बुधवार, 28 दिसंबर 2011

भक्तों के अधीन भगवान


‎|| भक्तों के अधीन भगवान ||
भगवान गीता [ श्लोक १० / ८ ,९ ,१० ,११ ] में बताते हैं की जैसे तरंगों का जन्म जल में ही होता है ,उनका आश्रय तथा जीवन भी जल ही होता है |वैसे ही इस विश्व में मेरे शिवाय कुछ नहीं है | ऐसा जानकार जो मेरा भजन सची उत्कंठा व प्रेम पूर्वक करते हैं ,वे आत्मज्ञानी संसार में ,मेरे जगत -रूप को मन में धरकर ,सबको मेरा ही स्वरूप मानते हैं | इस प्रकार सर्वत्र भगवद -रूप मानना ही मेरा भक्ति -योग है | वे चित से मेरा स्वरूप हो जाते हैं , मुझ से ही उनके प्राण संतुष्ट रहते हैं , ज्ञान के कारण परस्पर संवाद -सुख के संतोष से नाचते हैं | ज्ञान का ही लेन -देन करते हैं | वे मेरी प्राप्ति के तृप्ति -सूचक उद्गारों से गरजने लगते हैं | विश्व में मेरा वर्णनं करते हैं |मेरी कथा में खो जाते हैं व मेरे में ही रमण करते हैं | खेलते हुये बालक के पीछे -पीछे जैसे उसकी माता दोड़ती है वैसे ही में भक्ति के मार्ग का पोषण करता रहता हूँ |


जिस मार्ग से वे मुझे सुख से प्राप्त कर ले ,वही मार्ग पोषण करना मुझे अच्छा लगता है | हमने स्वर्ग ,मोक्ष उत्पन्न किये , तथा ये दोनों उनके अधीन कर दिए | और बदले में लक्ष्मी सहित हमने अपना शरीर भी उन्हें समर्पित कर दिया | यहाँ तक की हम निज का परित्याग कर भक्त को अंगीकार करते हैं |


उनका शुद्ध तत्व -ज्ञान मानों कपूर की मशाल बन जाता है ,और मैं मशालची बनकर उनके आगे चलता हूँ , और अज्ञान की रात में जो अँधेरा घिर आता है ,उसको हटाकर नित्य प्रकाश कर देता हूँ | इसे ही भक्त का ' आत्म - साक्षात्कार " कहते हें | भगवान की कृपा से भक्त इसे सहज में ही पा लेता है |


भगवान कहते हैं , भक्तों को मुझ से प्रेम है ,और मुझे उनके " अनन्य - भाव " की इच्छा है , क्योंकि मेरे घर में प्रेमियों का अकाल है | अत: भक्ति में नित्य ,निरंतर , निष्काम ,अनन्यता और श्रधा - युक्त प्रेम की आवश्यकता है |

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

अंत - मती - सो गति


‎|| अंत - मती - सो गति ||
देह छोड़कर जाने वाले जीवात्मा की दो गतियाँ बताई गई है | गीता [श्लोक ८ / २४ -२५ ] में प्रकाश मार्ग से ब्रह्म - प्राप्ति ,सायुज्य -मुक्ति बताई गई है तथा धूम्र -मार्ग से पुनर्जन्म प्राप्त होता है | परन्तु देहांत के समय ,अपनी इच्छा -अनुसार बात नहीं हो सकती ,देव -गति से जो जिसे प्राप्त हो जाये ,सो सही |


गीता [ श्लोक ८ /२७ ] में भगवान ने योग -युक्त ,अर्थार्त समता में सिथत होने की बात कही है | ऐसे योगी जीते जी ही ' ब्रह्म - भाव "में सिथित हो जाते हैं | तो उन्हें उपरोक्त दोनों मार्गों की चिंता नहीं रहती | जैसे पानी कभी नहीं सोचता की उसमें लहरें है या नहीं ? वह तो सर्वदा पानी ही है | तरंगों के पैदा होने से ,न तो उसका जन्म होता है , और न ही उनके लोप होने से उसका अंत होता है | जैसे अँधेरे में [ अज्ञान के कारण ] रस्सी में सर्प दिखाई देता है ,वह रसी के ही कारण है | इसी प्रकार ग्यानी यह समझता है की शरीर रहे या न रहे हम तो केवल ब्रह्म ही हैं | इसे ही योग युक्त होना कहा गया है | जैसे बादल आकाश में ही उत्पन होकर आकाश में ही समा जाता है ,ऐसे ही वह योगी ,जहां से संसार उत्पन्न होता है ,तथा जिसमें लीन हो जाता है ,वह वस्तु वह योगी देह रहते ही स्वयम बन जाता है |


तुलसीदासजी ने इस सिथति को " सोई जाने जेहि देहु जनाई , जानत तुम्हें तुम्ही होई जाही " कहा है | इसीलिये भगवान ने [ ६ / ४६ -४७ ] में अर्जुन को अंत: करण से योगी होने को कहा है | योगियों में भी ज्ञानी - भक्त को सर्व - श्रेष्ट योगी कहा है | देवों का देव कहा है ,अपनी आत्मा कहा है | शरीर में चेतना , अग्नि तत्व के रहने तक ही रहती है | अत: शरीर में अग्नि -तत्व हो , ज्योति का प्रकाश हृदय में हो , दिन का समय ,शुक्ल पक्ष ,उतरायण का कोई महीना हो ,ऐसे समय में मृत्यु होने पर , सायुज्य - मुक्ति ,अथवा ब्रह्म -प्राप्ति होती है | इसके विपरीत धूम्र - मार्ग में देह छोड़ने वाला सकाम योगी , चंद्र - लोक तक जाता है परन्तु वहाँ से लौट कर पुनर्जन्म लेता है |

मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

जागृत - कुण्डलिनी के लक्षण


‎|| जागृत - कुण्डलिनी के लक्षण ||
गीता [ शलोक ६ /१४ ] में भगवान वज्रासन से कुण्डलिनी जागरण की विधि समझा रहे हैं | आसन की उष्णता से यह शक्ति जागृत होती है | जैसे कोई नागिन का सम्पोला कुंकुम में नहाया हो और गिंडी मारकर सो रहा हो | वैसी वह छोटी सी कुण्डलिनी सादधे तीन गिंडी मारकर नीचे मुंह किये हुई सर्पिनी सी सोई रहती है | वह वज्रासन के दबाव से जग जाती है |
जैसे चारों और अग्नि के बीज में से अंकुर फूटे हों | वैसी वह शक्ति गिंडी को छोड़कर घूमती हुई नाभि -स्थान पर दिखाई देती है | वह हृदय -कमल के नीचे की वायु को चपेट लेती है | वह पृथ्वी व जल तत्व को खा डालती है | तब पूर्ण तृप्त होती है व सुषुम्ना नाडी के पास शांत हो रहती है | इस प्रकार इडा व पिंगला नादियों के मिल जाने से ,तीनों ग्रंथियां खुल जाती है एवं चक्रों की छहों कलियाँ खिल जाती है | उस अवस्था में उपर की और से चंद्रामृत का सरोवर धीरे से कनिया कर कुण्डलिनी के मुंह में गिरता है | उससे शरीर में तेज प्रकट होता है | जैसे मानो आत्म -ज्योति का लिंग ही साफ़ कर रखा हो | मानो वह मूर्ति -मान शांति का ही स्वरूप हो तथा संतोष -रूपी वृक्ष का पौधा रोपा गया हो | या मूर्ति मान अग्नि ही स्वयम आसन पर बैट्ठी हो | कुण्डलिनी जब चंद्रामृत पीती है तो साधक का शरीर ऐसा हो जाता है | हथेलियाँ व तलुवे रक्त -कमल के समान हो जाते हैं |इस अवस्था में साधक को अनेक सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं | जब कुण्डलिनी मन व प्राण के साथ ह्रदय [ ब्रह्म - रंध्र ] में प्रवेश करती है , जहां चेतन्य निवास करता है , उस ह्रदय - रुपी भवन में यह कुण्डलिनी अपना तेज [ प्रकाश ] छोड़ देती है तथा प्राण रूप में स्थापित हो जाती है | मानो बिजली चमक कर आकाश में विलीन हो गई हो अथवा प्रकाश -रुपी झरना हृदय रुपी जमीन में समा गया हो | वैसे ही उस शक्ति का रूप शक्ति में ही लुप्त हो जाता है | इस प्रकार पिंड से पिंड का ग्रास का जो अभिप्राय है , यहाँ उसीका वर्णनं किया गया है | अर्थार्त ह्रदय में पृथ्वी तत्त्व को जल तत्त्व गला देता है , जल को तेज [ अग्नि ] सुखा देता है ,और तेज को वायु तत्त्व बुझा देता है | केवल वायु तत्त्व रह जाता है ,जो कुछ काल बाद आकाश में जा मिलता है तथा आत्मा परमात्मा में मिल जाता है | इसे ही ब्रह्म - प्राप्ति कहा गया है | वैराग्य एवं स्व -धर्म आचरण से ही ब्रह्म प्राप्ति की योग्यता प्राप्त हो सकती है |

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

ग्रंथि - भेद


‎|| ग्रंथि - भेद ||
विज्ञानं -मय कोष में तीन बंधन हैं ,जो भौतिक शरीर न रहने पर भी देव , गंधर्व ,यक्ष , भूत , पिशाच , आदि यौनियौ में भी वैसे ही बंधन बंधे रहते हैं | इन्हें रूद्र [ तम ] , विश्न्नु [ सत ] और बहम [ रज ] ग्रंथियां कहते हैं | अर्थात तम ,रज सत द्वारा स्थूल , सूक्ष्म , और कारण सरीर बने हुऐ हैं | इन तीन ग्रंथियों से ही जीव बंधा हुआ है | इन तीनों को खोलने की जिम्मेदारी का नाम ही पितृ - ऋण ,ऋषि -ऋण व देव -ऋण कहलाता है | तम को प्रकृति , रज को जीव और सत को आत्मा कहते हैं | संसार में तम को सांसारिक जीवन , रज को व्यक्ति - गत जीवन व सत को आध्यात्मिक जीवन कह सकते हैं | देश ,जाती , और समाज के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करना पितृ -ऋण से ,पूर्व -वर्ती लोगों के उपकारों से उरिण होने का मार्ग है | व्यक्तिगत जीवन को शारीरिक ,बौधिक और आर्थिक शक्तियों से सम्पन बनाना , अपने को मनुष्य - सुलभ गुन्नों से युक्त बनाना ऋषि ऋण से छूटना है | स्वाध्याय, सत्संग ,भक्ति ,चिंतन ,मनन ,आदि साधनाओं द्वारा काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह ,मद ,मत्सर आदि को हटाकर आत्मा को निर्मल ,देव -तुल्य बनाना ,यह देव -ऋण से उरिण होना है |


साधक को विग्यान -मय कोष में तीनों गांठों का अनुभव होता है | प्रथम मूत्राशय के समीप [ रूद्र ] ,दूसरी आमाशय के उपर भाग में [ विष्णु ] और तीसरी शिर के मध्य केंद्र में [ब्रह्म ] ग्रंथि कहलाती है | इन्हें दुसरे शब्दों में महाकाली , महा - लक्ष्मी , महा-सरस्वती भी कहते हैं | प्रत्येक की दो दो सहायक ग्रन्थियाँ होती हैं | इन्हें चक्र भी कहते हैं |रूद्र की [ मूलाधार , स्वधिस्तान ] , विश्न्नु की [ मणिपुर , अनाहत ] , ब्रहम की [ विशुधि , आज्ञा ] चक्र कहा जाता है | हट -योग की विधि से भी इन छ: चक्रों का वेधन [ छिद्रण ] किया जाता है | सिद्धों ने इन ग्रंथियों की अंदर की झांकी के अनुसार शिव , विष्णु और ब्रह्मा के चित्रों का निरूपण किया है | एक ही ग्रंथी ,दायें भाग से देखने पर पुरुष - प्रधान ,व बाएं भाग से देखने पर स्त्री -प्रधान आकार की होती है | 


ब्रह्म - ग्रंथि मध्य -मस्तिष्क में है | इससे उपर सहस्रार शतदल कमल है | यह ग्रंथि उपर से च्तुश्कोंन [ चार कोने ] और नीचे से फ़ैली हुई है | इसका नीचे का एक तंतु ब्रह्म -रंध्र से जुडा हुआ है | इसी को सहस्रार -मुख वाले शेष -नाग की शयया पर सोते हुए भगवान की नाभि -कमल से उत्पन चार मुख वाला ब्रह्मा चित्रित किया गया है | वाम भाग में यही ग्रंथि चतुर्भुजी सरस्वती है | वीन्ना की झंकार से ओंकार - ध्वनी का यहाँ निरंतर गुंजार होता है |  यही तीन ग्रंथियां ,जीव को बांधी हुए हैं | जब ये खुल जाती हैं ,तो मुक्ति का अधिकार अपने आप मिल जाता है | इन रत्न -राशियों के मिलते ही शक्ति , सम्पनता ,और प्रज्ञा का अटूट भण्डार हाथ में आ जाता है | ये शक्तियां सम - दर्शी हैं | रावण जैसे असुरों ने भी शंकरजी से वरदान पाए थे | परन्तु अनेक देवताओं को भी यह सफलता नहीं मिली | इसमें साधक का पुरुषार्थ ही प्रधान है |

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

महिषा - सुर मर्दिनी ; साधना - समर


|| महिषा - सुर मर्दिनी ; साधना - समर ||
हट - योग से कुन्ड- लीनी जागरण को शास्त्रों में महिशासुर व देवी दुर्गा के युद्ध के प्रतीक रूप में बताया है |मन रुपी महिषासुर चंडी रुपी कुन्द -लीनी से लड़ने लगता है | देवी क्रुद्ध होकर 
उसके वाहन महिष [ मन के संस्कारों ] को चबा डालती है | अंत में महिषासुर [ मन ] का वध होने पर वह चंडी की ज्योति में मिल जाता है | महाशक्ति का अंश होकर मुक्ति को प्राप्त कर लेता है | इस प्रकार हट -योगी भक्त " साधन -- समर " में ब्रहम से लड़कर उसे प्राप्त करते हैं | भगवान तो भक्ति [ निष्ठा ] के भूखे हैं ,वे सचे प्रेमी को भी मिल सकते हैं और सचे शत्रु को भी | रावण , कंश , ताड़का आदि अनेक असुरों ने इस प्रकार सायुज्य मुक्ति को प्राप्त किया |


कुन्द - लीनी जागरण से ब्रह्म - रंध्र में ईश्वरीय दिव्य शक्ति के दर्शनं होते हैं और गुप्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं | इसी बात को भगवान गीता [ श्लोक ६ /११ से श्लोक ६ /१६ ] में अष्टांग - योग में , प्रान्नायाम द्वारा सिद्ध करने की विधि बताते हैं | छठा अध्याय गीतार्थ का सार है , विवेक - समुद्र का तीर है जहां गीता - रुपी बल्ली का अंकुर फूटता है | जहां वेद मौन हो जाते हैं | इसी विद्या को भगवान ने [ श्लोक ९ /१ -२ ] परम गोपनीय , ज्ञान -विज्ञान सहित ज्ञान कहा है | इसे सब विद्याओं का राजा ,सब गोपनीयों का राजा ,अति पवित्र ,उत्तम , सुगम और अविनाशी बताया है |


