शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

बुद्धियोग [ ज्ञानदीप ] से भगवतप्राप्ति


‎|| बुद्धियोग [ ज्ञानदीप ] से भगवतप्राप्ति ||
भगवान गीता [ १० / १० - ११ ] में कहते हैं " उन निरंतर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तों को मैं वह तत्वज्ञानरूप योग देता हूँ , जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं |" पूर्व के दो श्लोकों [ १० / ८ - ९ ] के अनुसार भजने वाले भक्तों को यहाँ ' उन भक्तों ' से संम्बोधित किया गया है | अर्थात वे भक्त भोगों की कामना के लिए भगवान को भजने वाले नहीं हैं , किन्तु किसी प्रकार का भी फल न चाहकर केवल निष्काम अनन्य प्रेमभावपूर्वक ही भगवान का , निरंतर भजन करने वाले हैं | भगवान का जो भक्तों के अंत:करन में अपने प्रभाव और महत्व आदि के रहस्यसहित निर्गुण - निराकार तत्व को तथा लीला , रहस्य , महत्व और प्रभाव आदि के सहित सगुन - निराकार और साकार तत्व को यथार्थ रूप से समझने की शक्ति प्रदान करना है - वही ' बुद्धियोग का प्रदान करना ' है | इसीको भगवान ने सातवें और नवें अध्याय में विज्ञानंसहित ज्ञान कहा है और इस बुद्धियोग के द्वारा भगवान को प्रत्यक्ष कर लेना ही भगवान को प्राप्त हो जाना है | 
उन भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए मैं स्वयम ही उनके अज्ञानजनित अन्धकार का नाश कर देता हूँ , इस कथन से भगवान ने यह भाव दिखलाया है की मेरे भक्तों को ज्ञान के लिए किसी और के पास नहीं जाना पड़ता | यहाँ भगवान भक्ति की महिमा और अपने में विषमता के दोष का अभाव बता रहे हैं | भगवान के कथन का अभिप्राय यह है की मैं सबके हृदयदेश में अन्तर्यामीरूप से सदा - सर्वदा स्थित रहता हूँ , तो भी लोग मुझे अपने में स्थित नहीं मानते ; इसी कारण मैं उनका अज्ञानजनित अंधकार नाश नहीं कर सकता | परन्तु मेरे प्रेमी भक्त मुझे अपना अन्तर्यामी समझते हुए पूर्वश्लोकों में कहे प्रकार से निरंतर मेरा भजन करते हैं , इस कारण उनके अज्ञानजनित अंधकार का मैं सहज ही नाश कर देता हूँ | 
जिसे विज्ञानंसहित ज्ञान के नाम से कहा है - ऐसे संशय , विपर्यय आदि दोषों से रहित ' दिव्य बोध ' का वाचक यहाँ ' भास्वता ' विशेषण के सहित ' ज्ञानदीपेन ' पद है | उसके द्वारा भक्तों के अंत:कर्ण में भगवत - ज्ञान के प्रतिबंधक आवरण - दोष का सर्वथा अभाव कर देना ही ' अज्ञानजनित अंधकार का नाश करना ' है | ' ज्ञानदीप ' के द्वारा यद्यपि अज्ञान का नाश और भगवान की प्राप्ति - दोनों एक ही साथ हो जाते हैं , तथापि यदि पूर्वापर का विभाग किया जाय तो यही समझना चाहिए की पहले अज्ञान का नाश होता है और फिर उसी क्षण भगवान की प्राप्ति भी हो जाती है | 
भगवान ने [ १० / २ - ६ ] पांच श्लोकों में अपनी योगशक्ति और विभूतियों का वर्णन करके सातवें श्लोक में उनके जानने का फल , अविचल भक्तियोग की प्राप्ति बतलाई | फिर आठवें और नवें श्लोकों में भक्तियोग के द्वारा भगवान के भजन में लगे हुए भक्तों के भाव और आचरण का वर्णन किया और दसवें तथा ग्यारहवें में उसका फल अज्ञानजनित अंधकार का नाश और भगवान की प्राप्ति करा देने वाले बुद्धियोग की प्राप्ति बतलाकर उस विषय का उपसंहार कर दिया |
|| इत्ती ||

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें