेरक , रक्षक और परम हितैषी समझकर सब प्रकार से उन पर निर्भर और निर्भय हो जाना एवं सब कुछ भगवान का समझकर और भगवान को सर्वव्यापी जानकर समस्त कर्मों में ममता ,अभिमान , आसक्ति और कामना का त्याग करके भगवान की आज्ञानुसार अपने कर्मों द्वारा समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित परमेश्वर की सेवा करना ; जो कुछ भी दू:ख - सुख के भोग प्राप्त हों , उनको भगवान का भेजा हुआ पुरस्कार समझकर सदा ही संतुष्ट रहना ; भगवान के किसी भी विधान में कभी किंचिंन मात्र भी असंतुष्ट न होना ; मान , बडाई और प्रतिष्ठा का त्याग करके भगवान के सिवाय किसी भी सांसारिक वस्तु में ममता और आसक्ति न रखना ; अतिशय श्रद्धा और अनन्य प्रेमपूर्वक भगवान के नाम , गुण , प्रभाव , लीला , तत्व और स्वरूप का नित्य - निरंतर श्रवण , चिंतन और कथन करते रहना - ये सभी भाव तथा क्रियाएँ सब प्रकार से परमेश्वर की शरण ग्रहण करने के अंतर्गत हैं |
उपर्युक्त प्रकार से भगवान की शरण ग्रहण करनेवाले भक्त पर परम दयालु , परम सुहृद , सर्वशक्तिमान परमेश्वर की अपार दया का स्रोत बहने लगता है - जो उसके समस्त दू:खों और बन्धनों को सदा के लिए बहा ले जाता है | इस प्रकार भक्त का जो समस्त दू:खों से और समस्त बन्धनों से छूटकर सदा के लिए परमानंद से युक्त हो जाना और सच्चिदानन्दघन पूर्णब्रह्म सनातन परमेश्वर को प्राप्त हो जाना है , यही परमेश्वर की कृपा से परम शान्ति को और सनातन परम धाम को प्राप्त हो जाना है |
इस प्रकार अर्जुन को अन्तर्यामी परमेश्वर की शरण ग्रहण करने के लिए आज्ञा देकर अब भगवान उक्त उपदेश का उपसंहार करते हुए कहते हैं " इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुझसे कह दिया | अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँती विचारकर , जैसे चाहता है वैसे ही कर [ १८ / ६३ ] |" भगवान ने [ श्लोक २ / ११ ] से आरंभ करके यहाँ तक अर्जुन को अपने गुण , प्रभाव , तत्व और स्वरूप का रहस्य भलीभाँती समझाने के लिए जितनी बातें कही हैं - उस समस्त उपदेश का वाचक यहाँ ' ज्ञान ' पद है ; वह सारा - का - सारा उपदेश भगवान का प्रत्यक्ष ज्ञान करानेवाला है , इसलिए उसका नाम ज्ञान रखा गया है | इस उपदेश का महत्व समझाने के लिए और यह बात बताने के लिए की अनाधिकारी के सामने इन बातों को प्रकट नहीं करना चाहिए , यहाँ ज्ञान के साथ ' गोपनीय से भी अति गोपनीय ' विशेषण दिया गया है |
|| इत्ती ||

निष्काम और अनन्य प्रेमी साधक - भक्त अतिशय प्रिय

|| निष्काम और अनन्य प्रेमी साधक - भक्त अतिशय प्रिय ||
भगवान ने गीता [ १२ / १३ - १९ ] में भक्तियोग द्वारा सिद्ध भक्तों [ ज्ञानी भक्तों ] के लक्षण बतलाये हैं | अब उन लक्षणों को आदर्श मानकर बड़े प्रयत्न के साथ उनका भली - भाँती सेवन करनेवाले , परम श्रधालु , शरणागत भक्तों [ साधक भक्तों ] की प्रशंसा करने के लिए उनको अपना अत्यंत प्रिय बतलाकर भगवान इस [ १२ वा अध्याय , ' भक्तियोग ' ] अध्याय का उपसंहार करते हुए कहते हैं " परन्तु जो श्रद्धायुक्त पुरुष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेम भाव से सेवन करते हैं , वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं |" इस श्लोक में उन उत्तम साधक भक्तों की प्रशंसा की गयी है , जो सिद्ध भक्तों से भिन्न हैं और श्लोक [ १२ / १३ - १९ तक ] में बताए गए लक्षणों को आदर्श मानकर उनका सेवन करते हैं [ श्लोक १२ / २० ] |
सर्वव्यापी , सर्वशक्तिमान भगवान के अवतारों में , वचनों में एवं उनके गुण , प्रभाव , ऐश्वर्य और चरित्र आदि में जो प्रत्यक्ष के सदृश सम्मानपूर्वक विश्वास रखता हो - वह श्रद्धावान है | परम प्रेमी और परम दयालु भगवान को ही परमगति , परम आश्रय एवं अपने प्राणों के आधार , सर्वस्व मानकर उन्हीं पर निर्भर और उनके किये हुए विधान में प्रसन्न रहनेवाले को भगवतपरायण पुरुष कहते हैं |
भगवद्भक्तों के उपर्युक्त [ सात श्लोकों में बताए गए ] लक्षण ही वस्तुत: मानवधर्म का सच्चा स्वरूप है | इन्हीं के पालन में मनुष्यजन्म की सार्थकता है , क्योंकि इनके पालन से साधक सदा के लिए मृत्यु के पंजे से छूट जाता है और उसे अमृतस्वरूप भगवान की प्राप्ति हो जाती है | इसी भाव को स्पष्ट समझाने के लिए यहाँ इस लक्षण - समुदाय का नाम ' धर्ममय अमृत ' रखा गया है | भली - भाँती तत्पर होकर निष्काम प्रेमभाव से इन उपर्युक्त लक्षणों का श्रद्धापूर्वक सदा - सर्वदा सेवन करना , यही ' पर्युपासते ' का अभिप्राय है |
जिन सिद्ध भक्तों को भगवान की प्राप्ति हो चुकी है , उनमें तो उपर्युक्त लक्षण स्वाभाविक ही रहते हैं और भगवान के साथ उनका नित्य तादात्म्य - संबंध हो जाता है | इसलिए उनमें इन गुणों का होना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है | परन्तु जिन एकनिष्ठ साधक भक्तों को भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हुए हैं , तो भी वे भगवान पर विश्वास करके परम श्रद्धा के साथ तन , मन , धन , सर्वस्व भगवान के अर्पण करके उन्हीं के परायण हो जाते हैं तथा भगवान के दर्शनों के लिए निरंतर उन्हीं का निष्कामभाव से प्रेमपूर्वक चिंतन करते रहते हैं और सतत चेष्टा करके उपर्युक्त लक्षणों के अनुसार ही अपना जीवन बिताना चाहते हैं - बिना प्रत्यक्ष दर्शन हुए भी केवल विश्वास पर उनका इतना निर्भर हो जाना विशेष महत्त्व की बात है | इसीलिए भगवान को वे विशेष प्रिय होते हैं | ऐसे प्रेमी भक्तों को भगवान अपना नित्य संग प्रदान करके जबतक संतुष्ट नहीं कर देते तबतक वे उनके रीनि ही बने रहते हैं - ऐसी भगवान की मान्यता है | अतएव भगवान का उन्हें सिद्ध भक्तों की अपेक्षा भी ' अतिशय प्रिय ' कहना उचित ही है |
|| इत्ती ||

