बुधवार, 18 जनवरी 2012

परम भक्ति [ परा - भक्ति ] की प्राप्ति


‎|| परम भक्ति [ परा - भक्ति ] की प्राप्ति ||
गीता [ श्लोक १८ / ५४ -५५ ] में भगवान कहते हैं की वह ब्रह्म - रूप बना हुवा प्रशन्न मन वाला साधक न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की इच्छा करता है | ऐसा सम्पूर्ण प्राणियों में सम भाव वाला साधक मेरी परा - भक्ति को प्राप्त हो जाता है | ज्ञान - योग द्वारा सिद्ध योगियों में , जिनमें भक्ति के संस्कार होते हैं , वे मुक्ति को सर्वोपरी नहीं मानते | इसलिए मुक्ति प्राप्त होने के बाद उसे परा - भक्ति [ परम - प्रेम ] की प्राप्ति हो जाती है | जैसे चंद्रमा जब पूर्णिमा को प्राप्त कर लेता है , तो शुक्ल पक्ष भी नि: शेष समाप्त हो जाता है ,वैसे ही साधक जब ज्ञ्येय विषयों को लील कर ज्ञान के द्वारा मुझ में आ मिलता है ,तब सम्पूर्ण अज्ञान का नाश हो जाता है | जैसे जागने पर स्वप्न का नाश हो जाता है और व्यक्ति स्वयम ही रह जाता है ,वैसे ही उस पुरुष को , केवल मेरे अतिरिक्त , स्वयम अपने समेत और कुछ भी शेष नहीं रहता | इस प्रकार वह मेरी चौथी भक्ति [ परा - भक्ति ] प्राप्त करता है | प्रथम तीन श्रेंणी के भक्त आर्त्त , जिज्ञासु , और अर्थार्थी कहलाते हैं | वास्तव में ब्रह्म - रुपी सिथिति का ही नाम भक्ति है | जैसे प्रतिबिम्ब ,बिम्ब में ही मिल जाता है , वैसे ही ग्यानी भक्त भगवान में मिल जाता है | इसी परम भक्ति को ग्यानी ,आत्म - ज्ञान कहते हैं और शिव - उपासक इसे शक्ति कहते हैं | इस प्रकार वह मुझको अद्वितीय , आत्म - रूप जानकर , अद्वेत भाव से मुझमें मिल जाता है | तब जैसे कपूर जलने के बाद अग्नि भी बुझ जाती है और दोनों के परे की वस्तु आकाश शेष रहता है | अथवा एक में से एक घटाने से जैसे शून्य शेष रहता है वैसे ही सब भाव - अभाव का शेष मैं ही बच रहता हूँ | 
अविद्या का विनाश करने के लिए सब शास्त्र योग्य हैं ,पर वे आत्मानुभव के लिए समर्थ नहीं हैं | सूर्य से विभूषित पूर्व दिशा के कारण , जैसे दशों दिशाएँ प्रकाशमयी दिखाई देती हैं ,वैसे ही गीता - रुपी , शास्त्रों के राजा से सब शास्त्र सनाथ हुए हैं | अविद्या का नाश ही इस ग्रन्थ की भूमिका है , मोक्ष - संपादन ही उसका फल है और इन दोनों का साधन ज्ञान है |
|| इत्ती ||

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