रविवार, 29 जनवरी 2012

पापी दुराचारी को भी शरणागति से परमपद की प्राप्ति


‎|| पापी दुराचारी को भी शरणागति से परमपद की प्राप्ति ||
भगवान गीता [ श्लोक ९ / ३२ ] में कहते हैं " अजी जिनका नाम लेना भी अनुचित है , जो सब अधमों में अधम हैं , उन पापयोनियों में भी जिनका जन्म हुआ हो , जो मूढ़ चाहे पत्थर जैसे मूर्ख हों , परन्तु मुझमें सर्वभावों से दृढ हों , जिनकी वाचा से मेरे गुणानुवाद निकलते हों , जिनकी दृष्टि मेरा ही रूप भोगती हो , जिनका मन मेरा ही संकल्प धारण करता हो , जिनके श्रवण मेरी कीर्ति से रीते न रहते हों , मेरी सेवा ही जिनके सर्वान्गों का अलंकार है , जिनका ज्ञान विषयों को नहीं जानता , जिनका ज्ञान केवल मुझ एक को ही जानता हो , जो इस प्रकार का लाभ हो तो ही जीवन समझते हैं अन्यथा मरण ; हे पांडव ! जो सब प्रकार से अपने सब भाव सजीव रखने के हेतु मुझको ही जीवन समझते हों , वे चाहे पापयोनी [ पूर्व -जन्म के पापी ] भी हों , चाहे वेद पढे हुए न हों , परन्तु मुझसे तुलना करते हुए उनकी योग्यता में कुछ न्यूनता नहीं रहती | देखो , भक्ति की सम्पन्नता से दैत्यों ने देवों को हीनता में दाल दिया है | जिसकी महिमा के लिए मैंने नृसिंहरूप धारण किया , उस प्रहलाद की मुझ से तुलना की जाय , तो वही श्रेष्ठ दिखाई देता है क्योंकि जो वस्तुवें मैं उसे देना चाहूँ वे सब उसे उपलब्ध थी | यों तो दैत्य का कुल था , परन्तु उसकी श्रेष्ठता की बराबरी इन्द्र भी नहीं कर सकता |अतएव इस विषय में अकेली भक्ति ही शोभा देती है , और जाती अप्रमान है | 
उत्तमता तभी फलती है , सर्वज्ञता तभी शोभती है जब मन और बुद्धि मेरे प्रेम से भर जाती है | अतएव कुल , जाती और वर्ण सब वृथा है | हे अर्जुन ! संसार में मेरी भक्ति से ही कृतार्थता होती है | चाहे जिस भाव से हो , परन्तु मन का प्रवेश मुझमें होना चाहिए ; और यदि यह बात हो जाय तो पिछले कर्म सब वृथा हो जाते हैं | जैसे छोटे - छोटे नाले तभी तक नाले कहलाते हैं जब तक वे गंगा के जल तक नहीं पहुंचते ; वहाँ पहुंचते ही वे केवल गंगारूप हो जाते हैं | पर जब वे प्रेम से मुझमें मिल जाती हैं तब जाती और व्यक्ति का कुछ भी निशान नहीं बच रहता मानों लवण के कन समुद्र में मिला दिए गए हों | अलग - अलग नदियों के नाम तथा उनका पूर्व और पश्चिम से बहना तभी तक है , जब तक वे सब समुद्र में नहीं मिल जाती | वैसे ही किसी भी बहाने से चित्त यदि मुझमें प्रवेश कर ले , तो उतने से ही वह अपने आप मद्रूप हो जाता है | अजी पारस फोड़ने के लिए भी , यदि लोहे का पारस से स्पर्श कराया जाय , तो स्पर्श करते ही वह सोना हो जाएगा | देखो पती के बहाने से वृजपत्नियों के अंत:करन मुझ से मिलते ही क्या मतस्वरूप नहीं हो गए ? अथवा भय के बहाने क्या कंस ने , अथवा निरंतर वैर के बहाने से क्या शिशुपाल आदि ने मुझे प्राप्त नहीं कर लिया ? हे पांडव ! सगोत्र होने के कारण ही यादवों को , और ममता के कारण वसुदेव आदि को मेरा सायुज्य प्राप्त हुआ है | नारद , ध्रुव , अक्रूर , शुक और सनतकुमारों को जैसे मैं भक्ति से प्राप्त हूँ वैसे ही गोपिकाओं को विषयबुद्धि से , कंस को भय से , और शिशुपाल आदि घातको को उनके अलग - अलग मनोधर्मों से प्राप्त हूँ | अजी मैं एक निदान का स्थान हूँ , मेरी प्राप्ति चाहे जिस मार्ग से हो सकती है ; भक्ति से , अथवा विषयों की विरक्ति से अथवा वैर से | 
अतएव हे पार्थ ! मुझमें प्रवेश करने के लिए संसार में साधनों की कमी नहीं है | और चाहे जिस जाती में जन्म हो , और भक्ति हो अथवा विरोध हो , परन्तु भक्त अथवा वैरी मेरा ही हो | अजी , किसी भी प्रकार से यदि मेरी भक्ति हो तो वास्तव में मद्रूपता का ही लाभ होता है |
|| इत्ती ||

