बुधवार, 28 दिसंबर 2011

भक्तों के अधीन भगवान


‎|| भक्तों के अधीन भगवान ||
भगवान गीता [ श्लोक १० / ८ ,९ ,१० ,११ ] में बताते हैं की जैसे तरंगों का जन्म जल में ही होता है ,उनका आश्रय तथा जीवन भी जल ही होता है |वैसे ही इस विश्व में मेरे शिवाय कुछ नहीं है | ऐसा जानकार जो मेरा भजन सची उत्कंठा व प्रेम पूर्वक करते हैं ,वे आत्मज्ञानी संसार में ,मेरे जगत -रूप को मन में धरकर ,सबको मेरा ही स्वरूप मानते हैं | इस प्रकार सर्वत्र भगवद -रूप मानना ही मेरा भक्ति -योग है | वे चित से मेरा स्वरूप हो जाते हैं , मुझ से ही उनके प्राण संतुष्ट रहते हैं , ज्ञान के कारण परस्पर संवाद -सुख के संतोष से नाचते हैं | ज्ञान का ही लेन -देन करते हैं | वे मेरी प्राप्ति के तृप्ति -सूचक उद्गारों से गरजने लगते हैं | विश्व में मेरा वर्णनं करते हैं |मेरी कथा में खो जाते हैं व मेरे में ही रमण करते हैं | खेलते हुये बालक के पीछे -पीछे जैसे उसकी माता दोड़ती है वैसे ही में भक्ति के मार्ग का पोषण करता रहता हूँ |


जिस मार्ग से वे मुझे सुख से प्राप्त कर ले ,वही मार्ग पोषण करना मुझे अच्छा लगता है | हमने स्वर्ग ,मोक्ष उत्पन्न किये , तथा ये दोनों उनके अधीन कर दिए | और बदले में लक्ष्मी सहित हमने अपना शरीर भी उन्हें समर्पित कर दिया | यहाँ तक की हम निज का परित्याग कर भक्त को अंगीकार करते हैं |


उनका शुद्ध तत्व -ज्ञान मानों कपूर की मशाल बन जाता है ,और मैं मशालची बनकर उनके आगे चलता हूँ , और अज्ञान की रात में जो अँधेरा घिर आता है ,उसको हटाकर नित्य प्रकाश कर देता हूँ | इसे ही भक्त का ' आत्म - साक्षात्कार " कहते हें | भगवान की कृपा से भक्त इसे सहज में ही पा लेता है |


भगवान कहते हैं , भक्तों को मुझ से प्रेम है ,और मुझे उनके " अनन्य - भाव " की इच्छा है , क्योंकि मेरे घर में प्रेमियों का अकाल है | अत: भक्ति में नित्य ,निरंतर , निष्काम ,अनन्यता और श्रधा - युक्त प्रेम की आवश्यकता है |

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

अंत - मती - सो गति


‎|| अंत - मती - सो गति ||
देह छोड़कर जाने वाले जीवात्मा की दो गतियाँ बताई गई है | गीता [श्लोक ८ / २४ -२५ ] में प्रकाश मार्ग से ब्रह्म - प्राप्ति ,सायुज्य -मुक्ति बताई गई है तथा धूम्र -मार्ग से पुनर्जन्म प्राप्त होता है | परन्तु देहांत के समय ,अपनी इच्छा -अनुसार बात नहीं हो सकती ,देव -गति से जो जिसे प्राप्त हो जाये ,सो सही |


गीता [ श्लोक ८ /२७ ] में भगवान ने योग -युक्त ,अर्थार्त समता में सिथत होने की बात कही है | ऐसे योगी जीते जी ही ' ब्रह्म - भाव "में सिथित हो जाते हैं | तो उन्हें उपरोक्त दोनों मार्गों की चिंता नहीं रहती | जैसे पानी कभी नहीं सोचता की उसमें लहरें है या नहीं ? वह तो सर्वदा पानी ही है | तरंगों के पैदा होने से ,न तो उसका जन्म होता है , और न ही उनके लोप होने से उसका अंत होता है | जैसे अँधेरे में [ अज्ञान के कारण ] रस्सी में सर्प दिखाई देता है ,वह रसी के ही कारण है | इसी प्रकार ग्यानी यह समझता है की शरीर रहे या न रहे हम तो केवल ब्रह्म ही हैं | इसे ही योग युक्त होना कहा गया है | जैसे बादल आकाश में ही उत्पन होकर आकाश में ही समा जाता है ,ऐसे ही वह योगी ,जहां से संसार उत्पन्न होता है ,तथा जिसमें लीन हो जाता है ,वह वस्तु वह योगी देह रहते ही स्वयम बन जाता है |


तुलसीदासजी ने इस सिथति को " सोई जाने जेहि देहु जनाई , जानत तुम्हें तुम्ही होई जाही " कहा है | इसीलिये भगवान ने [ ६ / ४६ -४७ ] में अर्जुन को अंत: करण से योगी होने को कहा है | योगियों में भी ज्ञानी - भक्त को सर्व - श्रेष्ट योगी कहा है | देवों का देव कहा है ,अपनी आत्मा कहा है | शरीर में चेतना , अग्नि तत्व के रहने तक ही रहती है | अत: शरीर में अग्नि -तत्व हो , ज्योति का प्रकाश हृदय में हो , दिन का समय ,शुक्ल पक्ष ,उतरायण का कोई महीना हो ,ऐसे समय में मृत्यु होने पर , सायुज्य - मुक्ति ,अथवा ब्रह्म -प्राप्ति होती है | इसके विपरीत धूम्र - मार्ग में देह छोड़ने वाला सकाम योगी , चंद्र - लोक तक जाता है परन्तु वहाँ से लौट कर पुनर्जन्म लेता है |

मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

जागृत - कुण्डलिनी के लक्षण


‎|| जागृत - कुण्डलिनी के लक्षण ||
गीता [ शलोक ६ /१४ ] में भगवान वज्रासन से कुण्डलिनी जागरण की विधि समझा रहे हैं | आसन की उष्णता से यह शक्ति जागृत होती है | जैसे कोई नागिन का सम्पोला कुंकुम में नहाया हो और गिंडी मारकर सो रहा हो | वैसी वह छोटी सी कुण्डलिनी सादधे तीन गिंडी मारकर नीचे मुंह किये हुई सर्पिनी सी सोई रहती है | वह वज्रासन के दबाव से जग जाती है |
जैसे चारों और अग्नि के बीज में से अंकुर फूटे हों | वैसी वह शक्ति गिंडी को छोड़कर घूमती हुई नाभि -स्थान पर दिखाई देती है | वह हृदय -कमल के नीचे की वायु को चपेट लेती है | वह पृथ्वी व जल तत्व को खा डालती है | तब पूर्ण तृप्त होती है व सुषुम्ना नाडी के पास शांत हो रहती है | इस प्रकार इडा व पिंगला नादियों के मिल जाने से ,तीनों ग्रंथियां खुल जाती है एवं चक्रों की छहों कलियाँ खिल जाती है | उस अवस्था में उपर की और से चंद्रामृत का सरोवर धीरे से कनिया कर कुण्डलिनी के मुंह में गिरता है | उससे शरीर में तेज प्रकट होता है | जैसे मानो आत्म -ज्योति का लिंग ही साफ़ कर रखा हो | मानो वह मूर्ति -मान शांति का ही स्वरूप हो तथा संतोष -रूपी वृक्ष का पौधा रोपा गया हो | या मूर्ति मान अग्नि ही स्वयम आसन पर बैट्ठी हो | कुण्डलिनी जब चंद्रामृत पीती है तो साधक का शरीर ऐसा हो जाता है | हथेलियाँ व तलुवे रक्त -कमल के समान हो जाते हैं |इस अवस्था में साधक को अनेक सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं | जब कुण्डलिनी मन व प्राण के साथ ह्रदय [ ब्रह्म - रंध्र ] में प्रवेश करती है , जहां चेतन्य निवास करता है , उस ह्रदय - रुपी भवन में यह कुण्डलिनी अपना तेज [ प्रकाश ] छोड़ देती है तथा प्राण रूप में स्थापित हो जाती है | मानो बिजली चमक कर आकाश में विलीन हो गई हो अथवा प्रकाश -रुपी झरना हृदय रुपी जमीन में समा गया हो | वैसे ही उस शक्ति का रूप शक्ति में ही लुप्त हो जाता है | इस प्रकार पिंड से पिंड का ग्रास का जो अभिप्राय है , यहाँ उसीका वर्णनं किया गया है | अर्थार्त ह्रदय में पृथ्वी तत्त्व को जल तत्त्व गला देता है , जल को तेज [ अग्नि ] सुखा देता है ,और तेज को वायु तत्त्व बुझा देता है | केवल वायु तत्त्व रह जाता है ,जो कुछ काल बाद आकाश में जा मिलता है तथा आत्मा परमात्मा में मिल जाता है | इसे ही ब्रह्म - प्राप्ति कहा गया है | वैराग्य एवं स्व -धर्म आचरण से ही ब्रह्म प्राप्ति की योग्यता प्राप्त हो सकती है |

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

ग्रंथि - भेद


‎|| ग्रंथि - भेद ||
विज्ञानं -मय कोष में तीन बंधन हैं ,जो भौतिक शरीर न रहने पर भी देव , गंधर्व ,यक्ष , भूत , पिशाच , आदि यौनियौ में भी वैसे ही बंधन बंधे रहते हैं | इन्हें रूद्र [ तम ] , विश्न्नु [ सत ] और बहम [ रज ] ग्रंथियां कहते हैं | अर्थात तम ,रज सत द्वारा स्थूल , सूक्ष्म , और कारण सरीर बने हुऐ हैं | इन तीन ग्रंथियों से ही जीव बंधा हुआ है | इन तीनों को खोलने की जिम्मेदारी का नाम ही पितृ - ऋण ,ऋषि -ऋण व देव -ऋण कहलाता है | तम को प्रकृति , रज को जीव और सत को आत्मा कहते हैं | संसार में तम को सांसारिक जीवन , रज को व्यक्ति - गत जीवन व सत को आध्यात्मिक जीवन कह सकते हैं | देश ,जाती , और समाज के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करना पितृ -ऋण से ,पूर्व -वर्ती लोगों के उपकारों से उरिण होने का मार्ग है | व्यक्तिगत जीवन को शारीरिक ,बौधिक और आर्थिक शक्तियों से सम्पन बनाना , अपने को मनुष्य - सुलभ गुन्नों से युक्त बनाना ऋषि ऋण से छूटना है | स्वाध्याय, सत्संग ,भक्ति ,चिंतन ,मनन ,आदि साधनाओं द्वारा काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह ,मद ,मत्सर आदि को हटाकर आत्मा को निर्मल ,देव -तुल्य बनाना ,यह देव -ऋण से उरिण होना है |


साधक को विग्यान -मय कोष में तीनों गांठों का अनुभव होता है | प्रथम मूत्राशय के समीप [ रूद्र ] ,दूसरी आमाशय के उपर भाग में [ विष्णु ] और तीसरी शिर के मध्य केंद्र में [ब्रह्म ] ग्रंथि कहलाती है | इन्हें दुसरे शब्दों में महाकाली , महा - लक्ष्मी , महा-सरस्वती भी कहते हैं | प्रत्येक की दो दो सहायक ग्रन्थियाँ होती हैं | इन्हें चक्र भी कहते हैं |रूद्र की [ मूलाधार , स्वधिस्तान ] , विश्न्नु की [ मणिपुर , अनाहत ] , ब्रहम की [ विशुधि , आज्ञा ] चक्र कहा जाता है | हट -योग की विधि से भी इन छ: चक्रों का वेधन [ छिद्रण ] किया जाता है | सिद्धों ने इन ग्रंथियों की अंदर की झांकी के अनुसार शिव , विष्णु और ब्रह्मा के चित्रों का निरूपण किया है | एक ही ग्रंथी ,दायें भाग से देखने पर पुरुष - प्रधान ,व बाएं भाग से देखने पर स्त्री -प्रधान आकार की होती है | 