भगवान के विधान में प्रशन्न रहना चाहिए [ श्लोक ६ /२ ] , अपना कोई भी संकल्प नहीं रखना चाहिए | भगवान का विधान मानने से मुक्ति मिलती है , पर भगवान को को मानने से 
भगवान स्वयम मिलते हैं | ज्ञानेश्वरी गीता [ पं रघुनाथ माधव भगाडे ] में कुंड -लीनी जागरण [ श्लोक ६ / ११ - १६ ] का विवरण बहुत सुन्दर ढंग से किया गया है | 


योग -वशिष्ट में आया है की मन का ब्रहम के साथ तादात्म्य संबंध है , ब्रह्म ही मन का आकार धारण करता है | अत: मन में अपार शक्तियां है | भगवान ने गीता में [ श्लोक १० /२२ ] भी मन को अपनी विभूति कहा है | परन्तु यह भी बताया की में [ श्लोक १५ / १५ ; १८ / ६१ ; १० / २० ] सबके हृदय में सिथत हूँ | इससे ऐसा प्रतीत होता है की जहां हृदय शब्द कहा है , वहाँ उनका मतलब मन [ ब्रह्म - रंध्र ] से ही लेना चाहिए | अन्यत्र भी ब्रह्म - रंध्र में ही [ ब्रह्म { शिव } एवं कुन्दिलिनी { शक्ति } ] का मिलन बताया गया है |
|| इत्ती ||

सोमवार, 12 दिसंबर 2011

साधना में सफलता के लक्षण


‎|| साधना में सफलता के लक्षण ||
ऐसी मान्यता है की शरीर में सिथत कुन्द्लीनी शक्ति ही भगवती का स्वरूप है | यह शक्ति बिजली की तरह है , जिससे मन , बुद्धि, चित ,अहंकार के बल्ब दिव्य - ज्योति से जगमगाने 
लगते हैं | इसका सीधा प्रभाव अंतरात्मा पर होता है जिससे उसकी सूक्ष्म चेतना जागृत हो जाती है और दिव्य संदेशों को, प्रकृति के गुप्त रहस्यों को समझने की योग्यता आ जाती है | 
साधना की पूर्ण अवस्था में अंतरात्मा निर्मल हो जाती है और उसमें देवी तत्वों का , ईश्वरीय संकेतों का अनुभव स्पष्ट रूप से होता है , जैसे दीपक जलाने से क्षण भर में अन्धकार में 
छिपी हुई सारी चीजें प्रकट हो जाती है |
सिद्ध योगी को स्वप्न में , या जागृत अवस्था में भगवती के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त होता है | किसी को प्रकाशमय ज्योति के रूप में , किसी को अलोकिक देवी के रूप में , किसी को स्नेह -मई नारी [ संबंधी ] के रूप में दर्शन होते हैं | कोई उनके सन्देश सीधा वार्तालाप जैसे प्राप्त करते हैं | किसी किसी को बात घुमा - फिरा कर सुनाई या समझाई जाती है | किसी को स्पष्ट आदेश होता है | यह साधकों की विशेष मनोभूमि पर निर्भर है | हर एक को इस प्रकार के अनुभव नहीं हो सकते |
निरर्थक स्वप्न अत्यंत अपूर्ण होते हैं , उनमें केवल छोटी सी झांकी होती है , फिर तुरंत उनका तारतम्य बिगड जाता है | सार्थक स्वप्न कुछ विशेषता लिए हूवे होते हैं | उन्हें देखकर 
मन में भय , शोक ,चिंता ,क्रोध ,हर्ष - विशाद , लोभ , मोह आदि के भाव उत्पन्न होते हैं | जागने पर भी उसकी छाप मन पर बनी रहती है | तथा चित में जिज्ञासा बनी रहती है की 
इस स्वप्न का अर्थ क्या है ? सात्विकता के बढाने पर यज्ञ ,दान ,जप , उपासना ,तीर्थ ,मंदिर ,उपदेश ,माता -पिता ,साधू ,महात्मा ,देवी -देवताओं के दर्शन ,दिव्य - प्रकाश आदि शुभ 
स्वप्नों से अपने -आप अंदर आये हुए शुभ तत्वों को देखता है | प्रात: काल सूर्योदय से एक ,दो घंटे पूर्व देखे हुए स्वप्न में सचाई का बहुत अंश होता है | इसमें सुक्ष्म - जगत में विचरण करते हुए भविष्य का , भावी विधानों का बहुत कुछ आभास मिलने लगता है |