गुरुवार, 26 जनवरी 2012

भक्तिहीन जीवन ही पापयुक्त है


||    भक्तिहीन जीवन ही पापयुक्त है    ||
भगवान गीता [ श्लोक ९ /  ३० - ३१ ]  में कहते हैं "  अजी मृत्यु के समय की मती के अनुसार अगली गति होती है इसलिए जिसने अपना जीवन निदान में भक्ति के अर्पण कर दिया हो -  तो वह यद्दपि प्रथम दुराचारी भी हो तथापि उसे सर्वोत्तम ही जानो |  जैसे जो बड़ी बाढ में डूबे और बिना मरे निकल आवे तो वह जीता हुआ किनारे पर पहुंच गया इसलिए उसका डूबना वृथा हो जाता है वैसे ही अंत में भक्ति करने से पूर्वकृत पाप भी मिट जाते हैं |  क्योंकि यद्दपि दुष्कृति भी हो तथापि वह पश्चातापरुपी तीर्थ में नहाता है और नहाकर सर्वभावों से मुझमें प्रवेश करता है , इससे उसका कुल पवित्र हो जाता है , उसकी कुलीनता निर्मल हो जाती है और जन्म का फल उसी को प्राप्त होता है |  वह मानो सब कुछ पढ़ चूका , सब तप तप चूका और अष्टांग योग का अभ्यास कर चूका |  बहुत क्या , हे पार्थ !  वह सर्वथा सब कर्मों के पार उतर चूका |  जिसकी आस्था निरंतर मेरे लिए ही होती है , जिसने संपूर्ण मन और बुद्धि के व्यापार से एक - निष्ठांरुपी पिटारा भरकर हे किरीटी ! मुझमें ही रख दिया है |  
वह फिर कुछ काल के बाद मेरे समान होता है ऐसा न समझो |  अजी , जो अमृत में रहे उसके पास मृत्यु कैसे आ सकती है ?  जिस समय में सूर्योदय नहीं होता उसी समय को रात्री कहते हैं ; वैसे ही जो मेरी भक्ति के बिना किया जाय वही क्या महापाप नहीं है ?  अतएव हे पांडव ! ज्योंही उसके चित्त को मेरा सानिध्य होता है त्योंही वह तत्वत:  मतस्वरूप हो जाता है |  दीपक से दीपक लगाया जाय तो पहला दीपक कौनसा है ,यह जैसे जान नहीं पड़ता , वैसे ही जो सर्व भावों से मुझे भजता है वह मद्रूप ही हो रहता है |  फिर जो मेरी नित्यशान्ति है वही उसकी दशा हो जाती है , और जो मेरी काँन्ति है वही उसकी हो जाती है |  किंबहुना वह मेरे ही जी से जीवन धारण करता है |  हे पार्थ !  इस विषय में बारंबार वही बात कहाँ तक कहूँ ?  यदि मेरी प्राप्ति की इच्छा हो तो भक्ति को मत भूलो |  अजी , कुल की शुद्धता के पीछे न लगो , कुलीनता की प्रशंशा मत करो , विद्वत्ता की वृथा अभिलाषा मत करो , अथवा रूप और तारुण्य से मत्त न हो , या संपत्ति का गर्व मत करो |  एक मेरा भाव न हो तो ये सब बातें व्यर्थ हैं |  बिना दानों के , छूछे भुट्टे घने लगे हों , अथवा सुंदर नगर वीरान पड़ा हो , तो किस काम का ?   वैसे ही सब संपत्ति अथवा कुल और जाती की श्रेष्ठता है |  जैसे अवयव - सहित शरीर हो परन्तु जीव न हो , वैसे ही नाश हो उस जीवन का जिसमें की मेरी भक्ति नहीं है |  अजी , पृथ्वी पर क्या पाषाण नहीं रहते ?  अजान के वृक्ष की सघन छाया को निषिद्ध मान सज्जन जैसे उसका त्याग कर देते हैं , वैसे ही पुन्य भी अभक्त का त्याग कर चले जाते हैं |  निमकौडियों की बहार से नीम यदि झुक जाय तो उसका कौवों को ही सुकाल होता है वैसे ही भक्तिहीन मनुष्य पापों के लिए ही बढता है |  
अथवा खपरे में छ:  रस परोस कर चौराहे पर रखे जाएँ तो जैसे कुत्तों के ही उपयोगी होते हैं , वैसे ही भक्तिहीनों का जीवन है जो स्वप्नं में भी सुकृत नहीं जानते , जिससे वे मानो संसार के दू:खों के लिए थाली परोस रखते हैं |  अतएव उत्तम कुल होने की आवश्यकता नहीं |  जाती शुद्र की भी हो और शरीर चाहे पशु का भी प्राप्त हो , तथापि कुछ हानि नहीं है |  देखो , मगर के पकड़े हुए हाथी ने अकुला कर ऐसे प्रेम से मेरा स्मरण किया की वह मेरे संनिद्ध पहुंच गया और उसका पशुत्व भी दूर हो गया |  
||       इत्ती    ||

