शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

गीता में समता


|| गीता में समता ||
गीता में सर्व - श्रेष्ट लक्षण समता [ बुद्धि - योग ] को बताया गया है | समता साक्षात परमात्मा का स्वरूप है [ श्लोक ५ / १९ ; ९ / २९ ] और समता में ही साधन की पूर्णता है | जिसका संयोग हूवा है , उसका वियोग होगा ही , पर जिसका वियोग हूवा है उसका संयोग होगा , यह नियम नहीं है | अत: संयोग अनित्य है और वियोग नित्य है | परमात्मा सम है और प्रकृति विषम है | मनुष्य में विषमता तो आई हूइ है [ स्व -भाव नहीं है ] और समता उसमें स्वत: सिद्ध है | इसी समता का नाम योग है [ श्लोक २ / ४८ ] | गीता ने परमात्मा की तरफ दृष्टि रखने वालों को " समदर्शिन " [ श्लोक ५ / १८ ; १२ / ४ ] पदों से कहा है | आत्मा का परमात्मा के साथ नित्य - योग [ आक में दूध की तरह ] है और शरीर , मन , बुद्धि के साथ नित्य वियोग है | जब जीवात्मा को इस नित्य -योग की अनुभूति हो जाती है तब वह सुख , दू:ख आदि द्वंदों में सम हो जाता है , व्यक्तियों में सम [ शत्रु - मित्र समान ] हो जाता है | प्रिय - अप्रिय पदार्थों में ,अनुकूल - प्रतिकूल परिसिथ्तियों में , मिटटी -पथर -सोना में समान दृष्टि रखता है | 
कर्म - योगी साधक सिद्धि -असिद्धि में सम रहता है | ज्ञान -योगी में सत - स्वरूप से सदा ही समता रहती है | वह सब में एक ही आत्मा देखता है | भक्त भगवान की मर्जी में सदा ही प्रसन रहता है , अत: उसका सांसारिक वस्तु , व्यक्ति ,पदार्थ , परिसिथिति आदि के संयोग -वियोग से कोई मतलब नहीं रहता | ऐसे भक्तों को भगवान स्वयम [ श्लोक १० / १० ] समता दे देते हैं | सिद्ध कर्म - योगी [ ६ / ८ - ९ ] ; सिद्ध ज्ञान - योगी [ १४ / २४ ] ; और सिद्ध भक्ति - योगी [ १२ / १८ - १९ ] तीनों में समता स्वत: रहती है | 
जब साधक को अनुकूलता - प्रतिकूलता आदि का ज्ञान तो होता है पर उसका उस पर कुछ भी असर नहीं होता अर्थार्त अंत: करण में कोई विकार पैदा नहीं होता , तब साधक में साध्य - रूपा समता अटल रूप से रहती है , जिससे अंत: करण में स्वत: समता आ जाती है [ श्लोक ५ / १९ ] | वे ग्यानी -जन ब्राह्मण , चंडाल , गाय , हाथी , कुत्ते आदि में सम - दर्शी [ सब में एक ही आत्मा को देखना ] हो जाते हैं परन्तु समवर्ती नहीं | व्यवहार तो सबके साथ यथा - योग्य ही करना पड़ता है | जैसे गाय का सम्मान व पूजा की जाती है वैसा कुत्ते के साथ नहीं देखा जाता |
|| इत्ती ||

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