शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

केवल भक्त - जन - समुदाय में ही गीता का निरूपण


‎|| केवल भक्त - जन - समुदाय में ही गीता का निरूपण ||
भगवान गीता [ १८ / ६७ - ६९ ] में कहते हैं " यह सर्वगुह्यतम वचन तुझे अतपस्वी को नहीं कहना चाहिए ; अभक्त को नहीं कहना चाहिए ; जो सुनना नहीं चाहता उसे नहीं कहना चाहिए और जो मुझमें दोषदृष्टि करता है , उसको भी नहीं कहना चाहिए |" जो सहिष्णु नहीं है वह ' अतपस्वी ' है | जो भक्ति का विरोध अथवा खंडन करनेवाला है , वह ' अभक्त ' है | जो अहंकार के कारण सुनना नहीं चाहता , वह ' अशुस्रूश्वे ' है | जो भगवान में दोषदृष्टि रखता है , वह ' अभयसूयती ' है | हे पार्थ ! यह गीताशास्त्र तुम्हें आस्था द्वारा प्राप्त हुआ है | इसे तपोहीन मनुष्य से कभी न कहना चाहिए ; अथवा तपस्वी भी हो परन्तु गुरुभक्ति में शिथिल हो तो उसे भी ऐसे तज दो जैसे यज्ञशेष बांटने में कौवों का त्याग किया जाता है | अथवा जिसने शरीर से तप भी किया हो और जो गुरु और देव की भक्ति भी करता हो , परन्तु श्रवण करने की इच्छा नहीं रखता , वह उपर्युक्त दोनों अंगों से संसार में उत्तम गिना जाय तथापि गीता - श्रवण के लिए योग्य नहीं है | जैसे समुद्र गंभीर होता है पर वहाँ वर्षा हो तो वह वृथा ही जाती है | अत: कोई चाहे जितना योग्य हो परन्तु यदि उसे सुनने की इच्छा न हो तो यह गीता उसे कभी कौतुक से भी न सुनाओ | 
अथवा तप है , भक्ति है , श्रवण करने की इच्छा है , ऐसी सामग्री भी दिखाई दे परन्तु गीताशास्त्र की रचना करनेवाला और सकल लोकों का शासन करनेवाला जो मैं हूँ उसके विषय में जो सामान्य शब्दों से बोले [ मेरे और मेरे भक्तों के विषय में निंदासूचक शब्दों से बोलनेवाले बहुत से हैं ] उन्हें इस गीता के उपदेश के योग्य मत समझो | जैसे देह गोरा हो , अवस्था तरुण हो तथा गहने भी पहने हो , परन्तु उसमें से जैसे एक प्राण ही निकल गया हो ; वैसे ही , हे प्रबुद्ध ! मेरी या मेरे भक्तों की निंदा करनेवाले के तप , भक्ति व सदबुद्धि को भी जानो | बहुत क्या कहूँ , निंदक यदि ब्रह्मदेव के समान भी योग्य हो तथापि उसे यह गीता शास्त्र कुतूहल से भी न देना चाहिए | अतएव हे धनुर्धर ! जो तपरुपी नींव पर , पूर्ण गुरुभक्तिरुपी मंदिर बना है , और जिसका श्रवण - इच्छा - रुपी सामने का दरवाजा सर्वदा खुला रहता है , और जिस पर अनिन्दारुपी रत्न का उत्तम कलश चढा हुआ है - ऐसे निर्मल भक्तरुपी मंदिर पर इस गीतारत्नेश्वर की प्रतिष्ठा करो | ऐसा करने से तुम मेरी साम्यता पाने के योग्य हो जाओगे | क्योंकि जो प्रणव एक ' ओं ' अक्षर के रूप से अकार , उकार और मकाररुपी तीन मात्राओं के पेट में गर्भवास में अटका पड़ा था , वह वेदरुपी बीज गीतारुपी टहनियों द्वारा विस्तृत हुआ है , और गीता के श्लोक उसके गायत्रीरूप फूल और फल हैं | जो कोई ऐसी इस गुप्त मंत्ररुपी गीता को मेरे भक्त को प्राप्त करा देता है , अनन्यगति बालक को जैसे माता आ मिले वैसे जो प्रेम से मेरे भक्तों को गीता की भेंट करा देता है , वह इस देह के पश्चात मुझसे एकरूप ही हो जाता है | तथा जब वह देहरुपी अलंकार धारण किये हुए अलग रहता है तब भी मुझे वह प्राणों से और जी से प्यारा रहता है | ज्ञानी , कर्मठ और तपस्वी इन सब संकेतयुक्त मनुष्यों में जितना प्रिय मुझे वह है , उतना हे पांडव ! पृथ्वी में दूसरा नहीं दिखाई देता | जो भक्त - जनों के समुदाय में गीता का निरूपण करता है वह मेरे भक्तरुपी बगीचे में मानो बसंतरूप हो प्रवेश करता है | आकाश में चन्द्रमा दिखाई देते ही जैसे चकोरों का जन्म सफल हो जाता है वैसे ही जो सज्जनों के समाज में , मेरे स्वरूप की ओर दृष्टि रखता हुआ , गीतापद्यरुपी रत्नों की अटूट वर्षा करता है , उसके समान प्यारा मुझे कोई नहीं है , न पहले कभी था और न आगे होगा | हे अर्जुन ! संतों को गीतार्थ की पहुनाई करनेवाले को मैं अपने हृदय में धारण करता हूँ |" 
|| इत्ती ||

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