ब्रह्म - ग्रंथि मध्य -मस्तिष्क में है | इससे उपर सहस्रार शतदल कमल है | यह ग्रंथि उपर से च्तुश्कोंन [ चार कोने ] और नीचे से फ़ैली हुई है | इसका नीचे का एक तंतु ब्रह्म -रंध्र से जुडा हुआ है | इसी को सहस्रार -मुख वाले शेष -नाग की शयया पर सोते हुए भगवान की नाभि -कमल से उत्पन चार मुख वाला ब्रह्मा चित्रित किया गया है | वाम भाग में यही ग्रंथि चतुर्भुजी सरस्वती है | वीन्ना की झंकार से ओंकार - ध्वनी का यहाँ निरंतर गुंजार होता है |  यही तीन ग्रंथियां ,जीव को बांधी हुए हैं | जब ये खुल जाती हैं ,तो मुक्ति का अधिकार अपने आप मिल जाता है | इन रत्न -राशियों के मिलते ही शक्ति , सम्पनता ,और प्रज्ञा का अटूट भण्डार हाथ में आ जाता है | ये शक्तियां सम - दर्शी हैं | रावण जैसे असुरों ने भी शंकरजी से वरदान पाए थे | परन्तु अनेक देवताओं को भी यह सफलता नहीं मिली | इसमें साधक का पुरुषार्थ ही प्रधान है |

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

महिषा - सुर मर्दिनी ; साधना - समर


|| महिषा - सुर मर्दिनी ; साधना - समर ||
हट - योग से कुन्ड- लीनी जागरण को शास्त्रों में महिशासुर व देवी दुर्गा के युद्ध के प्रतीक रूप में बताया है |मन रुपी महिषासुर चंडी रुपी कुन्द -लीनी से लड़ने लगता है | देवी क्रुद्ध होकर 
उसके वाहन महिष [ मन के संस्कारों ] को चबा डालती है | अंत में महिषासुर [ मन ] का वध होने पर वह चंडी की ज्योति में मिल जाता है | महाशक्ति का अंश होकर मुक्ति को प्राप्त कर लेता है | इस प्रकार हट -योगी भक्त " साधन -- समर " में ब्रहम से लड़कर उसे प्राप्त करते हैं | भगवान तो भक्ति [ निष्ठा ] के भूखे हैं ,वे सचे प्रेमी को भी मिल सकते हैं और सचे शत्रु को भी | रावण , कंश , ताड़का आदि अनेक असुरों ने इस प्रकार सायुज्य मुक्ति को प्राप्त किया |


कुन्द - लीनी जागरण से ब्रह्म - रंध्र में ईश्वरीय दिव्य शक्ति के दर्शनं होते हैं और गुप्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं | इसी बात को भगवान गीता [ श्लोक ६ /११ से श्लोक ६ /१६ ] में अष्टांग - योग में , प्रान्नायाम द्वारा सिद्ध करने की विधि बताते हैं | छठा अध्याय गीतार्थ का सार है , विवेक - समुद्र का तीर है जहां गीता - रुपी बल्ली का अंकुर फूटता है | जहां वेद मौन हो जाते हैं | इसी विद्या को भगवान ने [ श्लोक ९ /१ -२ ] परम गोपनीय , ज्ञान -विज्ञान सहित ज्ञान कहा है | इसे सब विद्याओं का राजा ,सब गोपनीयों का राजा ,अति पवित्र ,उत्तम , सुगम और अविनाशी बताया है |


भगवान के विधान में प्रशन्न रहना चाहिए [ श्लोक ६ /२ ] , अपना कोई भी संकल्प नहीं रखना चाहिए | भगवान का विधान मानने से मुक्ति मिलती है , पर भगवान को को मानने से 
भगवान स्वयम मिलते हैं | ज्ञानेश्वरी गीता [ पं रघुनाथ माधव भगाडे ] में कुंड -लीनी जागरण [ श्लोक ६ / ११ - १६ ] का विवरण बहुत सुन्दर ढंग से किया गया है | 


योग -वशिष्ट में आया है की मन का ब्रहम के साथ तादात्म्य संबंध है , ब्रह्म ही मन का आकार धारण करता है | अत: मन में अपार शक्तियां है | भगवान ने गीता में [ श्लोक १० /२२ ] भी मन को अपनी विभूति कहा है | परन्तु यह भी बताया की में [ श्लोक १५ / १५ ; १८ / ६१ ; १० / २० ] सबके हृदय में सिथत हूँ | इससे ऐसा प्रतीत होता है की जहां हृदय शब्द कहा है , वहाँ उनका मतलब मन [ ब्रह्म - रंध्र ] से ही लेना चाहिए | अन्यत्र भी ब्रह्म - रंध्र में ही [ ब्रह्म { शिव } एवं कुन्दिलिनी { शक्ति } ] का मिलन बताया गया है |
|| इत्ती ||

सोमवार, 12 दिसंबर 2011

साधना में सफलता के लक्षण


‎|| साधना में सफलता के लक्षण ||
ऐसी मान्यता है की शरीर में सिथत कुन्द्लीनी शक्ति ही भगवती का स्वरूप है | यह शक्ति बिजली की तरह है , जिससे मन , बुद्धि, चित ,अहंकार के बल्ब दिव्य - ज्योति से जगमगाने 
लगते हैं | इसका सीधा प्रभाव अंतरात्मा पर होता है जिससे उसकी सूक्ष्म चेतना जागृत हो जाती है और दिव्य संदेशों को, प्रकृति के गुप्त रहस्यों को समझने की योग्यता आ जाती है | 
साधना की पूर्ण अवस्था में अंतरात्मा निर्मल हो जाती है और उसमें देवी तत्वों का , ईश्वरीय संकेतों का अनुभव स्पष्ट रूप से होता है , जैसे दीपक जलाने से क्षण भर में अन्धकार में 
छिपी हुई सारी चीजें प्रकट हो जाती है |
सिद्ध योगी को स्वप्न में , या जागृत अवस्था में भगवती के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त होता है | किसी को प्रकाशमय ज्योति के रूप में , किसी को अलोकिक देवी के रूप में , किसी को स्नेह -मई नारी [ संबंधी ] के रूप में दर्शन होते हैं | कोई उनके सन्देश सीधा वार्तालाप जैसे प्राप्त करते हैं | किसी किसी को बात घुमा - फिरा कर सुनाई या समझाई जाती है | किसी को स्पष्ट आदेश होता है | यह साधकों की विशेष मनोभूमि पर निर्भर है | हर एक को इस प्रकार के अनुभव नहीं हो सकते |
निरर्थक स्वप्न अत्यंत अपूर्ण होते हैं , उनमें केवल छोटी सी झांकी होती है , फिर तुरंत उनका तारतम्य बिगड जाता है | सार्थक स्वप्न कुछ विशेषता लिए हूवे होते हैं | उन्हें देखकर 
मन में भय , शोक ,चिंता ,क्रोध ,हर्ष - विशाद , लोभ , मोह आदि के भाव उत्पन्न होते हैं | जागने पर भी उसकी छाप मन पर बनी रहती है | तथा चित में जिज्ञासा बनी रहती है की 
इस स्वप्न का अर्थ क्या है ? सात्विकता के बढाने पर यज्ञ ,दान ,जप , उपासना ,तीर्थ ,मंदिर ,उपदेश ,माता -पिता ,साधू ,महात्मा ,देवी -देवताओं के दर्शन ,दिव्य - प्रकाश आदि शुभ 
स्वप्नों से अपने -आप अंदर आये हुए शुभ तत्वों को देखता है | प्रात: काल सूर्योदय से एक ,दो घंटे पूर्व देखे हुए स्वप्न में सचाई का बहुत अंश होता है | इसमें सुक्ष्म - जगत में विचरण करते हुए भविष्य का , भावी विधानों का बहुत कुछ आभास मिलने लगता है |

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

ब्रहामी --- सिथति के लक्षण


‎|| ब्रहामी --- सिथति के लक्षण ||
ब्र्हामी - सिथति का साधक अपने भीतर और बाहर ब्रह्म का पुन्य - प्रकाश प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करता है | उसे स्पष्ट प्रतीत होता है की वह ब्रह्म की गोद में किलोल कर रहा है , ब्रह्म 
के अमृत - सिंधु में आनंद - मग्न हो रहा है | इस दशा में पहुंच कर वह जीवन - मुक्त हो जाता है | जो प्रारब्ध बन चुके हैं , उन कर्मों का लेखा -जोखा पूरा करने के लिए वह जीवित 
रहता है | जब वह हिसाब बराबर हो जाता है तो पूर्ण - शान्ति और पूर्ण ब्राह्मी - सिथती में जीवन -लीला समाप्त हो जाती है | फिर उसे संसार में लौटना नहीं पडता [ श्लोक८ /२१ ; १५ /६ ] | प्रारब्धों को पूरा करने के लिए वह शरीर धारण किये रहता है | सादा जीवन बिताते हुवे भी उसकी आत्मिक -सिथति बहुत ऊँची रहती है |
ब्रह्म -दीक्षा में शिष्य गुरु को अपना सब कुछ समर्पण [ आत्म - समर्पण ] करता है | गुरु उस सबको अमानत के तौर पर शिष्य को लौटा देता है | व आदेश देता है की इन सबका 
उपयोग गुरु की वस्तु समझकर करो | इस आत्मदान का मूल्य इतना भारी है की उसकी तुलना और किसी त्याग या पुन्य से नहीं हो सकती | 
नित्य सवा - मन सोने का दान करने वाले करण के पास भी , दान के बाद कुछ ना कुछ अपना रह जाता था | जिस दानी ने अपना कुछ छोड़ा ही नहीं ,उसकी तुलना किसी दानी से 
नहीं हो सकती | जब अपना कुछ रहा ही नहीं तो " मेरा क्या " ? अहंकार किस बात का ? जब सब वस्तुओं के स्वामी गुरु या परमात्मा ही हैं तो स्वार्थ कैसा ? इस प्रकार वस्तुत:
अहंकार का ही दान होता है | इसके द्वारा साधक सहज ही सब बंधनों से मुक्त हो जाता है | जैसे भरतजी , राम को राज्य का अधिकारी मानकर ,उनकी खडाऊ सिंघासन पर रखकर ,राज -काज चलाते रहे ,वैसे ही आत्म -दानी अपनी वस्तुओं का समर्पण करके उनके मेनेजर के रूप में स्वयम काम करता रहता है |
वर्तमान समय में गुरु - शिष्य का जोडा " लोभी गुरु , लालची चेला ; दोनों नर्क में ठेलम - ठेला " का उदाहरण बनते हैं | अत: इस क्षेत्र में अत्यंत सावधानी की आवश्यकता है |

मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

कौन - क्या - है ?