सोमवार, 23 जनवरी 2012

आत्मसमर्पण ही सर्वोपरी भक्ति


‎|| आत्मसमर्पण ही सर्वोपरी भक्ति ||
भगवान [ श्लोक ९ / २५ ] अपनी भक्ति का महत्व बताते हुए कहते हैं ' जो मन , वचन औए इन्द्रियों से देवों के ही निमित्त भजन करते हैं वे शरीर छोड़ने के साथ ही देवरूप हो जाते हैं | अथवा जिनके चित्त पितरों के व्रत धारण करते हैं उन्हें जीवन समाप्त होते ही पितृत्व प्राप्त होता है | अथवा क्षुद्र देवता इत्यादि भूत ही जिनके परम देव हैं , जो जारण - मारनकर्मों से उनकी भक्ति करते हैं , उन्हें देहरुपी जवनिका हटते ही भूतत्व की प्राप्ति होती है एवं उनके संकल्पानुसार ही उनके कर्म उन्हें फल देते हैं | परन्तु जो नेत्रों से मुझे ही देखते हैं , कानों से मुझे ही सुनते हैं ; मन में मेरा ही चिंतन करते हैं , वाचा से मेरा ही वर्णन करते हैं , जो सर्वांग से सर्वत्र मुझे ही नमस्कार करते हैं , दान - पुण्य इत्यादि जो कुछ करते हैं वह मेरे ही उद्देश्य से , जो मेरा ही अध्ययन करते हैं , जो अंतर - बाह्य मुझसे ही तृप्त हुए हैं , जिनका जीवन मेरे ही हेतु है , जो ऐसा अभिमान रखते हैं की हम हरी के गुणानुवाद वर्णन करने के लिए जन्मे हैं , जो एक मेरे ही लोभ के कारण जगत में लोभी बने हैं , जो मेरी इच्छा से ही सकाम है , मेरे प्रेम से सप्रेम हैं , और मेरे ही भ्रम से सभ्रम हो जगत की ओर नहीं देखते , जो शास्त्रों से मेरे ही ज्ञान का उपार्जन करते हैं , जो मंत्रों से मेरी ही प्राप्ति करते हैं , इस प्रकार जो संपूर्ण क्रियाओं से मेरा भजन करते हैं , वे वास्तव में मृत्यु के इस पार मुझमें मिल जाते हैं , तो फिर मृत्यु होने पर और दूसरी ओर कैसे जायेंगे ? 
अतैव जो मेरा यजन करनेवाले हैं , जिन्होंने सेवा के बहाने से निज को मुझे ही समर्पित कर दिया है , उनकी मुझसे ही एकता हो जाती है | हे अर्जुन ! आत्मसमर्पण किये बिना मेरे लिए प्रेम नहीं उत्पन्न होता | मैं किसी उपचार से वश नहीं होता | इस विषय में जो निज को ग्यानी समझता है