नित्य - निरंतर स्मरण से परम सिद्धि की प्राप्ति

|| नित्य - निरंतर स्मरण से परम सिद्धि की प्राप्ति ||
साधारण मनुष्य के लिए अंत - काल में निर्गुण - निराकार तथा सगुन - निराकार का ध्यान करना बहुत [ योगाभ्यास के अभाव में ] ही कठिन है | अतएव सुगमता से परमेश्वर की प्राप्ति का , नित्य - निरंतर स्मरण करने का , उपाय बतलाते हुए भगवान गीता [ ८ / १४ - १५ ] में कहते हैं " हे अर्जुन ! जो पुरुष मुझमें अनन्यचित्त होकर सदा ही निरंतर मुझ पुरुषोत्तम को स्मरण करता है , उस नित्य - निरंतर मुझमें युक्त हुए योगी के लिए मैं सुलभ हूँ , अर्थात उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ |" जिसका चित्त अन्य किसी भी वस्तु में न लगकर निरंतर अनन्य प्रेम के साथ केवल परम प्रेमी परमेश्वर में ही लगा रहता हो , उसे ' अनन्यचित्त ' कहते हैं | सतत पद से यह दिखलाया गया है की एक क्षण का भी व्यवधान न पडकर लगातार स्मरण होता रहे और ' नित्यश: ' पदसे यह सूचित किया है की ऐसा लगातार स्मरण आजीवन सदा - सर्वदा होता ही रहे , इसमें एक दिन का भी नागा न हो | यहाँ ' मुझ पुरुषोत्तम ' पद सगुन - साकार भगवान श्रीकृष्ण का वाचक है | परन्तु जो श्रीविष्णु और श्रीराम या भगवान के दुसरे रूप को इष्ट माननेवाले हैं उनके लिए वह रूप भी ' मुझमें ' का ही वाचक है | तथा परम प्रेम और श्रद्धा के साथ निरंतर भगवान के स्वरूप का अथवा उनके नाम , गुण , प्रभाव और लीला आदि का चिंतन करते रहना ही उसका स्मरण करना है |
अनन्यभावसे भगवान का चिंतन करनेवाला प्रेमी भक्त जब भगवान के वियोग को नहीं सह सकता , तब [ गीता श्लोक ४ / ११ के अनुसार ] भगवान को भी उसका वियोग असह्य हो जाता है ; और जब भगवान स्वयम मिलने की इच्छा करते हैं , तब कठिनता के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता | इसी हेतु से ऐसे भक्त के लिए भगवान को सुलभ बतलाया गया है |
आगे [ ८ / १५ ] में उनके पुनर्जन्म न होने की बात कहकर यह दिखलाते हैं की भगवतप्राप्त महापुरुषों का भगवान से फिर कभी वियोग नहीं होता | वे कहते हैं " परम सिद्धि को प्राप्त महात्माजन मुझको प्राप्त होकर दू:खों के घर एवं क्षणभंगुर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते |" अतिशय श्रद्धा और प्रेम के साथ नित्य - निरंतर भजन - ध्यान का साधन करते - करते जब साधन की वह पराकाष्ठारूप स्थिति प्राप्त हो जाती है , जिसके प्राप्त होने के बाद फिर कुछ भी साधन करना शेष नहीं रह जाता और तत्काल ही उसे भगवान का प्रत्यक्ष साक्षात्कार हो जाता है -उस स्थिति को ' परम सिद्धि ' कहते हैं ; और भगवान के जो भक्त इस परम सिद्धि को प्राप्त हैं , उन ज्ञानी भक्तों के लिए ' महात्मा ' शब्द का प्रयोग किया गया है |
यह नियम है की एक बार जिसको समस्त सुखों के अनंत सागर , सबके परमाधार , परम आश्रय , परमात्मा , परमपुरुष भगवान की प्राप्ति हो जाती है , उसका फिर कभी किसी भी परिस्थिति में भगवान से वियोग नहीं होता | इसीलिए भगवतप्राप्ति हो जाने के बाद फिरसे संसार में जन्म नहीं लेना पडता , ऐसा कहा गया है |
जो चतुर्मुख ब्रह्मा सृष्टि के आदि में भगवान के नाभिकमल से उत्पन्न होकर सारी सृष्टि की रचना करते हैं , जिनको प्रजापति , हिरण्यगर्भ और सूत्रात्मा भी कहते हैं तथा जिनको ' अधिदेव ' भी कहा गया है [ ८ / ४ ] , वे जिस ऊर्ध्वलोक में निवास करते हैं , उस लोकविशेष का नाम ' ब्रह्मलोक ' है | बार - बार नष्ट होना और उत्पन्न होना जिनका स्वभाव हो एवं जिनमें निवास करनेवाले प्राणियों का मुक्त होना निश्चित न हो , उन लोकों को ' पुनरावर्ती ' कहते हैं |
|| इत्ती ||