‎|| कौन - क्या - है ? ||
जैसे पानी में डूबते हुए को कोई तैरने वाला ही बचा सकता है , वैसे ही एक आत्मा में ब्रह्म जाग्रत करना , उसे ब्राह्मी - भूत , ब्रह्म -परायण बनाना केवल " ब्रह्म - निष्ट " गुरु के द्वारा ही 
संभव है | परन्तु आजकल सद्-गुरु की पहचान करना लगभग असंभव है | अत: अंत: करण की मनोभूमि के लक्षणों के आधार पर साधक अपनी व अन्य की पहचान कर सकता है | संतों की भाषा में , जिसमें साधुता हो वही महात्मा है , जिसको ब्रह्म का ज्ञान है वही ब्राहमण है ,जिसने रागों से मन को बचा लिया है ,वही वैरागी है , जो स्वाध्याय में ,मनन में 
लींन रहता हो वही मुनि है ,जिसने अहंकार को ,मोह - ममता को त्याग दिया हो वही सन्यासी है ,जो तप में प्रवृत हो वह तपस्वी है |
सादा वस्त्र ,सादा वेश , और सादा जीवन में जब महानतम आत्मिक -साधना हो सकती है तो किसी विशेष वेश या परम्परा या संप्रदाय अपनाने की क्या आवश्यकता है ? 
ब्राह्मी दृष्टि का प्राप्त होना ही ब्रहम - समाधि है | सर्वत्र ,सबमें इश्वर का दिखाई देना [ सिया राममय सब जग जानी , करहूँ प्रनाम जोरी जुग पांनी --मानस ] ,अपने अंदर तेज पुंज की
उज्वल झांकी होना ,अपनी इच्छा ,आकाक्षाओं का दिव्य , देवी हो जाना , यही ब्राह्मी - सिथति है | 
इस युग के सर्व - श्रेष्ट शास्त्र भगवद -गीता में [ २ / ६८ - ७२ ] इसका विस्तार से वर्णनं है | आज के युग में जल और पृथ्वी तत्व की प्रधानता होने से ब्राह्मी -सिथति को ही समाधि 
कहते हैं | इस सिथति को प्राप्त सिद्ध -भक्त को परा -भक्ति की प्राप्ति [ श्लोक १८ / ५४ -५५ ] हो जाती है | जो तत्व - ज्ञान की पराकाष्टा है तथा जिसको प्राप्त होकर और कुछ जानना 
बाकी नहीं रहता , उसे ही परा -भक्ति ,परम - नेश्करम्य सिद्धि ,और परम -सिद्धि आदि नामों से जाना जाता है | यह अवस्था ध्यान से भी [श्लोक १८ / ५१ -५५ ] प्राप्त हो जाती है | यही 
अवस्था सिद्ध भक्त को भगवत कृपा [ श्लोक १४ / २६ ] से गुन्नातीत होने पर प्राप्त हो जाती है |

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

शक्ति के रूप में ब्रह्म की उपासना


‎|| शक्ति के रूप में ब्रह्म की उपासना ||
ब्रह्मवैवर्त पुराण में स्वयम भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - ' तुम्हीं विश्वजननी मूलप्रकृति ईश्वरी हो , तुम्हीं सृष्टि की उत्पत्ति के समय आध्या शक्ति के रूप में विराजमान रहती हो और स्वेच्छा से त्रिगुणात्मक माया बन जाती हो | यद्यपि वस्तुत: तुम स्वयम निर्गुण हो तथापि प्रयोजनवश सगुन हो जाती हो | तुम परब्रह्म - स्वरूप , सत्य , नित्य , एवं सनातनी हो | परम तेजस्वरूप और भक्तों पर अनुग्रह करने के हेतु शरीर धारण करती हो | तुम सर्वस्वरूपा , सर्वेश्वरी सर्वाधार एवं परात्पर हो | तुम सर्व बीज -स्वरूप , सर्वपूज्या एवं आश्रय रहित हो | तुम सर्वज्ञ , सर्वप्रकार से मंगल करनेवाली एवं सर्व मंगलों की भी मंगल हो |' उस ब्रह्मरूप चेतन शक्ति के दो स्वरूप हैं - एक निर्गुण और दूसरा सगुन | सगुन के भी दो भेद हैं - एक निराकार और दूसरा साकार | इसीसे सारे संसार की उत्पत्ति होती है | उपनिषदों में इसीको पराशक्ति के नाम से कहा गया है | 
उस पराशक्ति से ब्रह्मा , विष्णु और रूद्र उत्पन्न हुए | उसीसे सब पदार्थ और अंडज , स्वेदज , उद्भिज , जरायुज जो कुछ भी स्थावर , जंगम , मनुष्य आदि प्राणी मात्र उत्पन्न हुए | ऋग्वेद में भगवती कहती हैं - ' मैं रूद्र , वसु , आदित्य , और विश्व्देवों के रूप में विचरती हूँ | वैसे ही मित्र , वरुण , इंद्र , अग्नि और अस्विनिकुमारों के रूपको धारण करती हूँ |' वह पराशक्ति सर्वसामर्थ्य से युक्त है ;क्योंकि यह प्रत्यक्ष देखा जाता है | इसलिए महाशक्ति के नाम से भी ब्रह्म की उपासना की जा सकती है | बंगाल में श्रीरामकृष्ण परमहंस ने भगवती , शक्ति के रूप में ब्रह्म की उपासना की थी | वे परमेश्वर को माँ , तारा , काली आदि नामों से पुकारा करते थे | ब्रह्म की महाशक्ति के रूप में श्रधा , प्रेम और निष्काम भाव से उपासना करने से परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है | बहुत से सज्जन इसको भगवान की आह्लादिनी शक्ति मानते हैं | महेश्वरी , जगदीश्वरी , परमेश्वरी भी इसीको कहते हैं | लक्ष्मी , सरस्वती , दुर्गा , राधा , सीता आदि सभी इस शक्ति के ही रूप हैं | परमेश्वर शक्तिमान है और भगवती परमेश्वरी उसकी शक्ति है | शक्तिमान से शक्ति अलग होने पर भी अलग नहीं समझी जाती | जैसे अग्नि की दाहिका शक्ति अग्नि से भिन्न नहीं है | यह सारा संसार शक्ति और शक्तिमान से परिपूर्ण है और उसीसे इसकी उत्पत्ति , सिथति और प्रलय होते हैं | इस प्रकार समझकर वे लोग शक्तिमान और शक्ति युगल की उपासना करते हैं | प्रेमस्वरूपा भगवती ही भगवान को सुगमता से मिला सकती है | इस प्रकार समझकर कोई - कोई केवल भगवती की ही उपासना करते हैं | श्रुति ,स्मृति , पुराण , इतिहास आदि शास्त्रों में इस गुणमयी विद्या - अविद्या रूपा मायाशक्ति को प्रकृति , मूल प्रकृति , महामाया , योगमाया आदि अनेक नामों से कहा है | २३ तत्वों के विस्तार वाला यह सारा संसार तो उसका व्यक्त - स्वरूप है | जिससे सारा संसार उत्पन्न होता है और जिसमें यह लीन हो जाता है वह उसका अव्यक्त स्वरूप है | 
भगवान [ श्लोक ८ / १८ ] में कहते हैं - ' सम्पूर्ण दृश्यमात्र भूतगन ब्रह्मा के दिन के प्रवेशकाल में अव्यक्त से अर्थात ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर से उत्पन्न होते हैं और ब्रह्मा की रात्री के प्रवेशकाल में उस अव्यक्त नामक ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर में ही लय होते हैं | ' 
वास्तव में प्रकृति और पुरुष दोनों के संयोग से चराचर जगत की उत्पत्ति होती है | भगवान [ श्लोक १४ / ३ ] कहते हैं ' हे अर्जुन ! मेरी महदब्रह्म रूप प्रकृति अर्थात त्रिगुणमयी माया सम्पूर्ण भूतों की योनी है अर्थात गर्भाधान का स्थान है और मैं उस चेतन रूप बीज को स्थापन करता हूँ | उस जड - चेतन संयोग से सब भूतों की उत्पत्ति होती है |' 

बुधवार, 30 नवंबर 2011

जीव क्या साथ लाता - लेजाता है ?


‎|| जीव क्या साथ लाता - लेजाता है ? ||
तीन शरीर माने गए हैं | [ १ ] स्थूल - जिस समय यह जीव जाग्रत अवस्था में रहता है , उस समय इसकी सिथ्ती स्थूल शरीर में रहती है | तब इसका संबंध पांच प्राणों सहित २४ तत्वों से रहता है | पांच महाभूत - आकाश , वायु , अग्नि , जल और पृथ्वी | पांच ज्ञानेन्द्रियाँ - कान , त्वचा , आँख , जीभ , और नाक | पांच कर्मेन्द्रियाँ - वाणी , हाथ , पैर , उपस्थ और गुदा | पांच विषय - शब्द , स्पर्श , रूप ,रस , और गंध | मन , बुद्धि , अहंकार और मूल प्रकृति [ श्लोक १३ / ५ ] | यही चौबीस तत्व हैं | प्राणवायु के अलग मानने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह वायु तत्व में शामिल है | भेद बतलाने के लिए ही प्राण ,अपान , समान , व्यान , उदान नामक वायु के पांच रूप माने गए हैं | [ २ ] सूक्ष्म - स्वप्नावस्था में जीव की सिथती सूक्ष्म शरीर में रहती है | इसमें १७ तत्व माने गए हैं | पांच प्राण , पांच ज्ञानेन्द्रियाँ , पांच विषय तथा मन और बुद्धि | इस सूक्ष्म शरीर के अंतर्गत तीन कोष माने गए हैं - प्राणमय , मनोमय , और विज्ञानमय | पांच कोशों में स्थूल शरीर ' अन्नमय ' कोष है | प्राणमय कोष में पांच प्राण हैं | उसके अंदर मनोमय कोष है , इसमें मन और इन्द्रियाँ हैं | उसके अंदर विज्ञानमय [ बुद्धि रुपी ] कोष है , इसमें बुद्धि और पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं , यही सत्रह तत्व हैं | स्वप्न में इस सूक्ष्म रूप का अभिमानी जीव ही पूर्वकाल में देखे - सुने पदार्थों को अपने अंदर सूक्ष्म रूप से देखता है | [ ३ ] कारण - जब इसकी सिथति कारण शरीर में होती है , तब अव्याकृत माया प्रकृति रुपी एक तत्व से इसका संबंध रहता है | इसीसे उस जीव को किसी बात का ज्ञान नहीं रहता | इसी गाढ निद्रावस्था को सुषुप्ति कहते हैं | माया सहित ब्रह्म में लय होने के कारण उस समय जीव का संबंध सुख से होता है | इसलिए इसीको ' आनंदमय ' कोष कहते हैं | इसीसे इस अवस्था से जागने पर यह कहता है की ' मैं बहुत सुख से सोया ' , उसे और किसी बात का ज्ञान नहीं रहता , यही अज्ञान है , इस अज्ञान का नाम ही माया - प्रकृति है | ' सुख से सोया ' इससे सिद्ध होता है की उसे आनंद का अनुभव था | परन्तु अज्ञान में रहने के कारण , सुख रूप ब्रह्म में सिथत होने पर भी जीव को ज्यों -का त्यों लौट आना पड़ता है | 
स्थूल शरीर से निकलकर जब यह जीव बाहर जाता है , तब प्राणमय कोश वाला सत्रह तत्वों का सूक्ष्म शरीर इसमें से निकलकर अन्य शरीर में जाता है | भगवान [ श्लोक १५ / ७ -८ ] ने कहा है - इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और वही इन त्रिगुणमई माया में सिथत पाँचों इन्द्रियों को आकर्षण करता है | जैसे गंध के स्थान से वायु गंध को ग्रहण करके ले जाता है , वैसे ही देहादी का स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीर को त्यागता है , उससे मन सहित इन इन्द्रियों को ग्रहण करके , फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है , उसमें जाता है | प्राणवायु ही उसका शरीर है , उसके साथ प्रधानता से पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और छठा मन [ अंत:कर्ण ] जाता है , इसीका विस्तार सत्रह तत्व है | यही सत्तरह तत्वों का शरीर शुभ- असुभ कर्मों के संस्कार के सहित जीव के साथ जाता है | 
प्रलय -काल में जीवों के सूक्ष्म शरीर ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर में , संस्कारों सहित मिल जाते हैं और सृष्टि के आदि में उसीके द्वारा पुन: इनकी रचना हो जाती है [ श्लोक ८ / १८ ] | महाप्रलय में ब्रह्मा सहित सम्पूर्ण सूक्ष्म शरीर ब्रह्मा के शांत होने पर , शांत हो जाते हैं , उस समय एक मूल प्रकृति रहती है , जिसको अव्याकृत माया कहते हैं | उसी महाकारन में जीवों के समस्त कारण -शरीर संस्कारों सहित लीन हो जाते हैं | तब महासर्ग [ सृष्टि के आदि में ] में स्वयम भगवान पुन: सृष्टि की रचना करते हैं [ श्लोक १४ / ३ - ४ ] | अर्थात परमात्मारूप अधिष्ठाता के अधीन प्रकृति ही चराचर सहित इस जगत को रचती है , इसी तरह यह संसार आवागमन रूप चक्र में घूमता रहता है [ श्लोक ९ / १० ] | महाप्रलय में पुरुष और उसकी शक्तिरूपा प्रकृति , यह दो ही व्स्तुवें रह जाती हैं , उस समय जीवों का प्रकृति सहित पुरुष में लय हूवा रहता है और सृष्टि के आदि में उनका पुन्रुथान होता है |