वही अज्ञानी है , जो बडप्पन बधारता है वह उसकी न्यूनता है , और जो निज को कृतार्थ हुआ कहता है उसे कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ रहता | अथवा हे किरीटी ! यज्ञ , दान इत्यादि अथवा तप की जो प्रतिष्ठा है वह आत्मसमर्पण के सामने एक त्रिन की भी बराबरी नहीं रखती | देखो , ज्ञानबल में क्या कोई वेदों से श्रेष्ठ है ? अथवा क्या कोई शेष से भी बड़ा वक्ता है ? परन्तु वह भी मेरी शय्या के नीचे दब रहता है | और वेद तो नेति - नेति कह कर हट जाते हैं | इस विषय में सनकादिक भी पागल बन गए हैं | तपस्वियों का विचार कीजिये तो शंकर के समान कौन है परन्तु वे भी अभिमान छोड़ कर मेरा चरणतीर्थ माथे पर धरते हैं | अथवा सम्पन्नता में लक्ष्मी के समान कौन है जिसके घर में श्री जैसी दासियाँ हैं ? वे खेल में जो घरोंदे बनाती हैं उन्हें अमरपुर कहा जा सकता है तथा क्या सचमुच में इन्द्र इत्यादि देवता उनकी गुडिया नहीं हैं ? जब वे अप्रसन्न हो उन घरोंदों को तोड़ डालती हैं तब महेंद्र के रंक हो जाते हैं | वे जिस वृक्ष की ओर देखने लगती हैं वही कल्पवृक्ष बन जाता है | जिसके घरकी दासियों की ऐसी सामर्थ्य है उस मुख्य नायिका लक्ष्मी की भी यहाँ कुछ प्रतिष्ठा नहीं | हे पांडव ! वह तो सब भावों से सेवा करके अभिमान को छोड़ , पाँव पखारने की अधिकारिणी हुई है | इसलिए प्रतिष्ठा दूर छोड़ देनी चाहिए और विद्वता संपूर्ण भूल जानी चाहिए | जगत में सब अल्पत्व प्राप्त हो तभी मेरे सानिध्य का लाभ होता है | 
अजी सूर्य की द्रष्टि के सम्मुख चन्द्र का भी लोप हो जाता है , तो फिर खद्द्योत भला अपने प्रकाश से क्या प्रतिष्ठा पा सकता है ? वैसे ही जहां लक्ष्मी की भी प्रतिष्ठा नहीं चलती , जहां शंकर का तप भी पूरा नहीं पड़ता , वहाँ अन्य प्राकृत अज्ञानी जन मुझे कैसे जान सकते हैं ? इसलिए शरीर का अभिमान छोडना चाहिए | मुझ पर से सब गुणों का राई - नॉन उतार कर संपत्ति के अभिमान को भी निछावर कर देना चाहिए | 
|| इत्ती ||