सर्वोत्तम भक्त ही सर्वोत्तम योगी है

|| सर्वोत्तम भक्त ही सर्वोत्तम योगी है ||
भगवान गीता [ ६ / ४७ ] में अनन्यप्रेम करनेवाले भक्त योगी की प्रशंसा करते हुए कहते हैं " सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रधावान योगी मुझमें लगे हुए अंतरात्मा से मुझको निरंतर भजता है , वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है |" जो भगवान की सत्ता में , उनके अवतारों में , उनके वचनों में , उनके अचिंत्यानंत दिव्य गुणों में तथा नाम और लीला में एवं उनकी महिमा , शक्ति , प्रभाव और ऐश्वर्य आदि में प्रत्यक्ष के सदृश पूर्ण और अटल विश्वास रखता हो उसे ' श्रद्धावान ' कहते हैं | भगवान को ही सर्वश्रेष्ठ , सर्वगुनाधार , सर्वशक्तिमान और महान प्रियतम जान लेने से जिसका भगवान में ही अनन्यप्रेम हो गया है और इसलिए जिसका मन - बुद्धिरूप अंत:करण अचल , अटल , और अनन्यभाव से भगवान में ही स्थित हो गया है , उस अंत:करण को ' मद्गत अंतरात्मा ' या मुझमें लगा हुआ अंतरात्मा कहते हैं |
यहाँ ' माम ' पद सगुन- निर्गुण समग्र ब्रह्म पुरुषोत्तम का वाचक है | सब प्रकार और सब ओर से अपने मन - बुद्धि को भगवान में लगाकर परम श्रद्धा और प्रेम के साथ , चलते - फिरते , उठते - बैठते , खाते - पीते , सोते - जागते , प्रत्येक क्रिया करते अथवा एकांत में स्थित रहते , निरंतर श्रीभगवान का भजन - ध्यान करना ही ' भजते ' का अर्थ है |
भगवान कहते हैं " यद्यपि मुझे तपस्वी , ज्ञानी और कर्मी आदि सभी प्यारे हैं और इन सबसे भी वे योगी मुझे अधिक प्यारे हैं जो मेरी ही प्राप्ति के लिए साधन करते हैं , परन्तु जो मेरे समग्ररूप को जानकर मुझसे अनन्यप्रेम करता है , केवल मुझको ही अपना परम प्रेमास्पद मानकर , किसी बातकी अपेक्षा , आकांक्षा और परवाह न रखकर अपने अंतरात्मा को दिन - रात मुझमें ही लगाए रखता है , मात्परायण शिशु की भाँती जो मुझको छोड़कर और किसीको जानता ही नहीं , वह तो मेरे हृदय का परम धन है | मैं अपने हृदय से उसकी ओर देखता रहता हूँ , और उसकी प्रत्येक चेष्टा मुझको अपार सुख पहुंचानेवाली होती है | मैं अनंत आनंद का सागर होकर भी अपने उस भक्त की चेष्टा देख - देखकर परम आनंद को प्राप्त होता रहता हूँ | उसकी क्या बडाई करूं ? वह मेरा अपना है , मेरा ही है , उससे बढकर मेरा प्रियतम और कौन है ? जो मेरा प्रियतम है , वही तो श्रेष्ठ है , इसलिए मेरे मन में वही सर्वोत्तम भक्त है और वही सर्वोत्तम योगी है |"
यह सही है की भय और द्वेष आदि कारणों से भी मन - बुद्धि भगवान में लग सकते हैं और किसी भी कारण से मन - बुद्धि के परमात्मा में लग जाने का फल परम कल्याण ही है | परन्तु यहाँ का प्रसंग प्रेमपूर्वक भगवान में मन - बुद्धि लगाने का है ; भय और द्वेषपूर्वक नहीं | क्योंकि भय और द्वेष से जिसके मन - बुद्धि भगवान में लग जाते हैं , उसको न तो श्रद्धावान ही कहा जा सकता है और न परम योगी ही माना जा सकता है | इसके अतिरिक्त गीता में स्थान - स्थान पर [ ७ / १७ ; ९ / १४ ; १० / १० ] प्रेमपूर्वक ही भगवान में मन - बुद्धि लगाने की प्रशंसा की गई है |
|| इत्ती ||

सर्वोत्तम एवं सुगम साधन ' भक्तियोग ' का वर्णन

|| सर्वोत्तम एवं सुगम साधन ' भक्तियोग ' का वर्णन ||
जो मनुष्य मन , इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके कर्मयोग , ज्ञानयोग या ध्यानयोग का साधन करने में अपने को समर्थ नहीं समझता हो , ऐसे साधक के लिए सुगमता से परमपद की प्राप्ति करानेवाले भक्तियोग का संक्षेप में वर्णन करते हुए भगवान गीता [ ५ / २९ ] में कहते हैं " मेरा भक्त मुझको सब यज्ञ और तपों का भोगनेवाला , सम्पूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर तथा सम्पूर्ण भूत - प्राणियों का सुहृद अर्थात स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी , ऐसा तत्व से जानकर शान्ति को प्राप्त होता है |"
अहिंसा , सत्य आदि धर्मों का पालन , देवता , ब्राह्मण , माता - पिता आदि गुरुजनों का सेवन - पूजन , दीन - दू:खी , गरीब और पीड़ित जीवों की स्नेह और आदरयुक्त सेवा और उनके दू:खनाश के लिए किये जानेवाले उपयुक्त साधन एवं यज्ञ , दान आदि जितने भी शुभकर्म हैं , सभी का समावेश ' यज्ञ ' और ' तप ' शब्दों में समझना चाहिए | भगवान सबके आत्मा हैं [ १० / २० ] ; अतएव देवता , ब्राह्मण , दीन - दू:खी आदि के रूप में स्थित होकर भगवान ही समस्त सेवा - पूजा आदि ग्रहण कर रहे हैं | इसलिए वे ही समस्त यज्ञ और तपों के भोक्ता हैं [ ९ / २४ ] | जो पुरुष भगवान के तत्व और प्रभाव को जानता है , वह सबके अंदर आत्मरूपसे विराजित भगवान को ही देखता है |
इंद्र , वरुण , कुबेर , यमराज आदि जितने भी लोकपाल हैं तथा विभिन्न ब्रह्मांडों में अपने - अपने ब्रह्मांड का नियंत्रण करनेवाले जितने भी ईश्वर हैं , भगवान उन सभी के स्वामी और महान ईश्वर हैं | इसीसे श्रुति में कहा है ' उन ईश्वरों के भी परम महेश्वर को ' अपनी अनिर्वचनीय मायाशक्ति द्वारा भगवान अपनी लीला से ही सम्पूर्ण अनंतकोटि ब्रह्मांडों की उत्पत्ति , स्थिति और संहार करते हुए सबको यथायोग्य नियंत्रण में रखते हैं और ऐसा करते हुए भी वे सबसे ऊपर ही रहते हैं | इस प्रकार भगवान को सर्वशक्तिमान , सर्वनियंता , सर्वाध्यक्ष और सर्वेश्वरेश्वर समझना ही उन्हें ' सर्वलोक - महेश्वर ' समझना है |
भगवान तो सदा - सर्वदा सभी प्रकार से पूर्णकाम हैं [ ३ / २२ ] ; तथापि दयामय स्वरूप होने के कारण वे स्वाभाविक ही सब पर अनुग्रह करके सबके हित की व्यवस्था करते हैं और बार - बार अवतीर्ण होकर नाना प्रकार के ऐसे विचित्र चरित्र करते हैं , जिन्हें गा - गाकर ही लोग तर जाते हैं | उनकी प्रत्येक क्रिया में जगत का हित भरा रहता है | भगवान जिनको मारते या दंड देते हैं उन पर भी दया ही करते हैं , उनका कोई भी विधान दया और प्रेम से रहित नहीं होता | इसीलिए भगवान सब भूतों के सुहृद हैं | जो पुरुष इस बात को जान लेता है और विश्वास कर लेता है की ' भगवान मेरे अहेतुक प्रेमी हैं , वे जो कुछ भी करते हैं , मेरे मंगल के लिए ही करते हैं |' वह प्रत्येक अवस्था में जो कुछ भी होता है , उसको दयामय परमेश्वर का प्रेम और दया से ओत - प्रोत मंगलविधान समझकर सदा ही प्रसन्न रहता है | इसलिए उसे अटल शान्ति मिल जाती है | इस प्रकार जो भगवान को यज्ञ - तपों का भोक्ता , समस्त लोकों के महेश्वर और समस्त प्राणियों के सुहृद - इन तीनों लक्षणों से युक्त जानता है , वही शान्ति को प्राप्त होता है |
श्रधा और प्रेम के साथ महापुरुषों का संग , सत - शास्त्रों का श्रवण - मनन और भगवान की शरण होकर अत्यंत उत्सुकता के साथ उनसे प्रार्थना करनेपर उनकी दया से मनुष्य भगवान के स्वरूप , प्रभाव , तत्व और गुणों को समझकर उनका अनन्य भक्त हो सकता है |
भगवान के उपरोक्त तीन लक्षणों में से किसी एक लक्षण से युक्त समझनेवाले को भी शान्ति मिल जाती है क्योंकि जो किसी एक लक्षण को भी भली - भाँती समझ लेता है , वह अनन्यभाव से भजन किये बिना रह ही नहीं सकता | भजन के प्रभाव से उस पर भगवत - कृपा बरसने लगती है और भगवत्कृपा से वह अत्यंत ही शीघ्र भगवान के स्वरूप , प्रभाव , तत्व तथा गुणों को समझकर पूर्ण शान्ति को प्राप्त हो जाता है |
|| इत्ती ||