रविवार, 27 नवंबर 2011

योग से सिद्धि


‎|| योग से सिद्धि ||
भगवान ने मनुष्य को ,सब समय में ,करने की दो आज्ञाएं दी हैं | प्रथम , मेरा स्मरण [ गीता श्लोक ८ / ७ ] और दूसरी वर्ण - आश्रम धर्म के अनुसार अपने नियत एवं सहज कर्म 
[ १८ / ७; १८ /४८ ] को करना | अर्जुन के सामने उस समय युद्ध करना ही उसका सहज कर्म था ,अत: भगवान ने युद्ध करने की आज्ञा दी | ज्ञानी भक्त को [श्लोक ३ /३० ]अपना सहज 
कर्म समता - युक्त निष्काम कर्म मन बुद्धि को भगवान में अर्पण करके ,भगवान के लिए ,निर्मम ,निर-अहंकार ,निस्पृह ,व निर् -विकार भाव से [ श्लोक १२ /१० ] करना चाहिए | अर्थार्त 
योग - युक्त [ श्लोक ८ /२७ ] होकर कर्म करना चाहिए |
परन्तु योग की सिद्धि होने के लिए [ श्लोक ६ / १७ ] के अनुसार यथा -योग्य , आहार -विहार , कर्मों में चेष्टा ,व सोना एवं जागना ही बताया है | जिस काल में वश में किया हूवा चित , भली - भांती परमात्मा में सिथ्त्त हो जाता है , उस समय भोगों की इच्छा - रहित मनुष्य योग - युक्त कहा जाता है |
इस प्रकार कर्म करने से साधक का अंत: करण शुद्ध हो जाता है [ ४ /३८ ; ३ /१९ ] एवं उसे अपने आप ही आत्म -ज्ञान हो जाता है | तथा समता से निष्काम -कर्म -योग करने ,फल की इच्छा का त्याग करने पर परम -पद [ २ /५१ ; २ /७१ ] की प्राप्ति हो जाती है | भक्त के कर्म में अगर कोई कमी भी रह जाती है ,तो भगवान की कृपा से [ श्लोक १८ /५६ ]
वह परम -पद की प्राप्ति कर लेता है |
इसी प्रकार ज्ञान -योगी अपने बल से आत्म - ज्ञान तक तो पहुंच जाता है , परन्तु उसे ब्रह्म - ज्ञान तो केवल सद्-गुरु की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है | 
परन्तु भक्ति -मार्ग में तो सब कुछ भगवान की कृपा से ही प्राप्त हो जाता है | सुदामा , प्रहलाद , ध्रुव आदि इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं |

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

भक्तों के गुण



‎|| भक्तों के गुण ||
[ १ ] अहिंसा - मन , वचन , और शरीर से किसी प्रकार किसी को कष्ट न देना | [ २ ] सत्य - अंत:करण और इन्द्रियों द्वारा जैसा निश्चय किया गया हो वैसा -का -वैसा ही प्रिय शब्दों में कहना | [३ ] अस्तेय - किसी प्रकार की चोरी न करना | [ ४ ] ब्रहमचर्य - मैथूनों का त्याग करना | ५ ] अपरिग्रह - ममत्व बुद्धि से संग्रह न करना [ ६ ] शौच - बाहर और भीतर की पवित्रता [ ७ ] संतोष - तृष्णा का सर्वथा अभाव [ ८ ] तप - स्वधर्म पालन के लिए कष्ट सहन करना [ ९ ] स्वाध्याय - पारमार्थिक ग्रंथों का अध्ययन और भगवान के नाम तथा गुन्नों का कीर्तन [ १० ] इश्वर - भक्ति - भगवान में श्रधा और प्रेम होना [ ११ ] ज्ञान - सत और असत पदार्थ का यथार्त जानना [ १२ ] वैराग्य - इस लोक और परलोक के समस्त पदार्थों में आसक्ति का अत्यंत अभाव [ १३ ] मन का निग्रह - मन का वश में होना [१४ ] इन्द्रिय- दमन - समस्त इन्द्रियों का वश में होना [ १५ ] तितिक्षा - सर्दी , गर्मी ; सुख , दुख आदि द्वंदों में सहन -शीलता [ १६ ] श्रद्धा - वेद , शास्त्र , महात्मा , गुरु और परमेश्वर के वचनों में प्रत्यक्ष की तरह विस्वाश [ १७ ] क्षमा - अपना अपराध करने वाले को किसी प्रकार भी दंड देने का भाव न रखना [ १८ ] वीरता - कायरता का सर्वथा अभाव [ १९ ] दया - किसी भी प्राणी को दू:खी देखकर हृदय का पिघल जाना [ २० ] तेज - प्रभावित करने की शक्ति [ २१ ] सरलता - शरीर और इन्द्रियों सहित अंत:करण की सरलता [ २२ ] स्वार्थ -त्याग - किसी कार्य से लोक -परलोक के किसी भी स्वार्थ को न चाहना [ २३ ] अमानित्व - सत्कार , मान , और पूजा आदि का न चाहना [ २४ ] दंभ -हीनता - ढोंग का न होना [ २५ ] अपैशुनता - किसी की निंदा या चुगली न करना [ २६ ] निष्कपटता - अपने स्वार्थ साधन के लिए किसी बात का भी छिपाव न करना [ २७ ] विनय - नम्रता का भाव [ २८ ] धृति - भारी विपति आने पर भी चलायमान न होना [ २९ ] सेवा - सब जीवों को यथा योग्य सुख पहुँचाने के लिए मन ,वाणी , शरीर द्वारा निरंतर नि:स्वार्थ भाव से अपनी शक्ति के अनुसार चेष्टा करना [ ३० ] सत्संग - संत - महात्मा पुरुषों का संग करना [३१ ] जप - अपने ईष्ट देव के नाम या मंत्र का जाप करना [ ३२ ] ध्यान - अपने ईष्ट देव का चिंतन करना [ ३३ ] निर्वैर्ता - अपने साथ वैर रखने वालों में भी द्वेष - भाव न होना [ ३४ ] निर्भयता - भय का सर्वथा अभाव [ ३५ ] समता - हाथ , पैर आदि अपने अंगों की तरह सबके साथ यथा - योग्य बर्ताव में भेद रखने पर भी आत्म -रूप से सबको समभाव से देखना [ ३६ ] निर- अह्न्कारता - मन , बुद्धि , शरीर आदि में " मैं पन " का और उनसे होने वाले कर्मों में कर्तापन का सर्वथा अभाव [ ३७ ] मैत्री - प्राणी मात्र के साथ प्रेम भाव [ ३८ ] दान - जिस देश में , जिस काल में , जिसको जिस वस्तु का अभाव हो उसको वह वस्तु [ प्रत्युपकार और फल की इच्छा न रखकर ] हर्ष और सत्कार के साथ प्रदान करना [ ३९ ] कर्तव्य - परायनता - अपने कर्तव्य में तत्पर रहना [ ४० ] शान्ति - इच्छा और वासनावों का अत्यंत अभाव होना और अंत:करन में निरंतर प्रसनता का रहना |

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

देवी [ आध्यात्मिक ] संपदाएं


‎|| देवी [ आध्यात्मिक ] संपदाएं ||
भगवान ने [ गीता श्लोक १६ / १-२-३ और श्लोक १८ / ४२ -४३ -४४ ] में अनन्य भक्तों के २६ गुन्नो को देवी सम्पदा कहा है | मनुष्य शरीर में सिथत पांच कोशों को सिद्ध करने पर 
पांच आध्यात्मिक सम्पदाएं प्राप्त हो जाती है :-
[१] आत्म ज्ञान :- इसका अर्थ है ,स्वयम को जान लेना , शरीर व आत्मा की भिनता को भली प्रकार समझ लेना , शरीर व संसार के लाभों को यथा -योग्य [ गीता श्लोक ६ /१७ ] महत्व देना | आत्म -ज्ञान से संयम की प्राप्ति हो जाती है | जो कष्ट साधक को प्रारब्ध कर्मों के अनुसार भोगने होते हैं , वे भी आसानी से भुगत जाते हैं |
[२] आत्म दर्शन :- इसका मतलब है अपने निज स्वरूप का साक्षात्कार करना | साधना या गुरु -कृपा से जब आत्मा के प्रकाश का साक्षात्कार होता है ,तब भगवान में प्रेम ,प्रतीति ,श्रधा विश्वाश ,और निष्ठा की भावनाएं बढती हैं | उसे दूसरों के मन की बातें मालूम होने की शक्ति आ जाती है |
[३] आत्म -अनुभव:- अपने वास्तव स्वरूप का क्रिया -शील होना अर्थार्त भीतर -बाहर से एक होना ,करनी -कथनी में भेद नहीं होना ,विचार एवं कार्यों में अंतर नहीं होने को ही आत्म -अनुभव कहते हैं | ऐसे व्यक्ति को सूक्ष्म प्रकृति की गति विधि मालूम करने की सिद्धि मिलती है | आरंभ में अनुभव कुछ धुंधले होते हैं ,पर धीरे -धीरे दिव्य -दृष्टि निर्मल होने से सब कुछ चित्रवत दिखाई देने लगता है|
[ ४] आत्म - लाभ:- इसका अर्थ है , अपने में पूर्ण आत्म -तत्व की प्रतिष्ठा |विश्व ब्रह्मांड का ही एक छोटा सा रूप यह पिंड , देह है |इसमें जो देवी शक्तियों के गुह्य - संस्थान हैं ,वे उस साधक के लिए प्रकट एवं प्रत्यक्ष हो जाते हैं |
[५] आत्म कल्याण :- इसका अर्थ है , जीवन - मुक्ति ,सहज -समाधि ,कैवल्य ,अक्षय -आनंद ,सिथत -प्रग्याव्स्था ,परम हंस -गति ,इश्वर -प्राप्ति | ऐसी आत्माएं इश्वर की मानव -प्रति -मूर्ति होती हैं | उन्हें देव -दूत ,अवतार , पैगम्बर ,युग -निर्माता , प्रकाश -स्तम्भ आदि कहते हैं | उन्हें कोई भी चीज अप्राप्य नही रहती | उन्हें सबसे बड़ा सुख ब्रह्मानंद ,परमानंद ,आत्म -आनंद सभी मिल जाते हैं |

शनिवार, 19 नवंबर 2011

तुरिया --अवस्था


‎" तुरिया --अवस्था "
मन को पूर्ण तया संकल्प -रहित कर देने से रिक्त मानस की निर्विषय सिथती [ thought -less condition of mind ] होती है ,उसे तुरिया -अवस्था कहते है | जब मन में किसी प्रकार का एक भी संकल्प न रहे | ध्यान ,भाव ,विचार ,संकल्प ,इच्छा ,कामना को पूर्ण -तया मन से निकाल दिया जाय और भाव -रहित होकर अपने अंत: करण को केवल आत्मा के एक केंद्र में लीन कर दिया जाय ,तो साधक तुरिया -अवस्था में पहुंच जाता है | इसके आनन्द में साधक सुध -बुध भूल जाता है व आनंद से तृप्त हो जाता है ,इसी अवस्था को समाधि कहते हैं |
जिस किसी को जब कभी इश्वर का मूर्ति मान साक्षात्कार होता है ,तब समाधि -अवस्था में उसका संकल्प ही मूर्ति मान हूवा होता है | आरंभ स्वप्न मातर्रा की आंशिक समाधि के साथ होता है | देवी भावनाओं में जब भावावेश होता है ,तो सुस्ती ,मूर्छा आने लगती है | अपने इष्ट की हल्की सी झांकी होती है और एक ऐसे आनंद की क्षणिक अनुभूति होती है जैसी की संसार के किसी पदार्थ में नहीं मिलती |
यह सिथती आरम्भ में कम मात्रा में ही होती है पर धीरे -धीरे उसका विकास होकर परिपूर्ण तुरिया -अवस्था की और चलने लगती है और अंत में सिद्धि मिल जाती है | शब्द को ब्रह्म कहा है | सूक्ष्म शब्द को विचार व स्थूल शब्द को नाद कहते हैं | नाद की साधना से साधक उस उद्गम-ब्रह्म तक पहुंच जाता है ,जो आत्मा का अभिस्ट स्थान है | ब्रह्म -लोक की प्राप्ति दूसरे शब्दों में मुक्ति ,निर्वाण ,परम पद ,आदि नामों से से पुकारी जाती है | नाद के आधार पर मनोलय करता हूवा साधक योग की अंतिम सीढ़ी तक पहुंचता है और अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है | ओंकार की ध्वनि जब सुनाई देती है तो तुरिया -अवस्था की प्राप्ति हो जाती है | इससे उपर बढने वाली आत्मा -परमात्मा में प्रवेश कर जाती है | इसे अद्वेत -भाव की प्राप्ति भी कहा जाता है |

बुधवार, 16 नवंबर 2011

में कौन ?