अनन्यभक्ति से मुक्ति / प्रेम की प्राप्ति


‎|| अनन्यभक्ति से मुक्ति / प्रेम की प्राप्ति ||
भगवान गीता [ ९ / २१ - २२ ] में कहते हैं " जो मुझे भूलकर पुण्य के द्वारा स्वर्ग की इच्छा करते हैं उनका अमरत्व वृथा हो जाता है और अंत में उन्हें मृत्युलोक ही प्राप्त होता है | फिर वे माता की उदररुपी गुहा में विष्ठा की ऊभ में पककर तथा नौ मॉस तक उबलकर जन्म - जन्म कर मरते हैं | अजी , स्वप्न में द्रव्य हाथ आता है परन्तु जागृत होते ही सब लुप्त हो जाता है , वैसे ही इन यज्ञ - कर्ताओं का स्वर्ग - सुख समझना चाहिए | हे अर्जुन ! वेदयज्ञ भी हो तथापि मुझे न जानने से ऐसे वृथा हो जाता है जैसे कोई धान को छोड़ भूसा ही उड़ाता रहे | यों एक मेरे बिना ये वेदोक्त धर्म निष्फल हैं | इसलिए तुम और चाहे कुछ भी न जानो पर मुझे जानलो | इसीसे तुम सुखी होगे | 
जो संपूर्ण मनोभावों से मुझे चित्त अर्पण करते हैं , जैसे गर्भ का गोला कोई भी व्यापार नहीं जानता वैसे ही जिन्हें मेरे बिना और कुछ भला नहीं दिखाई देता , और जिन्होंने अपने जीवन को मद्रूप ही कर लिया है , ऐसे जो एकनिष्ट चित्त से मेरा चिंतन करते हुए मेरी भक्ति करते हैं उनकी मैं भी सेवा करता हूँ | वे जिस समय एकाग्र चित्त से मेरे भजन में लगते हैं उसी समय मुझे भी उनकी चिंता उत्पन्न होती है | उनका जो - जो कार्य हो वह सब मुझे ही करना पड़ता है | जैसे पक्षिणी पंख न फूटे हुए बच्चों के जीवन के लिए ही अपना जीवन रखती है , अपनी भूख - प्यास नहीं जानती और उस चिरोंटी का हित ही उस माता का कार्य रहता है , वैसे ही जो प्राणों सहित मेरा अनुशरण करते हैं उनका सब कुछ कार्य मैं ही करता हूँ | उन्हें मेरे सायुज्य की इच्छा हो तो मैं उनका वही हेतु पूर्ण करता हूँ , अथवा सेवा की इच्छा हो तो प्रेम सम्मुख रख देता हूँ | इस प्रकार वे मन में जो जो भाव रखते हैं वह मैं बारंम्बार पूर्ण करता हूँ और उन्हें दी हुई वस्तु की रक्षा भी मैं ही करता हूँ | हे पांडव ! जिनके सब भावों का आश्रय मैं हूँ उनका इस प्रकार सब योगक्षेम मुझी को करना पड़ता है |
आगे [ ९ / २३ ] बताते हैं की जो अन्य देवताओं को पूजते हैं वे मुझे समष्टिरूप से नहीं जानते | क्योंकि यह जो संपूर्ण विश्व है सो मैं ही हूँ | देखो , वृक्ष के शाखा - पत्ते क्या एक ही बीज के नहीं होते ? परन्तु पानी लेना जड का काम है , सो वह जड ही में दिया जाता है | अथवा ये जो दसों इन्द्रियाँ हैं सो यद्यपि एक ही देह की है और इनके सेवन किये हुए विषय एक ही जगह पहुंचते हैं तथापि उत्तम रसोई बना कर कान में कैसे भरी जा सकती है ? फूल लाकर आँखों से कैसे सूंघे जा सकते हैं ? रस का सेवन मुख से ही करना चाहिए , सुगंध नाक से ही सूंघनी चाहिए , वैसे ही मेरा यजन मेरे प्रीत्यर्थ ही करना चाहिए | मुझे न जानकर जो भजन करता है सो वृथा बहकना है | इसलिए कर्म के नेत्र - रूप जो ज्ञान है वह निर्दोष होना चाहिए | 
|| इत्ती ||