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

ब्रहामी --- सिथति के लक्षण


‎|| ब्रहामी --- सिथति के लक्षण ||
ब्र्हामी - सिथति का साधक अपने भीतर और बाहर ब्रह्म का पुन्य - प्रकाश प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करता है | उसे स्पष्ट प्रतीत होता है की वह ब्रह्म की गोद में किलोल कर रहा है , ब्रह्म 
के अमृत - सिंधु में आनंद - मग्न हो रहा है | इस दशा में पहुंच कर वह जीवन - मुक्त हो जाता है | जो प्रारब्ध बन चुके हैं , उन कर्मों का लेखा -जोखा पूरा करने के लिए वह जीवित 
रहता है | जब वह हिसाब बराबर हो जाता है तो पूर्ण - शान्ति और पूर्ण ब्राह्मी - सिथती में जीवन -लीला समाप्त हो जाती है | फिर उसे संसार में लौटना नहीं पडता [ श्लोक८ /२१ ; १५ /६ ] | प्रारब्धों को पूरा करने के लिए वह शरीर धारण किये रहता है | सादा जीवन बिताते हुवे भी उसकी आत्मिक -सिथति बहुत ऊँची रहती है |
ब्रह्म -दीक्षा में शिष्य गुरु को अपना सब कुछ समर्पण [ आत्म - समर्पण ] करता है | गुरु उस सबको अमानत के तौर पर शिष्य को लौटा देता है | व आदेश देता है की इन सबका 
उपयोग गुरु की वस्तु समझकर करो | इस आत्मदान का मूल्य इतना भारी है की उसकी तुलना और किसी त्याग या पुन्य से नहीं हो सकती | 
नित्य सवा - मन सोने का दान करने वाले करण के पास भी , दान के बाद कुछ ना कुछ अपना रह जाता था | जिस दानी ने अपना कुछ छोड़ा ही नहीं ,उसकी तुलना किसी दानी से 
नहीं हो सकती | जब अपना कुछ रहा ही नहीं तो " मेरा क्या " ? अहंकार किस बात का ? जब सब वस्तुओं के स्वामी गुरु या परमात्मा ही हैं तो स्वार्थ कैसा ? इस प्रकार वस्तुत:
अहंकार का ही दान होता है | इसके द्वारा साधक सहज ही सब बंधनों से मुक्त हो जाता है | जैसे भरतजी , राम को राज्य का अधिकारी मानकर ,उनकी खडाऊ सिंघासन पर रखकर ,राज -काज चलाते रहे ,वैसे ही आत्म -दानी अपनी वस्तुओं का समर्पण करके उनके मेनेजर के रूप में स्वयम काम करता रहता है |
वर्तमान समय में गुरु - शिष्य का जोडा " लोभी गुरु , लालची चेला ; दोनों नर्क में ठेलम - ठेला " का उदाहरण बनते हैं | अत: इस क्षेत्र में अत्यंत सावधानी की आवश्यकता है |

मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

कौन - क्या - है ?


