सोमवार, 2 जनवरी 2012

भक्ति - विशेस कर्म - योग ; अनन्य - योग


‎|| भक्ति - विशेस कर्म - योग ; अनन्य - योग ||
गीता [ श्लोक १२ / ६ -७ ] में भगवान कहते हैं की जो वर्ण - आश्रम - धर्म के अनुसार अपने सहज कर्म कर्मेन्द्रियों के द्वारा सुख से करते हैं , विधि के अनुसार आचरण करते हैं ,निषिद्ध कर्मों का त्याग करते हैं और कर्मफलों को मुझे समर्पित कर नष्ट कर देते हैं | इस प्रकार जो मेरे परायण हैं और निरंतर मेरी उपासना कर ध्यान के बहाने से मेरे घर ही बन गए हैं | जिन्होंने मेरे से प्रेम - व्यापार कर भुक्ति - मुक्ति दोनों को लात मार दी है | इस प्रकार जो " अनन्य - योग " से , अंत: करण से ,मन से और शरीर से मेरे हाथ बिक गए हैं |
उनका जो कहो सो सब कुछ मैं ही कर देता हूँ | भगवान कहते हैं ,मेरे भक्त जैसे भी हों ,मैं उनका सगा बनता हूँ तथा कलि -काल को भी जीतकर उनका पक्ष लेता हूँ | कलियुग में संतों ने तीन को ही सगा बताया है:- " संत सगे , सद्गुरु सगे , और सगे श्री - कंत ; बाकी सगे स्वार्थ सगे , दगा करेंगे अंत " | भगवान कहते हैं ,मेरे भक्त मेरे संबंधी हैं [ नरसी मेहता जैसे ] ,उनके लिए मैं किसी बात की लज्जा नहीं रखता | कहीं मेरे भक्त डर नहीं जावें ,इसलिए मैं मूर्ति -रूप में उनके घर में भागता आता हूँ | संसार में हजारों नाम -रूपी नावें बनाकर मैं उनका तारक् बना हूँ | मैंने ब्रह्म -चारियों को ध्यान -मार्ग में लगा दिया है और परिवार वालों को मैंने इन नावों पर बैठा दिया है | किसी के पेट से प्रेम -रुपी लंगर बांधकर मैं सायुज्य - रुपी -मुक्ति तीर पर ले आया हूँ | अत: भक्तों को चिंता का कुछ भी कारण नहीं है | मैं सर्वदा उनका उद्धार करने वाला बना हूँ |
भक्तों ने जब अपनी चित -वृति मुझे समर्पित कर दी है तभी से उन्होंने मुझे अपने व्यापारों में लगा लिया है | इसलिए ,हे पार्थ तुम यही मंत्र सीखो की इसी मार्ग की उपासना करनी चाहिए |
|| इत्ती ||

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