निर्गुण - ब्रह्म की प्राप्ति ही परम गति है

|| निर्गुण - ब्रह्म की प्राप्ति ही परम गति है ||
भगवान गीता [ ८ / १० - १३ ] में परम दिव्य पुरुष का स्वरूप बतलाकर अब साधन की विधि और फल बतलाते हैं | भगवद - विषयक अनुराग का नाम भक्ति है ; जिसमें भक्ति होती है , वही भक्ति से युक्त है | इससे पूर्व [ श्लोक ८ / ८ ] बतलाया हुआ अभ्यासयोग [ अष्टांगयोग ] ही ' योग ' है , योगाभ्यास से उत्पन्न जो यथायोग्य प्राण - संचालन और प्राणनिरोध का सामर्थ्य है , उसका नाम ' योगबल ' है | दोनों भोंहों के बीच में जहां योगशास्त्र के जाननेवाले पुरुष ' आज्ञाचक्र ' बतलाया करते हैं , वही भृकुटी के मध्य का स्थान है | कहते हैं की यह आज्ञाचक्र द्विदल है | इसमें त्रिकोण योनी है | अग्नि , सूर्य और चन्द्र इसी त्रिकोण में एकत्र होते हैं | जानकार योगी पुरुष महाप्रयाण के समय योगबल से प्राणों को यहीं लाकर स्थिर रूप से निरुद्ध कर देते हैं | इसीका नाम अच्छी तरह प्राणों का स्थापन करना है | इस आज्ञाचक्र के समीप सप्त कोष हैं , जिनके नाम हैं - इंदु , बोधिनी , नाद , अर्धचन्द्रिका , महानाद [ सोमसुर्याग्नीरूपिणी ] कला और उन्मनी ; प्राणों के द्वारा उन्मनी कोष में पहुंच जाने पर जीव परम पुरुष को प्राप्त हो जाता है | फिर उसका पराधीन होकर जन्म लेना बंद हो जाता है | वह या तो जन्म लेता ही नहीं , लेता है तो लोकोपकार के लिए स्वेच्छा से या भगवद - इच्छा से |
आगे [ ८ / ११ ] यह भाव दिखलाया गया है की वेद के जाननेवाले ज्ञानी महात्मा पुरुष ही उस ब्रह्म के विषय में कुछ कह सकते हैं , इसमें अन्य लोगों का अधिकार नहीं है | वे महात्मा कहते हैं की यह ' अक्षर ' है अर्थात यह एक ऐसा महान तत्व है , जिसका किसी भी अवस्था में कभी भी किसी भी रूप में क्षय नहीं होता ; यह सदा अविनश्वर , एकरस और एक रूप रहता है | गीता [ १२ / ३ ] में जिस अव्यक्त अक्षर की उपासना का वर्णन है , यहाँ भी यह उसीका प्रसंग है | यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए की इस प्रवेश का अर्थ ' कोई आदमी बाहर से किसी घर में घुस गया ' ऐसा नहीं है | परमात्मा तो अपना स्वरूप होने से नित्य प्राप्त ही है , इस नित्यप्राप्त तत्व में जो अप्राप्ति का भ्रम हो रहा है - उस अविद्यारूप भ्रम का मिट जाना ही उसमें प्रवेश करना है |
आगे [ ८ / १२ - १३ ] सब द्वारों के रोकने का मतलब है , श्रोत्र आदि पांच ज्ञानेंद्रियाँ और वाणी आदि पांच कर्मेंद्रियां - इन दसों इन्द्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर अर्थात देखने , सुनने आदि की समस्त क्रियाओं को बंद करके , साथ ही इन्द्रियों के गोलकों [ रहने के स्थानों ] को भी रोककर , इन्द्रियों की वृति को अंतरमुख कर लेना ही सब द्वारों का संयम करना है | नाभि और कंठ - इन दोनों स्थानों के बीच का स्थान , जिसे हृदयकमल भी कहते हैं और जो मन तथा प्राणों का निवासस्थान माना गया है , हृद्देश है ; और इधर - उधर भटकनेवाले मन को संकल्प - विकल्पों से रहित करके हृदय में निरुद्ध कर देना ही उसको हृद्देश में स्थिर करना है | मनको हृदय में रोकने के बाद प्राणों को ऊर्ध्वगामी नाडी के द्वारा हृदय से ऊपर उठाकर मस्तक में स्थापित करने के लिए कहा गया है , ऐसा करने से प्राणों के साथ - साथ मन भी वहीं जाकर स्थित हो जाता है | उपर्युक्त प्रकार से इन्द्रियों का संयम और मन तथा प्राणों का मस्तक में भली - भाँती निश्चल हो जाना ही योगधारणा में स्थित रहना है |
गीता [ १० / २५ ] में भी ओंकार को ' एक अक्षर ' कहा है | यह अद्वितीय अविनाशी परब्रह्म परमात्मा का नाम है और नाम तथा नामी में वास्तव में अभेद माना गया है ; इसलिए भी ओंकार को ' एक अक्षर ' और ' ब्रह्म ' कहना उचित ही है | कठोपनिषद में भी कहा है '' यह अक्षर ही ब्रह्म है , यह अक्षर ही परम है ; इसी अक्षर को जानकर ही जो जिसकी इच्छा करता है , उसे वही प्राप्त हो जाता है |" अत: निर्गुण - निराकार ब्रह्म को अभेद भाव से प्राप्त हो जाना , परम गति को प्राप्त होना है ; इसीको सदा के लिए आवागमन से मुक्त होना , मुक्ति - लाभ कर लेना , मोक्ष को प्राप्त होना अथवा ' निर्वाण ब्रह्म ' को प्राप्त होना कहते हैं |
|| इत्ती ||