‎|| कौन - क्या - है ? ||
जैसे पानी में डूबते हुए को कोई तैरने वाला ही बचा सकता है , वैसे ही एक आत्मा में ब्रह्म जाग्रत करना , उसे ब्राह्मी - भूत , ब्रह्म -परायण बनाना केवल " ब्रह्म - निष्ट " गुरु के द्वारा ही 
संभव है | परन्तु आजकल सद्-गुरु की पहचान करना लगभग असंभव है | अत: अंत: करण की मनोभूमि के लक्षणों के आधार पर साधक अपनी व अन्य की पहचान कर सकता है | संतों की भाषा में , जिसमें साधुता हो वही महात्मा है , जिसको ब्रह्म का ज्ञान है वही ब्राहमण है ,जिसने रागों से मन को बचा लिया है ,वही वैरागी है , जो स्वाध्याय में ,मनन में 
लींन रहता हो वही मुनि है ,जिसने अहंकार को ,मोह - ममता को त्याग दिया हो वही सन्यासी है ,जो तप में प्रवृत हो वह तपस्वी है |
सादा वस्त्र ,सादा वेश , और सादा जीवन में जब महानतम आत्मिक -साधना हो सकती है तो किसी विशेष वेश या परम्परा या संप्रदाय अपनाने की क्या आवश्यकता है ? 
ब्राह्मी दृष्टि का प्राप्त होना ही ब्रहम - समाधि है | सर्वत्र ,सबमें इश्वर का दिखाई देना [ सिया राममय सब जग जानी , करहूँ प्रनाम जोरी जुग पांनी --मानस ] ,अपने अंदर तेज पुंज की
उज्वल झांकी होना ,अपनी इच्छा ,आकाक्षाओं का दिव्य , देवी हो जाना , यही ब्राह्मी - सिथति है | 
इस युग के सर्व - श्रेष्ट शास्त्र भगवद -गीता में [ २ / ६८ - ७२ ] इसका विस्तार से वर्णनं है | आज के युग में जल और पृथ्वी तत्व की प्रधानता होने से ब्राह्मी -सिथति को ही समाधि 
कहते हैं | इस सिथति को प्राप्त सिद्ध -भक्त को परा -भक्ति की प्राप्ति [ श्लोक १८ / ५४ -५५ ] हो जाती है | जो तत्व - ज्ञान की पराकाष्टा है तथा जिसको प्राप्त होकर और कुछ जानना 
बाकी नहीं रहता , उसे ही परा -भक्ति ,परम - नेश्करम्य सिद्धि ,और परम -सिद्धि आदि नामों से जाना जाता है | यह अवस्था ध्यान से भी [श्लोक १८ / ५१ -५५ ] प्राप्त हो जाती है | यही 
अवस्था सिद्ध भक्त को भगवत कृपा [ श्लोक १४ / २६ ] से गुन्नातीत होने पर प्राप्त हो जाती है |