‎" में कौन ? "
ज्ञान का अभिप्राय है जानकारी | विज्ञानं का अभिप्राय है श्रधा ,धारना ,मान्यता ,अनुभूति | आत्म -विद्या के सभी जिज्ञासू यह जानते हैं की "आत्मा " अमर है ,शरीर से भिन्न है ,इश्वर का अंश है ,सत -चित -आनंद -स्वरूप है " परन्तु इस जानकारी का एक कण भी अनुभूति भूमिका में नहीं होता | विज्ञान इस अज्ञान -अंधकार से हमें बचाता है | जिस मनोभूमि में पहुंच कर जीव यह अनुभव करता है की में शरीर नहीं वस्तुत: "आत्मा " ही हूँ ,उस मनोभूमि को " विज्ञान -मय -कोष " कहते हैं |
आत्म -ज्ञानी वह है जो विस्वाश और पूर्ण श्रधा के साथ अपने भीतर यह अनुभव करता है की " में विशुद्ध हूँ ,आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं " | शरीर मेरा वाहन है ,प्राण मेरा अस्त्र है ,मन मेरा सेवक है | में इन सबसे उपर ,इन सबसे अलग ,सबका स्वामी आत्मा हूँ | मेरा स्वार्थ इनसे अलग है ,मेरा लाभ व शरीर के लाभों में भारी अंतर है | इस अंतर को समझ कर जीव अपने हित व कल्याण के लिए कटिबद्ध होता है , आत्मोन्नति के लिए अग्रसर होता है , तो उसे अपना स्वरूप और भी स्पष्ट दिखाई देने लगता है |
आत्म -ज्ञान ,आत्म- साक्षात्कार ,आत्म -लाभ ,आत्म -प्राप्ति ,आत्म -दर्शन ,आत्म -कल्याण को जीवन लक्ष्य [ कामना नहीं ] या उद्देश्य माना गया है |
यह लक्ष्य तभी पूरा होता है ,जब हमारी अंत: चेतना अपने बारे में पूर्ण श्रधा और विस्वाश के साथ यह अनुभव करे की में वास्तव में परमात्मा का अंश ,अविनाशी आत्मा हूँ | इस भावना की पूर्णता ,परिपक्वता और सफलता का नाम ही आत्म -साक्षात्कार है | इसकी चार साधना ,सो -अहम ,आत्म-अनुभूति ,स्वर -संयम और ग्रंथि -भेद ,विज्ञान -मय कोष को प्रबुद्ध करने वाली है |
जब स्वर -संधि [ प्राण -वायु समान ] होती है ,तो सुषुम्ना का जो विधुत -प्रवाह है ,वही आत्मा की चंचल झांकी है | सुषुम्ना -ज्योति में ,रंगों की आभा होना ,उसका सीधा होना ,या वर्तुलाकार होना ,आत्मिक -सितथी का परिचायक है | यह ज्योति चंचल व विविध आकृतियों की होती है और अंत में सिथिर व मंडलाकार हो जाती है | यही विज्ञानं -मय कोष की सफलता है | उसी सितिथि में आत्म -साक्षात्कार होता है |

रविवार, 13 नवंबर 2011

मानव शरीर का महत्व


इस मानव देह में आत्मा के पांच आवरण हैं ,वे ही कोष कहलाते हैं | इन्हीं कोशों में अनंत शक्तियां [ रिधि ,सिद्धि आदि ] छिपी हुई है , जिन्हें पाकर जीव धन्य हो जाता है | जो इनके र हस्य को जानता है ,वह निश्चय ही परम गति को प्राप्त करता है | वे निम्न हैं:-
[१ ] अन्नमय कोष:- मानव शरीर अन्न से बनता है अत: स्थूल शरीर को अन्नमय कोष कहा गया है | आसन ,उपवास ,तत्व -शुद्धि ,और तपश्या से इसकी शुद्धि होती है |
[२] प्राण -मय कोष:- अनमय कोष के भीतर प्रान-मय कोष है | पांच महाप्राण तथा पांच लघु प्राण से यह बना है | बांध, मुद्रा ,और प्राणायाम द्वारा यह कोष सिद्ध होता है |
[३] मनोमय - कोष:- चेतना का केन्द्र मन माना जाता है | इसके वश में होते ही महान अंत: शक्ति पैदा होती है | ध्यान ,त्राटक ,जप की साधना करने से मनोमय कोष अत्यंत उज्जवल हो जाता है
[४] विज्ञान -मय कोष:- शरीर व् संसार का ठीक -ठीक ,पूरा -पूरा ज्ञान होने को ही विज्ञान कहा है | सो-अहम की साधना ,आत्म -अनुभूति और ग्रंथि -भेद की सिद्धि से विज्ञान -मय कोष प्रबुद्ध होता है |
[५] आनंद -मय कोष:- आनंद आवरण की उन्नति से अत्यंत शान्ति को देने वाली तुरिया -अवस्था साधक को प्राप्त होती है | नाद ,बिंदु ,और कला की पूर्ण साधना से साधक में आनंद -मय कोष जागृत होता है | विज्ञान -मय कोष आत्मा की निकटता के कारण अत्यंत प्रकाश -मय है | इसी में अहंता ,ममता ,कर्मफल ,करता -भोक्ता ,जाग्रत ,स्वप्न ,आदि अव्स्थायं ,सुख ,दू:ख ,रहते हैं |
भगवान की अनन्य -भक्ति से संसार से विरक्ती [ श्लोक १३ /१० ] का भाव हो जाता है एवं तत्व -ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है | भक्त कभी भी अज्ञानी नहीं रहता ,उसे तो सब कुछ भगवान की कृपा से मिल जाता है |
इस संसार में केवल मनुष्य -योनी ही कर्म -योनी होती है ,शेष सभी योनियाँ भोग -योनियाँ कहलाती हैं | मनुष्य शरीर मिलना अत्यंत सौभग्य की बात है | इससे बड़ा सौभाग्य किसी सद गुरु का मिलना है | इससे भी बड़ा सौभाग्य तब है ,जब सत्गुरु आपको अपना लेता है | क्योंकि तब भगवत -प्राप्ति सुनिश्चित हो जाती है |

गुरुवार, 10 नवंबर 2011

मुक्ति की युक्ति


‎|| मुक्ति की युक्ति ||
कोई भी मनुष्य कर्म किये बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता | अत: नित्य कर्म , निमित कर्म अथवा सहज कर्म [ वेद - अध्ययन , यज्ञ , दान , तप , सभी शुभ कर्म ] को अवश्य करने चाहिए | जैसे डूबते हुए को , नदी ही बाहर फेंक दे , मरने वाले को स्वयम मृत्यु ही जीवन दान दे दे , सांप के काटने पर जहर [ anti-venom ] की सूई ही जान की रक्षा करती है , कांटे को कांटे से ही निकाला जाता है , वैसे ही कर्म करने से , कर्मों का बंधन भी छूट सकता है | अत: अंत: करण की शुद्धि के लिए , कर्मों के वेग को कम करने के लिए , लोक - कल्याण के लिए , भगवत - प्रीती के लिए कर्मों को युक्ति के साथ अवश्य करने चाहिए | तीर्थों से बाहरी शुद्धि होती है , और कर्मों से अंत: - करण की शुद्धि होती है | अत: सत्कर्म निर्मल तीर्थ ही हैं [ श्लोक १८ / ५ ] |
जैसे दुसरे के सहारे से तैरता हुआ व्यक्ती तैराक होने का अभिमान नहीं करता , सेठ का मुनीम दान करते हुऐ दानी का अभिमान नहीं करता , वैसे ही करतापन का अहंकार न करते हुए ,सहज प्राप्त कर्मों को निष्काम भाव से सच्चाई और ईमानदारी के साथ यथा समय पूर्ण करते रहना चाहिए | तथा किये हुए कर्म की जो फल प्राप्ति हो , उसकी ओर ध्यान ही नहीं देना चाहिए | जैसे दाई पराये बालक को संभालती है , चरवाहा दूध की इच्छा किये बिना पूरे गाँव की गायें चराता है , पिता अपनी पुत्री का लालन - पालन , विवाह आदि पूरी क्षमता से करता है , वैसे ही कर्म - फल की आशा छोड़ देनी चाहिए | यही निष्काम - कर्म की युक्ति [ कुंजी ] है | जो इस युक्ति से कर्म करेगा , उसे अपने में ही आत्म - प्राप्ति [ आत्म - साक्षात्कार ] हो जायेगी [ श्लोक १८ / ६ ] | अत: भगवान का उत्तम सन्देश यही है की फल की आशा [ इच्छा ] और देहाभिमान [ अहंकार का भाव ] को छोड़कर सभी कर्म [ वर्ण- आश्रम धर्म के अनुसार ] अवश्य करने चाहिए |
क्योंकि देह रहते कर्म का त्याग नहीं हो सकता | हम तिलक लगाकर उसे वापिस पौंछ सकते हैं ,पर क्या सिर को भी काटकर वापिस लगा सकते हैं ? क्या नींद में हम श्वास नहीं लेते ? क्या हृदय की धडकन हमारी सावधानी से ही हो रही है ? अर्थात हम कुछ भी नहीं करें तो भी कर्म तो होते ही रहते हैं | इस प्रकार शरीर के बहाने कर्म ही मनुष्य के पीछे लगा है | वह जीते - जी व मृत्यु के बाद भी पीछा नहीं छोड़ता | इससे छूटने का यही तरीका है की फल की इच्छा न की जाय | कर्म फल भगवान को समर्पित करने से आत्म - ज्ञान प्रकट होता है और ज्ञान की अग्नि में सभी कर्म नि: शेष रूप से जल जाते हैं [ श्लोक ४ / ३७ ] | संसार में ज्ञान से पवित्र कोई चीज नहीं है | ज्ञान की पवित्रता ज्ञान में ही है |

सोमवार, 7 नवंबर 2011

आनंद के स्रोत


‎"आनंद के स्रोत "
भौतिक व् आत्मिक आनंद के समस्त स्रोत मानव के अंत:कर्ण में छिपे हुए हैं | सम्पतियाँ संसार में नहीं है ,बाहर तो पत्थर ,धातु , और निर्जीव पदार्थ भरे पड़े हैं|
साधारण माया -बद्ध जीवों के लिए सम्पतियों के सारे कोष आत्मा में सन्निहत हैं | जिनके दर्शन मात्र से मनुष्य को तृप्ति मिल जाती है | तथा उनका उपयोग करने पर आनंद का पारावार नहीं रहता | उन आनंद भंडारों की कुंजी आध्यात्मिक साधनाओं में है और साधनों में सर्वश्रेस्ट केवल कृष्ण -भक्ति ही [ श्लोक १२ /२ ] है |
क्योंकि मन ही बंधन व् मोक्ष का कारण है ,अत: मन को ही भक्ति करनी है | जीवात्मा को शरीर ,संसार व् माया ने नहीं बाँधा है ,अपितु वह स्वयम ही बंध गया है | जैसे तोते को पकड़ने के लिए एक यंत्र -नुमा नली लगाई जाती है ,जिस पर बैठते ही वह घूमने लग जाती है | तब तोता इसे अपने पंजो से जकड लेता है व् इसके साथ ही घूमने लगता है | इस समय ,अगर उसे काटा भी जाए तो भी वह उसे [नली को ] नहीं छोड़ता | इसी कारण वह पकड़ा जाता है | यद्यपि नली के घुमते ही वह उड़ने को स्वतंत्र था ,परन्तु अपनी भूल से वह पिंजरे में कैद हो जाता है | यही भूल हम सब कर रहें हैं | हमारा "स्व " भाव आत्मा है , तथा वह परमात्मा का अंश है | आनंद ,परमात्मा ,परम धाम ,परम गति सब एक ही है तथा वही हमारा वास्तविक घर है | वहाँ जाने पर ही परम -आनंद की प्राप्ति एवं दुखों से निवृति होगी |