ध्यानयोग का संक्षिप्त विवरण

|| ध्यानयोग का संक्षिप्त विवरण ||
कर्मयोग और ज्ञानयोग दोनों ही प्रकार के साधकों के लिए वैराग्यपूर्वक मन - इन्द्रियों को वश में करके ध्यानयोग का साधन करना उपयोगी है ; अत: भगवान गीता [ ५ / २७ - २८ ] में संक्षेप में फलसहित ध्यानयोग का वर्णन करते हैं | वे कहते हैं " बाहर के विषय - भोगों को न चिंतन करता हुआ बाहर ही निकालकर और नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीचमें स्थित करके तथा नासिका में विचरनेवाले प्राण और अपानवायु को सम करके , जिसकी इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि जीती हुई हैं - ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा , भय और क्रोध से रहित हो गया है , वह सदा मुक्त ही है |"
विषय - चिंतन तब तक बंद नहीं होता , जब तक विषयों में सुख - बुद्धि बनी हुई है | इसलिए यहाँ भगवान कहते हैं की विवेक और वैराग्य के बल से सम्पूर्ण बाह्य विषयों को क्षणभंगुर , अनित्य , दू:खमय और दू:खों के कारण समझकर उनके संस्काररूप समस्त चित्रों को अंत:करण से निकाल देना चाहिए - उनकी स्मृति को सर्वथा नष्ट कर देना चाहिए ; तभी चित्त सुस्थिर और प्रशांत होगा | नेत्रों की दृष्टि को भृकुटी के बीच में लगाने का योगशास्त्र सम्बन्धी कारण है | कहते हैं की भृकुटी के मध्य में द्विदल आज्ञाचक्र है | इसके समीप ही सप्तकोष हैं , उनमें अंतिम कोष का नाम ' उन्मनी ' है ; वहाँ पहुंच जाने पर जीव की पुनरावृति नहीं होती | इसीलिए योगीगन आज्ञाचक्र में दृष्टि स्थिर किया करते हैं |
विषमभाव से विचरनेवाले प्राण और अपांन वायु की गति को दोनों नासिकाओं में समान भाव से कर देना ही उनको सम करना है | यही उनका सुषुम्ना में चलना है | सुषुम्ना नाड़ी पर चलते समय प्राण और अपान की गति बहुत ही सूक्ष्म और शांत रहती है | तब मन की चंचलता और अशांति अपने - आप ही नष्ट हो जाती है और वह सहज ही परमात्मा के ध्यान में लग जाता है | विवेक और वैराग्यपूर्वक अभ्यास द्वारा इन्द्रियों को सुसृन्खल , आज्ञाकारी और अंतर्मुखी या भगवननिष्ठ बना लेना ही इनको जीतना है | ऐसा कर लेने पर इन्द्रियाँ स्वछंदता से विषयों में न रमकर हमारी इच्छानुसार जहां हम कहेंगे वहीं रुकी रहेगी , मन हमारी इच्छानुसार एकाग्र हो जाएगा और बुद्धि एक इष्ट निश्चयपर अचल और अटल रह सकेगी | ऐसा माना जाता है और यह ठीक ही है की इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेने से प्रत्याहार [ इन्द्रियवृतियों का संयत होना ] , मन को वश में कर लेने पर धारणा [ चित्त का एक देश में स्थिर करना ] और बुद्धि को अपने अधीन बना लेने पर ध्यान [ बुद्धि को एक ही निश्चय पर अचल रखना ] सहज हो जाता है | इसलिए ध्यानयोग में इन तीनों को वश में कर लेना बहुत ही आवश्यक है |
जिसे परमात्मा की प्राप्ति , परमगति , परमपद की प्राप्ति या मुक्ति कहते हैं , उसी का नाम मोक्ष है | यह अवस्था मन - वाणी से परे है | जिसका एकमात्र उद्देश्य केवल परमात्मा को ही प्राप्त करना है , वही ' मोक्षपरायण ' है | जो पुरुष व्यवहारकाल में भी सदा परमात्मा का ही मनन करता रहता है , वही ' मुनि ' है | इच्छा होती है - किसी भी अभाव का अनुभव होने पर ; भय होता है अनिष्ट की आशंका से तथा क्रोध होता है कामना में विघ्न पड़ने पर अथवा मन के अनुकूल कार्य न होने पर | उपर्युक्त प्रकार से ध्यानयोग का साधन करते - करते जो पुरुष सिद्ध हो जाता है , उसे सर्वत्र , सर्वदा और सर्वथा परमात्मा का अनुभव होता है | इस स्थिति में उसके अंत:करण में न तो व्यवहारकाल में और न स्वप्न में , कभी किसी अवस्था में भी , किसी प्रकार की इच्छा ही उत्पन्न होती है , न किसी भी घटना से किसी प्रकार का भय ही होता है और न किसी भी अवस्था में क्रोध ही उत्पन्न होता है |
जो महापुरुष उपर्युक्त साधनों द्वारा इच्छा , भय और क्रोध से सर्वथा रहित हो गया है , वह ध्यानकाल में या व्यवहारकाल में , शरीर रहते या शरीर छूट जाने पर , सभी अवस्थाओं में सदा मुक्त ही है -संसारबंधन से सदा के लिए सर्वथा छूटकर परमात्मा को प्राप्त हो चुका है , इसमें कुछ भी संदेह नहीं है |
|| इत्ती ||