बुधवार, 18 जनवरी 2012

परम भक्ति [ परा - भक्ति ] की प्राप्ति


‎|| परम भक्ति [ परा - भक्ति ] की प्राप्ति ||
गीता [ श्लोक १८ / ५४ -५५ ] में भगवान कहते हैं की वह ब्रह्म - रूप बना हुवा प्रशन्न मन वाला साधक न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की इच्छा करता है | ऐसा सम्पूर्ण प्राणियों में सम भाव वाला साधक मेरी परा - भक्ति को प्राप्त हो जाता है | ज्ञान - योग द्वारा सिद्ध योगियों में , जिनमें भक्ति के संस्कार होते हैं , वे मुक्ति को सर्वोपरी नहीं मानते | इसलिए मुक्ति प्राप्त होने के बाद उसे परा - भक्ति [ परम - प्रेम ] की प्राप्ति हो जाती है | जैसे चंद्रमा जब पूर्णिमा को प्राप्त कर लेता है , तो शुक्ल पक्ष भी नि: शेष समाप्त हो जाता है ,वैसे ही साधक जब ज्ञ्येय विषयों को लील कर ज्ञान के द्वारा मुझ में आ मिलता है ,तब सम्पूर्ण अज्ञान का नाश हो जाता है | जैसे जागने पर स्वप्न का नाश हो जाता है और व्यक्ति स्वयम ही रह जाता है ,वैसे ही उस पुरुष को , केवल मेरे अतिरिक्त , स्वयम अपने समेत और कुछ भी शेष नहीं रहता | इस प्रकार वह मेरी चौथी भक्ति [ परा - भक्ति ] प्राप्त करता है | प्रथम तीन श्रेंणी के भक्त आर्त्त , जिज्ञासु , और अर्थार्थी कहलाते हैं | वास्तव में ब्रह्म - रुपी सिथिति का ही नाम भक्ति है | जैसे प्रतिबिम्ब ,बिम्ब में ही मिल जाता है , वैसे ही ग्यानी भक्त भगवान में मिल जाता है | इसी परम भक्ति को ग्यानी ,आत्म - ज्ञान कहते हैं और शिव - उपासक इसे शक्ति कहते हैं | इस प्रकार वह मुझको अद्वितीय , आत्म - रूप जानकर , अद्वेत भाव से मुझमें मिल जाता है | तब जैसे कपूर जलने के बाद अग्नि भी बुझ जाती है और दोनों के परे की वस्तु आकाश शेष रहता है | अथवा एक में से एक घटाने से जैसे शून्य शेष रहता है वैसे ही सब भाव - अभाव का शेष मैं ही बच रहता हूँ | 
अविद्या का विनाश करने के लिए सब शास्त्र योग्य हैं ,पर वे आत्मानुभव के लिए समर्थ नहीं हैं | सूर्य से विभूषित पूर्व दिशा के कारण , जैसे दशों दिशाएँ प्रकाशमयी दिखाई देती हैं ,वैसे ही गीता - रुपी , शास्त्रों के राजा से सब शास्त्र सनाथ हुए हैं | अविद्या का नाश ही इस ग्रन्थ की भूमिका है , मोक्ष - संपादन ही उसका फल है और इन दोनों का साधन ज्ञान है |
|| इत्ती ||