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

कुंडलीनी का महत्व


कुंडलीनी का महत्व 
मनुष्य शरीर में मेरु -दंड छोटे -छोटे ३३ अस्थि खण्डों से मिलकर बना है | संतों के ऐसी मान्यता है की यह ३३ देवताओ का [८ वसु ,११ रूद्र ,१२ आदित्य ,ईंद्र और प्रजापति ] प्रति निधित्व करता है | इसमें उनकी शक्तियां बीज -रूप में उपस्थित रहती हैं | इसमें ईडा [ चंद्र नाड़ी ,नेगेटिव ] ; पिंगला [ सूर्य नाडी ,पोजीटीव ]
एवम दोनों के मिलने से सुषुम्ना तीसरी शक्ति पैदा होती है | यह त्रिवेनि मस्तिष्क के मध्य केंद्र से , ब्रह्मरन्ध्र से ,व् सहस्रार कमल से संबधित है | तथा मेरु दंड नुकीले अंत पर समाप्त हो जाती है | सुषुम्ना में वज्रा ,वज्रा में चित्रणी , और चित्रणी में ब्रह्म -नाडी रहती है | यह मस्तिष्क में पहुंचकर हजारों भागों में फैल जाती है | इसे सहस्र -दल कमल भी कहते हैं | विष्णुजी की शय्या शेषजी के हजारों फंनों पर होने का अलंकार भी इसी से लिया गया है | ब्रह्म -नाड़ी मेरु दंड के अंतिम भाग के पास एक काले वर्ण के शत्तकोंन वाले परमाणु से लिपटकर बंध जाती है | शरीर में प्राण इसी नाडी से बंधे रहते हैं | इसके गुंथन -स्थल को ' कुंडलिनी " कहते हैं | इसके सादे -तीन लपेटे हैं व मुंह नीचे को है |
इसको गुप्त शक्तियों की तिजोरी कहा जा सकता है | इसके छ: ताले लगे हुए है | इन्हें छ: चक्र [ मूलाधार ,मणिपुर ,अनाहत ,विशुद्ध , आज्ञा ,शून्य [ ब्रह्म -रंध्र ] भी कहते हैं | इनका वेधन करके जीव कुंडलिनी को जागृत कर सकता है |
इस भगवती कुंडलिनी की कृपा से साधक को सब कलाएं ,सब सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं | उसके लिए कोई वस्तु अप्राप्य नहीं रहती | इसे जागृत करना एक विज्ञान है , इसे योग्य -गुरु के संरक्षन में ही करना चाहिए |

बुधवार, 2 नवंबर 2011

समग्र स्वरूप श्री कृष्ण


"समग्र स्वरूप श्री कृष्ण"
भगवान के तीन स्वरूप जाने जाते हैं | 
[ १ ] ब्रहम:- यह स्वरूप निर्गुण -निराकार, अक्षर, अव्यक्त आदि नामों से जाना जाता है | इसमें समस्त शक्तियां होती है ,पर उनका प्रकटी करण नहीं होता | यह केवल सत्ता -मात्र होती है तथा अपनी सत्ता बनाये रखने में सक्षम होते हैं | जीवात्मा के लिए, ये अमावश्या के चाँद की भांति ,उपयोगी नहीं होते | अमावश्या का चाँद भी पूर्ण ही होता है ,पर उसके प्रकाश का प्रकटी -करण नहीं होता | यहाँ प्रकाश का अभाव होता है |
[ २ ] परमात्मा / इश्वर :- यह स्वरूप सगुण - निराकार होता है, जिसे अधियज्ञ भी कहा जाता है | यह जीवात्मा में "आत्मा" होकर सबके हृदय में स्थित है [ श्लोक १५/११; १५/१५ ;१८/६१ १३/१७ ; १०/२० ;६/३१ ] | यही परमात्मा का अंश [ श्लोक १५/७ ] है | मानस में इसे " इश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन, अमल, सहज, सुख राशि " कहा गया है | इसे ईद [ दूज ] का चाँद कह सकते है क्योंकि इसमें अल्प प्रकाश, अल्प समय के लिए होता है | यहाँ प्रकाश का "स्व -भाव " कह सकते है | कबीर -वाणी में इसे पंछी, एवं शरीर को पिंजरा कह कर समझाया गया है | " नौ द्वारों का पिंजरा, पंछी बैठा मौन ; रहने का कोतक भया, गए अचम्भा कौन " |
[३ ] भगवान :- इसे सगुण -साकार स्वरूप कहते है | जब परमात्मा मनुष्य का शरीर धारण करके पृथ्वी पर आते हैं, तथा धर्म की रक्षा, दुष्टों का संहार ,भक्तों को दर्शन देने का काम करते है, तब इन्हें भगवान कहते हैं | वास्तव में वे भक्तों के सभी काम करते हैं [ श्लोक ९ /२२ ] | इसे पूनम का चाँद समझें | यहाँ प्रकाश का प्रभाव पूर्ण -रूपेण होता है | अर्थात इस स्वरूप में भगवान स्वयम आकर जीवात्मा का कल्याण करते हैं | इसी लिए उन्हें कृपा -निधान , भक्त -वत्सल आदि भी कहते हैं | जैसे तीनों जगह चंद्रमा तो एक ही था परन्तु प्रकाश का प्रकटी -करण अलग -अलग था | इसे तरह इन तीनों स्वरूप में भगवान श्री -कृष्ण ही प्रत्यक्ष हैं |

जीने -मरने की कला


जीने -मरने की कला 
यद्यपि करम से ज्ञान श्रेष्ट है, चूँकि ज्ञान की अग्नि में सभी कर्म नि:शेष रुप से भस्म हो जाते हैं परन्तु ज्ञान -योगी को भी शरीर -निर्वाह हेतु कर्म तो करने ही पड़ते है | अत: कर्मों ही मुक्ति का साधन बनाना श्रेष्ट है |यही बात भगवान [ गीता श्लोक २/५० -५१ ] में समझा रहे हैं | अर्थात समता -युक्त निष्काम कर्म-योग को कर्मों में कुशलता कहा गया है | यही जीने की कला है | इसका सार यह है की निर्लिप्त रहकर कर्म करो और कर्म करने में निर्लिप्त रहो | क्योंकि भोग एवं संग्रह से ही कामना, आसक्ति, ममता रूपी जड़ें जीवात्मा को संसार से बांधती हैं | इन्हें वैराग्य -रूपी तलवार से काटकर, संसार से उपराम होकर भगवान की शरण ग्रहण करनी चाहिए | मनुष्य -जीवन का सर्वोच उद्देश्य भगवत -प्राप्ति है | इसे जीते जी ही प्राप्त कर लेना चाहिए |
गीता -श्लोक [ ६/८ ] में बताए अनुसार आचरण कर अर्थात अंत: करण की शुद्धि से ज्ञान -विज्ञानं की प्राप्ति तथा वैराग्य से मिटटी, पत्थर ,व् सोने में समानता देखकर निर्विकार होना एवं शरीर, इन्द्रियों, मन को नियंत्रण करने से भगवत-प्राप्ति संभव है | यही जीने की कला है | इसमें समता का बहुत महत्व है | जो स्थान भक्ति में प्रेम का है [ श्लोक १० /१० ] वही स्थान कर्म एवं ज्ञान-मार्ग में समता का है | गीता शलोक [ ८ / ५ -६ ] में एवं श्लोक [ ८ / १२ -१३ ] में भगवान मरने की कला बता रहे है, की अंत -काल में भी अगर कोई मेरा स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है तो वह मुझे ही प्राप्त होता है | इस नियम से ही भगवान [ दुष्टों को भी संहार करने पर ] सायुज्य -मुक्ति प्रदान करते हैं | अन्य योगी -जन ध्यान -योग से [ श्लोक ८ /८ ] उस परम -पद को प्राप्त करते हैं |

जीवन - मुक्ति


"जीवन - मुक्ति "
भगवान ने अपने धाम को परम धाम [श्लोक -८/२१ ; १५/६ ] कहा है | इसे वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत आदि भी कहते हैं | एक जगह इसकी प्राप्ति बताई, तथा दूसरी जगह जाने की [गत्वा ] बात कही गई है | जहां अव्यक्त, अक्षर, परम गति कहा गया है, वहाँ भगवान के निर्गुण -निराकार स्वरूप का वर्णनं है जिसे ज्ञानियों को 'ब्रह्म -प्राप्ति 'भी कहा जाता है | जिन जीवात्मा को भगवत प्राप्ति हो जाती है, उन्हें महात्मा कहा जाता है | वे जीवन -मुक्त भी कहलाते हैं | अनन्य भक्त जब शरीर छोडकर परम -धाम की प्राप्ति करते है, तो इसे "सद्यो -मुक्ति " कहा जाता है | ऐसे भक्तों के शरीर चिन्मय हो जाते हैं और वे भगवान के श्री -विग्रह में समाँ जाते हैं जैसे मीरा -बाई, संत तुकाराम आदि | उक्त दोनों गतियों को प्राप्त जीव पुन: लौटकर पृथ्वी पर नहीं आते | जैसे घी से पुन: दूध नहीं बन सकता वैसे ही परम -धाम से मनुष्य वापिस नहीं आ सकते | वास्तव में जीव भी भगवान का अंश है [श्लोक १५/७ ] और परम -धाम की तरह वह भी भगवान से अभिन्न है |अत: सभी जीवों का भी वही अपना घर है |जब तक हम अपने घर में नहीं जायेंगे, तब तक हम मुसाफिर की तरह अनेक योनियों में ,अनेक लोकों में घूमते ही रहेंगे | परम पद को न तो आधी -भौतिक प्रकाश [ सूर्य चन्द्र आदि ] व् न ही आधी -देविक प्रकाश [नेत्र ,मन ,बुद्धि ,वान्नी ,आदि ] ही प्रकाशित कर सकता है क्योंकि वह स्वयं प्रकाश है |
जीव [आत्मा ] का सम्बंध केवल परमात्मा से है, पर वह भूल से प्रकृति के कार्य स्थूल, सूक्ष्म, और कारण शरीर को अपना मानता है और यही अनर्थ का कारण है | जीव की यह भूल स्वयम जीव ही सुधार सकता है, कोई और नहीं | भगवान से विमुखता से यह भूल हुई है, अत: जिस दिन वह भगवान के सन्मुख हो जायेगा, उसी क्षण उसके सारे पाप नष्ट हो जायेंगे | मानस में भगवान ने कहा है " सन्मुख होई जीव मोहि जबहीं ,जन्म कोटि अघ नाश्हीं तब ही"