ज्ञानयोगी ब्रह्म ही होकर ब्रह्म को प्राप्त करता है

|| ज्ञानयोगी ब्रह्म ही होकर ब्रह्म को प्राप्त करता है ||
भगवान गीता [ ५ / २३ - २४ ] में , बाह्य विषयभोगों को क्षणिक और दू:खों का कारण समझकर तथा आसक्ति का त्याग करके जो काम - क्रोध पर विजय प्राप्त कर चूका है , अब ऐसे ज्ञानयोगी की अंतिम स्थिति का फलसहित वर्णन करते हुए कहते हैं " जो पुरुष अंतरात्मा में ही सुखवाला है , आत्मा में ही रमण करनेवाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञानवाला है , वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त सांख्ययोगी शांत ब्रह्म को प्राप्त होता है |" जो पुरुष बाह्य विषयभोगरूप सांसारिक सुखों को स्वप्न की भाँती अनित्य समझ लेने के कारण उनको सुख नहीं मानता किन्तु इन सबके अंत:स्थित परम आनंदस्वरूप परमात्मा में ही ' सुख ' मानता है , वही ' अंत:सुख ' अर्थात परमात्मा में ही सुखवाला है |
जो बाह्य विषयभोगों में सत्ता और सुख - बुद्धि न रहने के कारण उनमें रमण नहीं करता , इन सबमें आसक्तिरहित होकर केवल परमात्मा में ही रमण करता है अर्थात परमात्मा का ही निरंतर अभिन्नभाव से चिंतन करता रहता है , वह ' अन्तराराम ' कहलाता है | परमात्मा समस्त ज्योतियों की भी परम ज्योति है [ १३ / १७ ] | संम्पूर्ण जगत उसीके प्रकाश से प्रकाशित है | जो पुरुष निरंतर अभिन्न भाव से ऐसे परम ज्ञानस्वरूप परमात्मा का अनुभव करता हुआ उसीमें स्थित रहता है , जिसकी दृष्टि में एक विज्ञानानन्दस्वरूप परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी भी बाह्य दृश्य वस्तु की भिन्न सत्ता ही नहीं रही है , वही ' अंतर्ज्योति ' है | अभिप्राय यह है की बाह्य दृश्य प्रपंच से उस योगी का कुछ भी संबंध नहीं है ; क्योंकि वह परमात्मा में ही सुख , रति और ज्ञान का अनुभव करता है |
यहाँ ' ब्रह्मभूत ' पद ज्ञानयोगी का विशेषण है | ज्ञानयोग का साधन करनेवाला योगी अहंकार , ममता , और काम - क्रोधादि समस्त अवगुणों का त्याग करके निरंतर अभिन्नभाव से परमात्मा का चिंतन करते - करते जब ब्रह्मरूप हो जाता है , जब उसका ब्रह्म के साथ किंचिंन मात्र भी भेद नहीं रहता , तब इस प्रकार की अंतिम स्थिति को प्राप्त ज्ञानयोगी ' ब्रह्मभूत ' कहलाता है | इस स्थिति को तुलसीदासजी ने यूं कहा है " उलटा नाम जपे जग जाना , बाल्मीकी भए ब्रह्म समाना |"
यहाँ ' ब्रह्मनिर्वाणम ' पद सच्चिदानन्दघन , निर्गुण , निराकार , निर्विकल्प एवं शांत परमात्मा का वाचक है और अभिन्नभावसे प्रत्यक्ष हो जाना ही उसकी प्राप्ति है | ज्ञानयोगी की जिस अंतिम अवस्था का ' ब्रह्मभूत ' शब्द से निर्देश किया गया है , यह उसीका फल है ! श्रुति में भी कहा है ' ब्रह्मैव सन ब्रह्माप्येती ' अर्थात ' वह ब्रह्म ही होकर ब्रह्म को प्राप्त होता है |' इसीको परम शान्ति की प्राप्ति , अक्षय सुख की प्राप्ति , ब्रह्मप्राप्ति , मोक्षप्राप्ति और परमगति की प्राप्ति कहते हैं |
|| इत्ती |||| ज्ञानयोगी ब्रह्म ही होकर ब्रह्म को प्राप्त करता है ||
भगवान गीता [ ५ / २३ - २४ ] में , बाह्य विषयभोगों को क्षणिक और दू:खों का कारण समझकर तथा आसक्ति का त्याग करके जो काम - क्रोध पर विजय प्राप्त कर चूका है , अब ऐसे ज्ञानयोगी की अंतिम स्थिति का फलसहित वर्णन करते हुए कहते हैं " जो पुरुष अंतरात्मा में ही सुखवाला है , आत्मा में ही रमण करनेवाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञानवाला है , वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभाव को प्राप्त सांख्ययोगी शांत ब्रह्म को प्राप्त होता है |" जो पुरुष बाह्य विषयभोगरूप सांसारिक सुखों को स्वप्न की भाँती अनित्य समझ लेने के कारण उनको सुख नहीं मानता किन्तु इन सबके अंत:स्थित परम आनंदस्वरूप परमात्मा में ही ' सुख ' मानता है , वही ' अंत:सुख ' अर्थात परमात्मा में ही सुखवाला है |
जो बाह्य विषयभोगों में सत्ता और सुख - बुद्धि न रहने के कारण उनमें रमण नहीं करता , इन सबमें आसक्तिरहित होकर केवल परमात्मा में ही रमण करता है अर्थात परमात्मा का ही निरंतर अभिन्नभाव से चिंतन करता रहता है , वह ' अन्तराराम ' कहलाता है | परमात्मा समस्त ज्योतियों की भी परम ज्योति है [ १३ / १७ ] | संम्पूर्ण जगत उसीके प्रकाश से प्रकाशित है | जो पुरुष निरंतर अभिन्न भाव से ऐसे परम ज्ञानस्वरूप परमात्मा का अनुभव करता हुआ उसीमें स्थित रहता है , जिसकी दृष्टि में एक विज्ञानानन्दस्वरूप परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी भी बाह्य दृश्य वस्तु की भिन्न सत्ता ही नहीं रही है , वही ' अंतर्ज्योति ' है | अभिप्राय यह है की बाह्य दृश्य प्रपंच से उस योगी का कुछ भी संबंध नहीं है ; क्योंकि वह परमात्मा में ही सुख , रति और ज्ञान का अनुभव करता है |
यहाँ ' ब्रह्मभूत ' पद ज्ञानयोगी का विशेषण है | ज्ञानयोग का साधन करनेवाला योगी अहंकार , ममता , और काम - क्रोधादि समस्त अवगुणों का त्याग करके निरंतर अभिन्नभाव से परमात्मा का चिंतन करते - करते जब ब्रह्मरूप हो जाता है , जब उसका ब्रह्म के साथ किंचिंन मात्र भी भेद नहीं रहता , तब इस प्रकार की अंतिम स्थिति को प्राप्त ज्ञानयोगी ' ब्रह्मभूत ' कहलाता है | इस स्थिति को तुलसीदासजी ने यूं कहा है " उलटा नाम जपे जग जाना , बाल्मीकी भए ब्रह्म समाना |"
यहाँ ' ब्रह्मनिर्वाणम ' पद सच्चिदानन्दघन , निर्गुण , निराकार , निर्विकल्प एवं शांत परमात्मा का वाचक है और अभिन्नभावसे प्रत्यक्ष हो जाना ही उसकी प्राप्ति है | ज्ञानयोगी की जिस अंतिम अवस्था का ' ब्रह्मभूत ' शब्द से निर्देश किया गया है , यह उसीका फल है ! श्रुति में भी कहा है ' ब्रह्मैव सन ब्रह्माप्येती ' अर्थात ' वह ब्रह्म ही होकर ब्रह्म को प्राप्त होता है |' इसीको परम शान्ति की प्राप्ति , अक्षय सुख की प्राप्ति , ब्रह्मप्राप्ति , मोक्षप्राप्ति और परमगति की प्राप्ति कहते हैं |
|| इत्ती ||