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

शक्ति के रूप में ब्रह्म की उपासना


‎|| शक्ति के रूप में ब्रह्म की उपासना ||
ब्रह्मवैवर्त पुराण में स्वयम भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - ' तुम्हीं विश्वजननी मूलप्रकृति ईश्वरी हो , तुम्हीं सृष्टि की उत्पत्ति के समय आध्या शक्ति के रूप में विराजमान रहती हो और स्वेच्छा से त्रिगुणात्मक माया बन जाती हो | यद्यपि वस्तुत: तुम स्वयम निर्गुण हो तथापि प्रयोजनवश सगुन हो जाती हो | तुम परब्रह्म - स्वरूप , सत्य , नित्य , एवं सनातनी हो | परम तेजस्वरूप और भक्तों पर अनुग्रह करने के हेतु शरीर धारण करती हो | तुम सर्वस्वरूपा , सर्वेश्वरी सर्वाधार एवं परात्पर हो | तुम सर्व बीज -स्वरूप , सर्वपूज्या एवं आश्रय रहित हो | तुम सर्वज्ञ , सर्वप्रकार से मंगल करनेवाली एवं सर्व मंगलों की भी मंगल हो |' उस ब्रह्मरूप चेतन शक्ति के दो स्वरूप हैं - एक निर्गुण और दूसरा सगुन | सगुन के भी दो भेद हैं - एक निराकार और दूसरा साकार | इसीसे सारे संसार की उत्पत्ति होती है | उपनिषदों में इसीको पराशक्ति के नाम से कहा गया है | 
उस पराशक्ति से ब्रह्मा , विष्णु और रूद्र उत्पन्न हुए | उसीसे सब पदार्थ और अंडज , स्वेदज , उद्भिज , जरायुज जो कुछ भी स्थावर , जंगम , मनुष्य आदि प्राणी मात्र उत्पन्न हुए | ऋग्वेद में भगवती कहती हैं - ' मैं रूद्र , वसु , आदित्य , और विश्व्देवों के रूप में विचरती हूँ | वैसे ही मित्र , वरुण , इंद्र , अग्नि और अस्विनिकुमारों के रूपको धारण करती हूँ |' वह पराशक्ति सर्वसामर्थ्य से युक्त है ;क्योंकि यह प्रत्यक्ष देखा जाता है | इसलिए महाशक्ति के नाम से भी ब्रह्म की उपासना की जा सकती है | बंगाल में श्रीरामकृष्ण परमहंस ने भगवती , शक्ति के रूप में ब्रह्म की उपासना की थी | वे परमेश्वर को माँ , तारा , काली आदि नामों से पुकारा करते थे | ब्रह्म की महाशक्ति के रूप में श्रधा , प्रेम और निष्काम भाव से उपासना करने से परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है | बहुत से सज्जन इसको भगवान की आह्लादिनी शक्ति मानते हैं | महेश्वरी , जगदीश्वरी , परमेश्वरी भी इसीको कहते हैं | लक्ष्मी , सरस्वती , दुर्गा , राधा , सीता आदि सभी इस शक्ति के ही रूप हैं | परमेश्वर शक्तिमान है और भगवती परमेश्वरी उसकी शक्ति है | शक्तिमान से शक्ति अलग होने पर भी अलग नहीं समझी जाती | जैसे अग्नि की दाहिका शक्ति अग्नि से भिन्न नहीं है | यह सारा संसार शक्ति और शक्तिमान से परिपूर्ण है और उसीसे इसकी उत्पत्ति , सिथति और प्रलय होते हैं | इस प्रकार समझकर वे लोग शक्तिमान और शक्ति युगल की उपासना करते हैं | प्रेमस्वरूपा भगवती ही भगवान को सुगमता से मिला सकती है | इस प्रकार समझकर कोई - कोई केवल भगवती की ही उपासना करते हैं | श्रुति ,स्मृति , पुराण , इतिहास आदि शास्त्रों में इस गुणमयी विद्या - अविद्या रूपा मायाशक्ति को प्रकृति , मूल प्रकृति , महामाया , योगमाया आदि अनेक नामों से कहा है | २३ तत्वों के विस्तार वाला यह सारा संसार तो उसका व्यक्त - स्वरूप है | जिससे सारा संसार उत्पन्न होता है और जिसमें यह लीन हो जाता है वह उसका अव्यक्त स्वरूप है | 
भगवान [ श्लोक ८ / १८ ] में कहते हैं - ' सम्पूर्ण दृश्यमात्र भूतगन ब्रह्मा के दिन के प्रवेशकाल में अव्यक्त से अर्थात ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर से उत्पन्न होते हैं और ब्रह्मा की रात्री के प्रवेशकाल में उस अव्यक्त नामक ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर में ही लय होते हैं | ' 
वास्तव में प्रकृति और पुरुष दोनों के संयोग से चराचर जगत की उत्पत्ति होती है | भगवान [ श्लोक १४ / ३ ] कहते हैं ' हे अर्जुन ! मेरी महदब्रह्म रूप प्रकृति अर्थात त्रिगुणमयी माया सम्पूर्ण भूतों की योनी है अर्थात गर्भाधान का स्थान है और मैं उस चेतन रूप बीज को स्थापन करता हूँ | उस जड - चेतन संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है |'