भगवान बुद्धि -ग्राह्य हैं


भगवान बुद्धि -ग्राह्य हैं |
एक शंका उत्पन्न होती है की अगर बुद्धि जड है तो इससे चेतन भगवान की प्राप्ति केसे हो सकती है ? संतों ने बताया की साधक के पास सबसे श्रेष्ठ करण बुद्धि ही है जिसे वह परमात्मा में लगाता है | उपनिषदों में शरीर को रथ ,जीवात्मा को रथी [ मालिक ], इन्द्रियों को घोड़े, मन को लगाम, और बुद्धि को सारथि [चालक ] कहा गया है [कठो -उपनिषद १/३/३ ] जैसे रथ, घोड़े, और लगाम तो घर के बाहर ही छूट जाते हैं, भीतर शयन -कक्ष तक सारथि [ सामान पहुँचाने ] जाता है | परन्तु शयनकक्ष में तो रथी अकेला ही जाता है | इसी प्रकार साधक की बुद्धि परमात्मा तक पहुंचती है | पर वह परमात्मा को पकड़ नहीं पाती | परमात्मा तक केवल स्वयं [ आत्मा ] ही पहुंच पाता है [ श्लोक ६/२१ ] | इसी बात को भगवान उक्त श्लोक में, ध्यान -योग का वर्णन करते हुए समझा रहें हैं | ध्यान -योगी को "आत्यन्तिक सुख " अर्थात सात्विक सुख से विलक्षण ;'अतीन्द्रिय ' अर्थात राजस सुख से विलक्षण ;और बुद्धि -ग्राह्य अर्थात तामस सुख से विलक्षण बताया गया है | ध्यान से प्राप्त सुख को संसार का सबसे बड़ा लाभ बताया गया है [ श्लोक ६/२२] | इसमें हानि की संभावना नहीं है तथा जिसमें दुख का लेश भी नहीं है | ऐसे अखंड सुख [ज्ञान -मार्ग से ] के प्राप्त होने में ही सभी साधनों की पूर्न्नता है | ऐसे ध्यान -योग का अभ्यास न उकताए हुए चित से निसचय -पूर्वक करना चाहिए | यह योग सभी साधकों का साध्य है |

सगुण साकार की भक्ति सर्व -श्रेष्ट


"सगुण साकार की भक्ति सर्व -श्रेष्ट "


निर्गुण निराकार की की भक्ति देहधारियों के लिए बहुत कठिन है | तथा बहुत देरी से प्राप्त होती है | परन्तु सगुण -उपासना में भगवान की विमुखता ही बाधक है | देहाभिमान नहीं | क्योंकि सगुण उपासक साधन के आश्रित न होकर भगवान के आश्रित हो जाता है | अत: भगवान कृपा करके उसका शीघ्र ही उधार कर देते है |[गीता श्लोक ८/१४ ; १२/७] यही सगुण उपासना की विशेसता है | अनन्य -भक्ति -योग [१२/६-७-८] का अभ्यास करने वाले साधक भक्तों के उद्धार करने हेतु भगवान के पार्षद आते हैं [श्लोक ६/५] और सिद्ध भक्तों के लिए [श्लोक १२/७ ] भगवान स्वयम आते हैं |परन्तु ज्ञान -मार्ग में चलने वाला साधक अपना उद्धार स्वयम करता है | भगवान कहते है की मुझमें मन अवम बुद्धि लगाने से मेरी प्राप्ति होती है | मन ,बुद्धि लगाने का अर्थ स्वयम को ही भगवान में लगाना है | क्योंकि जीव स्वयम वहीं लगता है जहां मन बुद्धि लगते हैं | जैसे जहां सूई जाती है ,धागा भी वहीं जाता है | इसी प्रकार मन , बुद्धि भगवान में लींन हो जाते हैं | अगर इसमें कठिनाई है ,तो अभ्यास -योग [बार -बार मन को संसार से हटकर भगवान में लगाना ] से मेरी प्राप्ति की इच्छा कर | अगर यह भी संभव नहीं है तो केवल मेरे लिए कर्म कर |अगर यह भी नहीं कर सकता तो मन -बुद्धि पर विजय करके सब कर्मों के फल [ फल की इच्छा ] का त्याग कर | अर्थात तू जो कर्म करता है , खाता है ,यज्ञ , तप, दान ,करता है ,वह सब मुझे अर्पण करदे [श्लोक १२/८-९-१० ;९/२७ ] मर्म को न जानकर किये हूवे अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ट है , ज्ञान से भगवान के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ट है और ध्यान से भी सब कर्मों के फल का त्याग [ फल की इच्छा का त्याग ही सचा त्याग है ] श्रेष्ट है | इससे तत्काल ही परम शांति प्राप्त होती है[श्लोक १२/१२ ] |

मन भगवान माया बलवान


"मन भगवान माया बलवान "
गीता [श्लोक १०/२२ ]में भगवान ने मन को अपनी विभूति बताया है | तथा माया [श्लोक ७/१४ ]को अपनी शक्ति बताया है | साधक को इन दोनों से पर पाना होता है |जब दोनों ही भगवान की शक्तियाँ है तो इनसे कौन जीत सकता है ? परन्तु निराश होने का कोई कारण नहीं है | स्वयं भगवान ने ही इन्हें वश में करने का रास्ता बताया है | माया उक्त श्लोकानुसार भगवान की शरणागति से तथा मन वैराग्य एवं अभ्यास [श्लोक ६/३५] से वश में हो जाता है | संतो की मान्यता है की परमात्मा -प्राप्ति के साधनों में ,प्रेम [भक्ति ,सेवा ] सबसे उपर है ,भगवान उसके नीचे है | भगवान स्वयं कहते है की में भक्तों का दास हूँ | भक्त मेरे मुकुट -मणि है | भगवान के नीचे ज्ञान तथा ज्ञान के नीचे कर्म है | सकाम -भाव से कर्म करने का फल अधिक से अधिक स्वर्ग या ब्रह्म लोक की प्राप्ति है | फल देकर कर्म समाप्त हो जाता है | पुन्य समाप्त होने पर [श्लोक ८/२१ ] पुन: मृट्यु -लोक में आना पदता है | अत:इसे वन्दनीय नहीं कहा जा सकता |
परन्तु समता -युक्त निष्काम कर्म करने से अंत:करन शुद्ध हो जाता है तथा साधक को ब्राह्मी -अवस्था प्राप्त [श्लोक २/६८-७२] हो जाती है |इससे साधक को परा - भक्ति [श्लोक १८/५४] की प्राप्ति हो जाती है तथा भक्ति से सब कुछ प्राप्त हो जाता है | परन्तु भक्त योगी को तो परम पद भगवान की कृपा से ही [श्लोक १८/५६] प्राप्त हो जाता है | ज्ञान अज्ञान को नष्ट करके स्वयं नष्ट हो जाता है |तथा ज्ञानियों में अहंकार रहने के कारण उनका पतन हो जाता है |इस मार्ग में गुरु की आवश्यकता रहती है | आत्म ज्ञान तो साधक स्वयं भी प्राप्त कर सकता है परन्तु ब्रह्म -प्राप्ति बिना गुरु के असम्भव है [श्लोक ५/१७;५/२५] | अत: सर्व सुलभ ,निष्कंटक ,निर्भय मार्ग तो केवल भक्ति का ही है | इसमें भगवान पर श्रधा एवं विस्वाश करके आँख मूंदकर हाई -वे की तरह सुख -पूर्वक चला जा सकता है | इसमें देर -सवेर भगवान की प्राप्ति अवश्य हो ही जाती है |

अनन्य भक्ति


" अनन्य भक्ति "


जीव , ब्रहम ,व् माया तीनों सनातन हैं | पर जिस व्यक्ति की माया छूट जाती है ,उसके लिये माया का अंत हो जाता है | जबकि माया [ प्रकृती ] को भी अनंत कहा गया है क्योंकि इसका अंत देखने में नहीं आता | अत: जीव या तो भगवान में लग सकता है , या माया में | अनंत जन्मों से जीव मायाबदद है | क्योंकि इसकी बूदधि ने गलत निर्णय लिया की संसार में सुख है |जबकि भगवान ने गीता [ श्लोक ९/३३] में संसार को अनित्य ,व् दुखमय बताया है |इसी सुख के आकर्षण से जीव प्रकृति के क्षेत्र [ वस्तु ,व्यक्ति ,घटना ,देश ,परिस्तिथि   काल ,पदार्थ ,क्रिया ,भाव ,लक्ष्य या उद्देश्य ] में ही रमन करता है | क्योंकि वह भगवान से विमुख हो गया है अत: जन्म-मरन के फेरे में पड़ा हुआ है |
इसके विपरीत अगर वह भगवान के सम्मुख हो जाये एवं अनन्य भाव से अपने मन , बूदही ,चित ,प्राण ,व् आत्मा को भगवान के क्षेत्र [ भगवान के नाम ,रूप ,गुन, लीला ,धाम , और संत ] में लगावे , जिसके लिए भगवान ने बार-बार गीता [ श्लोक ८/७,१२/८,९/३४,१८/६५ १८/५८, १२/१४, २/५१, ५/१७ ५/२५, ६/१५, ६/१०, आदि-आदि ] में उपदेश दिए हैं | तो उसे मुक्ति [ दुखों से निवर्ति , ] तथा आनंद की प्राप्ति [ भग वत -प्राप्ति ] हो सकती है | अनन्य भक्ति में नित्य ,निरंतर ,निष्काम ,निरहंकार ,निर्मम निस्पृह ,निर्विकार ,एवं अनन्य भाव से श्रधा -सहित स्मरण करना मुख्य है | इसके साथ नाम का जप एवं रूप का ध्यान करना जरूरी है |


सांसारिक सुख [विषयों का सुख ] समय एवं मात्रा में सिमित होता है जबकि चेतन से चेतन [ आत्मा व् परमात्मा ] के योग से अनंत आनंद की अनुभूति होती है | वास्तव में सुसुप्ति का सुख शरीर एवं संसार को भूलने से मिलता है | अत: भगवत -प्राप्ति [ जानना ,देखना ,एवं प्रवेश करना अर्थार्त समग्र स्वरूप की प्राप्ति गीता श्लोक ११/५४; ८/२२; १८/५५; १४/२६ ] जो की केवल अनन्य -भक्ति से ही संभव है, के द्वारा ही अनंत काल एवं अनंत मात्रा का आनंद प्राप्त किया जा सकता है |

परमात्मा प्राप्ति के उपाय


|| परमात्मा प्राप्ति के उपाय ||
[१] एक ही उपाय :-
सब धर्मं को छोड़कर, एक शरण मम होय |
चिंता तजू सब पाप तें , मुक्त करूंगो तोय ||
[२] दो उपाय :- दो बातन को भूल मत , जो चाहे कल्याण |
नारायण इक मौत को , दूजे श्री भगवान ||
[३ ] तीन उपाय :- सत्य वचन, आधीनता , पर तिय मातु समान |
इतने पे हरी ना मिले , तो तुलसीदास जमान [जिम्मा ]|
[४] चार उपाय :- संयम , सेवा , साधना , सत्पुरुषों का संग |
ये चारों करते तुरत मोह -निशा को भंग ||
[५] पांच उपाय :- गायत्री , गोविन्द , गाय , गीता, गंगा -स्नान |
इन पांचो की कृपा से शीघ्र मिले भगवान ||
[६] छ उपाय :- संध्या ,पूजा, यज्ञ , तप , दया , सु सात्विक दान |
इन छ के आचरण से , निश्चय हो कल्याण ||
[७] सात उपाय :- इस असार संसार में, सात वस्तु है सार |
सत्संग , भजन ,सेवा ,दया ,ध्यान ,दीनता ,उपकार ||
[८] आठ उपाय :- यम, नियम ,आसन ,साधकर ,प्राणायाम ,विधान |
प्रत्याहार , सुधारन्ना , ध्यान ,समाधि ,बखान ||
[९] नौ उपाय :- श्रवण , कीर्तन ,स्मरण नित , पद सेवन ,भगवान |
पूजन, वन्दन ,दास्य -रत्ति , सखिय , समर्पण जान ||
[१०] दस उपाय :-ध्रीती , क्षमा , शम , शौच , दम , विद्या , बुध्ही ,अक्रोध |
सत्य ,अचौरी ,धर्म ,दस ,देते हैं मनु बोध ||
[११]प्रेमा -भक्ति :-प्रेम लग्यो परमेश्वर सों ,तब भूली गयो सिगरो घरबारा |
ज्यों उन्मत फिरे जित ही तित ,नेक रही न शरीर संभारा ||
श्वाश -उसास उट्ठे सब रोम ,चले दृग नीर अखंडित द्धारा |
सुन्दर कौन करे नवधा विधि ,छाकी प्रयो रस पी मतवारा ||