साधनचतुष्टय - सम्पन्न ही ज्ञानयोग के अधिकारी

|| साधनचतुष्टय - सम्पन्न ही ज्ञानयोग के अधिकारी ||
भगवान गीता [ श्लोक १३ / २४ ] में आत्मसाक्षात्कार का वर्णन करते हुए कहते हैं " उस परमात्मा को कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि से ध्यान के द्वारा हृदय में देखते हैं ; अन्य कितने ही ज्ञानयोग के द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोग के द्वारा देखते हैं अर्थात प्राप्त करते हैं |" यहाँ [ ६ / ११ - १३ श्लोक में बतलाई हुई विधि के अनुसार ] ध्यानयोग से बुद्धि की शुद्धि करने की बात कही गई है | उस विशुद्ध सूक्ष्म और तीक्ष्ण बुद्धि से जो हृदय में परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार किया जाता है , वही ध्यान द्वारा आत्मा से आत्मा में आत्मा को देखना है | ज्ञानयोग को भगवान ने देहधारियों के लिए कठिन बताया है | तुलसीदासजी ने कहा है " कहत कठिन , समझत कठिन , साधन कठिन विवेक " अर्थात ज्ञानमार्ग अन्य मार्गों से बहुत कठिन है | इसके द्वारा जो आत्मा और परमात्मा के अभेद का प्रत्यक्ष होकर ब्रह्म का अभिन्नभाव से प्राप्त हो जाना है , वही ज्ञानयोग के द्वारा आत्मा को आत्मा में देखना है | परन्तु ज्ञानयोग का यह साधन साधनचतुष्टय -सम्पन्न अधिकारी के द्वारा ही सुगमता से किया जा सकता है | इसमें विवेक , वैराग्य ,शटसंपत्ति और मुमुक्षुत्व - ये चार साधन होते हैं: - [१ ] विवेक - विवेक का अर्थ है तत्व का यथार्थ अनुभव करना | सब अवस्थाओं में और प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण आत्मा और अनात्मा का विश्लेषण करते - करते यह विवेक - सिद्धि प्राप्त होती है | ' विवेक ' का यथार्थ उदय हो जाने पर सत और असत एवं नित्य और अनित्य वस्तु का क्षीर - नीर - विवेक की भाँती प्रत्यक्ष अनुभव होने लगता है |
[ २ ] वैराग्य - विवेक द्वारा सत - असत और नित्य - अनित्य का प्रिथकीकरण हो जाने पर असत और अनित्य से सहज ही राग हट जाता है , इसी का नाम ' वैराग्य ' है | मनमें भोगों की अभिलाषाएँ बनी हुई हैं और ऊपर से संसार से द्वेष और घृणा कर रहे हैं , इसका नाम ' वैराग्य ' नहीं है | वैराग्य यथार्थ में आभ्यंतरिक अनासक्ति का नाम है | जिनको सच्चा वैराग्य प्राप्त होता है , उन पुरुषों के चित्त में ब्रह्मलोक तक के समस्त भोगों में तृष्णा और आसक्ति का अत्यंत अभाव हो जाता है | जब तक ऐसा वैराग्य न हो , तब तक समझना चाहिए की विवेक में त्रुटि रह गई है | विवेक की पूर्णता होने पर वैराग्य अवश्यम्भावी है |
[ ३ ] शट - सम्पत्ति - इन विवेक और वैराग्य के फलस्वरूप साधक को छ: विभागोंवाली एक परमसम्पत्ति मिलती है - [ १ ] शम - मनका पूर्णरूप से निगृहीत , निश्चल और शांत हो जाना ही ' शम ' है | विवेक और वैराग्य की प्राप्ति होने पर मन स्वाभाविक ही निश्चल और शांत हो जाता है | [ २ ] दम - इन्द्रियों का पूर्णरूप से निगृहीत और विषयों के रसास्वाद से रहित हो जाना ' दम ' है | [३ ] उपरति - विषयों से चित्त का उपरत हो जाना ही उपरति है | जब मन इन्द्रियों को विषयों में रसानुभूति नहीं होगी , तब स्वाभाविक ही साधक की उनसे उपरति हो जायेगी | यह उपरति भोगमात्र से - केवल बाहर से ही नहीं , भीतर से - होनी चाहिए | [ ४ ] तितिक्षा - द्वन्द्वों को सहन करने का नाम तितिक्षा है | यद्यपि सर्दी - गर्मी , सुख - दू:ख , मान - अपमान आदि का सहन करना भी ' तितिक्षा ' है ; परन्तु विवेक , वैराग्य और शम , दम , उपरति के बाद प्राप्त होने वाली तितिक्षा तो इससे कुछ विलक्षण ही होनी चाहिए | द्वन्द्व- जगत से ऊपर उठकर , साक्षी होकर द्वन्द्वों को देखना , यही वास्तविक तितिक्षा है | [ ५ ] श्रधा - आत्मसत्ता में प्रत्यक्ष की भांति अखंड विश्वास का नाम ही श्रधा है | पहले शास्त्र , गुरु और साधन आदि में श्रधा होती है ; उससे आत्मश्रधा बढती है | परन्तु जब तक आत्मस्वरूप में पूर्णश्रधा नहीं होती , तब तक एकमात्र निष्कल , निरंजन , निराकार , निर्गुण ब्रह्म को लक्ष्य बनाकर उसमें बुद्धि की स्थिति नहीं हो सकती | [ ६ ] समाधान - मन और बुद्धि का परमात्मा में पूर्णतया समाहित हो जाना - जैसे अर्जुन को गुरु द्रोण के सामने परीक्षा देते समय वृक्ष पर रखे हुए नकली पक्षी की केवल आँख ही दिखाई पडती थी , वैसे ही मन और बुद्धि को निरंतर एकमात्र लक्ष्यवस्तु ब्रह्म के ही दर्शन होते रहना - यही समाधान है |
[ ४ ] मुमुक्षुत्व - उपरोक्त सभी योग्यताएँ प्राप्त होने पर साधक अविद्या के बंधन से सर्वथा मुक्त होना चाहता है और वह सब ओर से चित्त हटाकर , किसी ओर भी न देखकर , एकमात्र परमात्मा की ओर ही दौड़ता है | उसका यह तीव्र साधन ही , परमात्मा - प्राप्ति की लालसा का परिचय देता है | यही मुमुक्षुत्व है |
ज्ञानयोग का वर्णन गीता [ २ / ११ - ३० ] में विस्तारपूर्वक किया गया है | उपरोक्त कठिनता को देखते हुए ही भगवान ने देहधारियों के लिए निष्काम - कर्मयोग का सुगम साधन बताया है | तथा शरणागति [ अनन्यभक्ति ] को सर्वोत्तम साधन बताया है |
|| इत्ती ||

जो संन्यासी है वही योगी है

|| जो संन्यासी है वही योगी है ||
भगवान गीता [ ६ / १ - ३ ] में कहते हैं " सुनो , संसार में योगी और संन्यासी एक ही हैं | उन्हें अलग मत मानो | साधारणत: विचार करने से वे दोनों एक ही जान पड़ते हैं | दूसरा नाम केवल आरोप है , उसे छोड़ दो तो जो योग है वही संन्यास है | ब्रह्मदृष्टि से देखते दोनों में कुछ अंतर नहीं दिखाई देता | एक ही मनुष्य को जैसे अलग - अलग नामों से पुकारते हैं अथवा जैसे एक ही जगह जाने के लिए अलग - अलग मार्ग रहते हैं , अथवा जैसे पानी स्वभावत: एक है परन्तु अलग - अलग घडों में भरा हुआ रहता है वैसी ही भिन्नता योग और संन्यास की जानो | हे अर्जुन ! संसार में सबकी यही सम्मति है की योगी उसीको समझना चाहिए जो कर्म करके फलमें अनुरक्त नहीं रहता | जैसे पृथ्वी सहज ही अहंबुद्धि के बिना वृक्ष आदि उत्पन्न करती है परन्तु उनके बीजों की अपेक्षा नहीं करती वैसे ही सर्वत्र जो आत्मा व्याप्त है उसके आधार से तथा जाती के अनुरूप जिस अवसर पर जो कर्म प्राप्त हो , वही उचित जान जो करता है , परन्तु शरीर में अहंबुद्धि नहीं रखता , एवं जिसकी बुद्धि कर्म करके फलकी आशा तक नहीं पहुंचती , वही संन्यासी है | हे पार्थ ! सुनो , वास्तव में वही योगीश्वर है | अन्यथा जो नैमितिक उचित कर्म को बद्धक समझकर छोड़ देता है और तत्काल दूसरा कर्म करने में प्रवृत होता है वह , जैसे एक लेप पोंछकर तुरंत ही दूसरा लगाया जाय ऐसे , आग्रह के अधीन हो वृथा विवंचना में पडता है | पहले से जो स्वभावत: गृहस्थाश्रम का बोझा सर पर है वही बोझा वह संन्यास लेकर अधिक बढाता है | अतएव श्रोत , स्मार्त , होम आदि न छोड़ते कर्म की मर्यादा का उल्लंघन न हो तो निज में ही सहज योगसुख प्राप्त होता है |
सुनो , " जो संन्यासी है वही योगी है " इस एकवाक्यता की पताका संसार में अनेक शास्त्रों ने फहराई है | उन्होंने अपनी अनुभवरुपी तुला से यह सत्य ठहराया है की जहां त्याग किये हुए संकल्प का लोप होता है वहीं योग - साररुपी ब्रह्म की भेंट होती है | अब हे पार्थ ! यदि योगरुपी पर्वत के शिखर पर पहुंचना हो तो यह कर्ममार्गरुपी जीना मत छोडो | इस मार्ग के द्वारा यम - नियमरुपी आधारभूमि पर से आसनरुपी पगडंडी पकड़ कर प्राणायाम की कगार से ऊपर चढो | फिर प्रत्याहाररुपी मध्यभाग है , जहां बुद्धि के भी पैर फिसलते हैं और जिसका आक्रमण करते समय हठ - योगी भी गिरने के डर से अपनी प्रतिज्ञाओं का परित्याग कर देते हैं , तथापि अभ्यास के बल से उस प्रत्याहार के निरालम्ब आकाश में भी धीरे - धीरे वैराग्य का आश्रय प्राप्त हो जाएगा | इस प्रकार वायुरूप घोड़े पर सवार हो धारणा के मार्ग से चलते रहो जब तक की ध्यान की सीमा के पार न निकल जाओ | तब फिर इस मार्ग से चलना बंद हो जाएगा | प्रवृति की इच्छा भी बंद हो जायेगी | ब्रह्मानन्द की एकता प्राप्त होने से साध्य और साधन एक में मिल जायेंगे | आगे चलना बंद हो जाएगा और पिछला स्मरण भी रुक जाएगा | ऐसी समान भूमिका पर समाधि लग जायेगी | इस उपाय से योगारूढ़ हो साधक अत्यंत प्रबुद्ध हो जाता है |
|| इत्ती ||

तीनों योगों का तुलनात्मक अध्ययन

|| तीनों योगों का तुलनात्मक अध्ययन ||
क्रम संख्या ज्ञानयोग | कर्मयोग | भक्तियोग |
[ १ ] आध्यात्मिक साधना | भौतिक साधना | आस्तिक साधना |
[ २ ] जानने की शक्ति | करने की शक्ति | मानने की शक्ति |
[ ३ ] विवेक की मुख्यता | क्रिया की मुख्यता | भाव [ श्रधा ] की मुख्यता |
[ ४ ] स्वरूप को जानना | सेवा करना | भगवान को मानना |
[ ५ ] स्वरूपपरायणता | कर्तव्यपरायणता | भगवतपरायणता |
[ ६ ] स्व - आश्रय | धर्म [ कर्तव्य ] का आश्रय | भगवद - आश्रय |
[ ७ ] अहंता का त्याग | कामना का त्याग | ममता का त्याग |
[ ८ ] अहंता को मिटाना | अहंता को शुद्ध करना | अहंता को बदलना |
[९ ] अपने लिए उपयोगी | संसार के लिए उपयोगी | भगवान के लिए उपयोगी |
[१० ] 'अक्षर ' की प्रधानता | ' क्षर ' की प्रधानता | ' पुरुषोत्तम ' की प्रधानता |
[११ ] ज्ञातज्ञातव्यता | कृतकृत्यता | प्राप्तप्राप्तव्यता |
[१२ ] अखंड रस | शांत रस | अनंत रस |
[१३ ] तात्विक संबंध | नित्य संबंध | आत्मीय संबंध |
[१४ ] परमात्मा से एकता | परमात्मा से समीपता | परमात्मा से अभिन्नता |
[१५ ] बोध की प्राप्ति | योग की प्राप्ति | प्रेम की प्राप्ति |
[ १६ ] स्वाधीनता | उदारता | आत्मीयता |
[१७ ] स्वरूप में स्थिति | जड का आकर्षण मिटता है | भगवान में आकर्षण होता है |
[१८ ] कर्तृत्व का त्याग | भोकत्र्तव का त्याग | ममत्व का त्याग |
[१९ ] आत्मसुख | संसार का सुख | भगवान का सुख |
[२० ] कुछ भी न करना | संसार के लिए करना |भगवान के लिए करना |
[२१ ] प्रकृति के अर्पण करना | संसार के अर्पण करना | भगवान के अर्पण करना |
[२२ ] विरक्ति | अनासक्ति | अनुरक्ति |
[२३ ] देहाभिमान बाधक है | कामना बाधक है | भगवद - विमुखता बाधक है |
[२४ ] कर्म भस्म हो जाते हैं | कर्म अकर्म हो जाते हैं | कर्म दिव्य हो जाते हैं |