मृत्यु -लोक में दो निष्ठा


भगवान ने [गीता श्लोक ३/३ ]इस मृत्यु -लोक में केवल दो ही निष्ठाओं को बताया | समतायुक्त निष्काम कर्मयोग एवं ज्ञान योग |इससे लगता है की भक्ति -योग भगवान की बताई हुई निष्ठा है | स्पष्ट है की भक्ति -मार्ग स्वयंम भगवान का संदेश है | इसकी विसेषता यह है की इसमें किसी योग्यता, बल ,बुदही आदि की कोई आवश्यकता नहीं है | न ही इसमें गुरु की आवश्यकता है | क्योंकि भगवान स्वयम जगत -गुरु है |
उन्हें मन से गुरु मान लेना ही गुरु बनाना है | तथा गीता को दीक्षा -मंत्र मानकर शरणागति होना ही उनकी भक्ति करना है | भक्ति कल्प -तरु है | जो भुक्ति [सांसारिक भोग ] एवं मुक्ति [अनंत -आनंद ]दोनों की प्राप्ति करा देती है | मनुष्य मात्र भक्ति का अधिकारी है | भगवान को पूजने वाले भगवान को ही प्राप्त होते है | [गीता-श्लोक ७/२३; ९/२५ ] तथा देवों ,पितरों , भूतों को पूजने वाले उन्हें ही प्राप्त होते है |गीता में [श्लोक ९/२६-२७-२८ ] प्रमुखता से सगुन -साकार भगवान की भक्ति का वर्णनं किया है |जो कोई शुद्ध -बुद्धि ,प्रेमी - भक्त [ज्ञानी -भक्त ] भगवान को प्रेम से पत्र ,पुष्प ,फल ,जल आदि अर्पण करता है , भगवान उसे सगुन -रूप से प्रकट होकर खा लेते है | भगवान अपनी प्रशन्नता में भूल जातें है की पत्र , पुष्प खाने की चीज नहीं है | वे तो भक्त के भाव का सम्मान करके उसे खा ही लेते है | विदुरानी ने भगवान को केले के छिलके खिला दिए एवं भगवान ने भाव - विभोर होकर उनको खा लिए | भक्त अगर अपने सभी कर्म भगवान को अर्पण कर दे [वेदाध्ययन ,यग्य ,दान ,तप ] तो वह सन्यास -योग से युक्त होकर कर्म -बंधन से छूट कर भगवत -प्राप्ति कर लेता है | भक्त को बुह्दी -योग [समता] भगवान दे देते है |[गीता श्लोक १०/१०-११ ] तथा भक्त के हिरदय में ज्ञान का दीपक भी जला देते है | इसी को आत्म -साक्षात्कार [गीता श्लोक १०/११;१५/१०;१३/३४; ५/१६;९/२९] कहा गया है | इसे ही तत्व -ज्ञान भी कहते हैं | यह ज्ञान एक ही बार एवं सदा के लिए होता है | अन्य मार्गों में ब्रह्म -प्राप्ति केवल सदगुरू की कृपा से ही संभव है |

स्तिथ्प्रग्य मनुष्य


श्री कृष्ण ने गीता में दूसरे अध्याय में बताया है की स्तिथ्प्रग्य मनुष्य अपने भीतर की आत्म - स्तिथि में रमन करता है | सुख -दुःख में समान रहता है | न प्रिय से राग करता है ,न अप्रिय से द्वेष करता है | इन्द्रियों को इन्द्रयों तक ही सीमित रहने देता है | उसका प्रभाव आत्मा पर नहीं होने देता ,कछुवा जैसे अपने अंगों को समेटकर अपने भीतर कर लेता है ,वैसे ही वह अपनी कामनाओं और लालसाओं को संसार में न फैलाकर अपनी अंतह भूमिका में ही समेट लेता है | जिसकी मानसिक स्तिथि ऐसी होती है ,उसे योगी ,ब्रह्मभूत ,जीवन्मुक्त ,या समाधिस्थ कहते हैं | २७ प्रकार की समाधियां बताई गई हैं | परन्तु वर्तमान देशकाल ,पात्र की सिथति में स हज समाधि सुलभ और सुख -साध्य है | महात्मा -कबीर ने अपने अनुभव से सहज -समाधि को सर्व -सुलभ देखकर अपने अनुयायों को इसी साधना के लिये प्रेरित किया है |
कबीरवाणी के अनुसार;- साधो सहज समाधि भली | कबीरजी सहज -योग को प्रधानता देते हैं | सहज योग का तात्पर्य है -सिधान्त्मय जीवन , कर्त्तव्यपूर्ण कार्यक्रम | क्योंकि इन्द्रिय भोगों, पाशविक वृत्तियों एवं काम, क्रोध, लोभ, मोह, की तुच्छ ईछाओं से प्रेरित होकर आमतोर से लोग अपना कार्यक्रम निर्धारित करते हैं और इसी कारण भांति -भांति के कष्टों का अनुभव करते हैं | सात्विक सिद्धांत को जीवन -आधार बना लेने से उन्हीं के अनुरूप विचार और कार्य करने से आत्मा को सत -तत्व में रमन करने का अभ्यास हो जाता है | व् इसमें आनंद आने लगता है | इससे एक दिव्य -आवेश -सा छाया रहता है | उसकी मस्ती, प्रसन्ता, संतोष असाधारण होता है | इस स्तिथि को सहज -योग की समाधि या "सहज-समाधि "कहा जाता है |
जिसके जीवन में संयम, सेवा, सत्यता, संतोष, सुमिरन, सत्संग, स्वाध्याय आ जाता है और जो इन्हें श्रद्धा पूर्वक आचरण में लाता है उसको सहज योग का आनंद प्राप्त होता है |

भगवत्प्राप्ति के मार्ग में श्रधा और विश्वास


भगवत्प्राप्ति के मार्ग में [श्रेय मार्ग ]में भगवांन में श्रधा और विश्वास का होना प्रथम आवश्यकता है . | गीता श्लोक [४/३९ ] में श्रद्धावान मनुष्यों को ही ज्ञान की प्राप्ति होना बताया हे तथा इसके साथ ही भगवत्प्राप्ति रूपी परम शांति की प्राप्ति बताई है | यहाँ ध्यान योग से ब्रहम की प्राप्ति का वर्णन है | [गीता श्लोक [६/२८] जिसमें अनंत आनंद की अनुभूति होती है | कर्मयोग में सिदही [४/३८]प्राप्त होने पर शान्त आनंद की अनुभूति होती है | तथा ज्ञानयोग में सीदही [५/१३;१४/२४]प्राप्त होने पर अखंड आनंद की प्राप्ति होती है |


उपरोक्त किसी भी साधन में श्रधा बिना कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता | तथा विवेकहीन व् श्रधारहित मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है | व् संशययुक्त मनुष्य का विनाश हो जाता है | अर्थार्त उसके साधन का परिणाम शून्य को किसी भी संख्या से गुना करने के समान होता है [अर्थार्त शून्य ही होता है ] गीताश्लोक [४/४०;७/२६;९/३;१७/२८;] में श्रधा के महत्व को बताया गया है | अत:कल्याण के कार्यों में [भक्ति ,सत्संग ,स्वाध्याय ]श्रधा से ही बुद्धि की शुद्धि होती है तथा ऐसे साधक की कभी दुर्गति नहीं होती है [गीताश्लोक ६/४० ]जबकि इसके विपरीत काम,क्रोध,व् लोभ का आश्रय [शरीर व् संसार को महत्व देना ]लेने वालों की अधोगति [गीता श्लोक १६/२१ ]होती है | एंवं आसुरी योंनी व् नरकों की प्राप्ति होती है | ऐसे ही चोरासी लाख योनियों में जन्म मिर्त्यु का क्रम जारी रहता है | संतो नै श्रधा व् विश्वास को भक्ति के माता पिता व् ज्ञान एवं वैराग्य को भक्ति के बेटे बताये है | भक्ति मार्ग में भगवान के नाम का जप व् रूप का स्मरण करना मुख्य है | भक्ति मार्ग में [गीता श्लोक [७/१९:९/१९ ]ही सर्वोच ज्ञान है | बहूतजन्मों के अंत के जन्म मे तत्वज्ञान को प्राप्त पुरुष सब कुछ वासुदेव ही है - इस प्रकार मुझको भजता है,वह महात्मा अत्यंत दुर्लभ है | गीता-श्लोक [९/१८ :११/३७ ]में भी सिद्ध भक्त के लक्षण बताए गये है |

ज्ञान विज्ञानं योग की व्याख्या


ज्ञान विज्ञानं योग की व्याख्या 
गीता के नॉवे अध्याय में भगवन ने अपने समग्र रूप अर्थात ज्ञान विज्ञानं योग की व्याख्या की है | इसका लोकिक उदहारण संतो द्वारा समझाया गया है, जो भगवन की समग्रता (totality) की ओर संकेत मात्र करता है जैसे तत्वरूप से जल परमाणु रूपमें ब्रहम है भाप रूप में इसे अधियग्य कह सकते हैं बादल के रूप में अधिदेव जानें वारिश रूपी क्रिया में कर्म समझें तथा अलग अलग बूंदों को अध्यात्म अर्थात जीव आत्माएं समझें | जब जल बरफ का रूप ले ले तो इसे अधिभूत समझें | इस प्रकार जल के समग्र रूप को वासुदेवः सर्वमिति {गीता श्लोक ७/१९ } अर्थात भगवन के समग्र रूप का उदहारण स्वरूप समझें इसी प्रकार संसार में सत्ता रूप से सत्चिदानन्द स्वरूप परमात्म तत्त्व ही परिपूर्ण है | मूल रूप से तीन तत्वों को ब्रम्ह, जीव, माया {प्रकृति } कहते है | गीता में परमात्मा को ब्रह्म और अधियज्ञ कहा गया है | परा प्रकृति चेतन स्वरूप आत्मा को अध्यात्म और अधिदेव कहा गया है | अपरा प्रकृति को कर्म और अधिभूत {शरीर व संसार } कहा गया है | इनमे ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म को ज्ञान विभाग व अधिभूत अधिदेव अधियज्ञ को विज्ञानं विभाग {सगुन की मुख्यता } कहा गया है | केवल ज्ञानी भक्त को ही भगवन के समग्र रूप की प्राप्ति होती है | करम योगी व ज्ञान योगी को मुक्ति व ज्ञान की प्राप्ति तो हो सकती है परन्तु भगवन के दर्शन होना {गीता श्लोक ११/५४ } आवश्यक नहीं है |

गीता एक रहस्य युक्त एंवं गोपनीय शास्त्र है


गीता एक रहस्य युक्त एंवं गोपनीय शास्त्र है { गीता श्लोक १५/२० } | गीता गंगाजी से भी पवित्र मानी गई है क्योंकि गंगाजी भगवान के श्री चरणों से प्रकट हुई है जबकि भगवन के श्री मुख से प्रकट हुई है | गंगाजी केवल इसमें स्नान करने वालों को ही पवित्र करती है परन्तु गीता तो घर बैठे ही पवित्र कर देती है | इतना ही नहीं गीता केवल सुनने वालों का भी कल्याण कर देती है |


भगवान ने गीता {गीता श्लोक ४/३ } में समता युक्त निष्काम करम योग {२/४७-४८ } को गुह्य ज्ञान बताया है | तथा ज्ञान योग के द्वारा सगुन निराकार परात्मा को जानना {गीता श्लोक १८/६२ } को गुह्यतर ज्ञान बताया है | परन्तु ज्ञान विज्ञानं सहित अर्थात समुद्र रूप परात्मा के गुण व प्रभाव को जानना {गीता श्लोक ९/२ } जो केवल भक्ति योग से ही संभव है {गीता श्लोक ११/५४ : ८/२२ } को गुह्यतम ज्ञान बताया है | इसीको राग विद्या भी कहा है | परन्तु सगुन साकार भगवन की शरणागति {गीता श्लोक ९/३४ : १८/६५ } को सर्व गुह्यतम ज्ञान बताया है | पूरी गीता मैं भगवन ने इसे दो बार कहा है -
मनमाना भव् मद्भक्तो मद्याजी माम नमस्कारू |
मामे वैश्यासी युक्त वैवं मात्मनाम मत्परयानाह ||


अर्थात : मुझमे मन वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो, मुझको प्रणाम कर | इस प्रकार आत्मा को मुझमे नियुक्त करके मेरे परायण हो कर तू मुझको ही प्राप्त होगा | यहो आचरण योग्य गीता सार है |