रविवार, 15 जनवरी 2012

आत्म - ज्ञानी के लक्षण


|| आत्म - ज्ञानी के लक्षण ||
भगवान ने [ गीता श्लोक १३ /१० ; १३ /११ ] अनन्य भक्ति से भी ज्ञान की प्राप्ति बताई है | केवल भगवान को ही अपना स्वामी मानते हुवे , स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके ,श्रधा और भाव के सहित परम प्रेम से भगवान का नित्य ,निरंतर चिंतन करना अनन्य भक्ति है | गीता [ श्लोक १४ /२६ ] में भी अनन्य भक्ति से भक्त के गुन्नातीत होने पर ब्रह्म की प्राप्ति बताई | भगवान कहते हैं , जिसका अंत: करण मेरे समीप आ पहुंचा है , उसने अपने व मेरे लिए मानो एकत्व की शय्या तैयार की है | जैसे गंगाजी समुद्र में मिलने पर भी आगे को बहती ही रहती है , वैसे ही जो मेरा स्वरूप होने पर भी सब भावों से मेरा भजन करता है , उसी को मूर्ति -मान ज्ञान समझो | जिसे एकांत का प्रेम है ,जिसे बस्ती से अकुलाहट होती है ,उसे मनुष्य के आकार में ज्ञान की मूर्ति जानो | परमात्मा नामक जो एक वस्तु है , वह जिसे ज्ञान के द्वारा दिखाई देती है | जो संसार व स्वर्ग की कामना छोड़ देता है , और अध्यात्म - ज्ञान में सद्भाव की डूबकी लगाता है | मन और बुद्धि को अध्यात्म -ज्ञान में लगा देता है | उसी के पास ज्ञान है , इसे सत्य जानो |
जैसे भोजन की तृप्ति , भोजन करने से ही होती है , उसकी वार्ता से नहीं ; ज्ञान की सिथति भी कुछ ऐसी ही है | यदि ज्ञान के प्रकाश से पर- तत्व तक दृष्टि न पहुंचे तो उस ज्ञान को भी अंधा समझना चाहिए | इसलिए बुद्धि ऐसी निर्मल होनी चाहिए ,की ज्ञान जो ज्ञेय वस्तु बतावे , उसे वह सम्पूर्ण देख सके | अर्थार्त ज्ञान का प्रकाश होते ही , जिसकी बुद्धि ज्ञेय में प्रविष्ट हो जाती है ,वह हाथों - हाथ [ तत- क्षण ] पर - तत्व को स्पर्श करता है | वह ज्ञान - रूप ही हो जाता है | इस प्रकार [ श्लोक १३ / ७ - ११ ] ज्ञान के अठारह लक्षण बताए गए और कहा की इन चिन्हों से ज्ञान समझना चाहिए |
जैसे शून्य दिखाना हो तो एक गोला [ ० ] बनाना पडता है वैसे ही अद्वेत का वर्णन करना हो तो द्वेत को स्वीकार करना पडता है | जैसे [ श्लोक १३ / १६ ] , बालक ,तरुण , प्रोढ तीनों अव्स्थावों में शरीर एक ही रहता है , वैसे ही सृष्टि की उत्पति के समय ब्रह्मा , सिथति के समय विश्न्नु व प्रलय के समय रूद्र कहलाने वाला ' ब्रह्म " एक ही है | 
|| इत्ती ||

गुरुवार, 12 जनवरी 2012

महात्मा की पहचान


‎|| महात्मा की पहचान ||
जिन साधकों को भगवद - प्राप्ति हो गयी है , उनको सिद्ध पुरुष या महात्मा कहते हैं | गीता [ श्लोक ९ /१३ ] में भगवान ने उनकी पहचान के कुछ लक्षण बताए हैं | भगवान कहते हैं की मैं जिनके निर्मल मन में सन्यासी होकर रहता हूँ , जिनकी वैराग्य सेवा करता है , जिनकी श्रधा के सद्भाव में धर्म राज्य करता है , जिनका मन विवेक का जीवन है , जो ज्ञान रुपी गंगा में नहाये हैं | पूर्णता -रुपी भोजन कर तृप्त हुए हैं , जो शांति -रुपी वृक्ष में उत्पन्न हुए नए पत्ते हैं | जो ब्रह्म -रुपी फल के निकले हुए अंकुर हैं ,जो धैर्य -मंडप के खम्भे हैं ,जो आनंद -रुपी समुद्र में डुबाकर भरे हुए घड़े हैं | जिनको भक्ति यहाँ तक प्राप्त हो गई है की वे मुक्ति को भी " भाग यहाँ से " ऐसा कहते हैं | जिन्होंने इन्द्रियों में शांति के गहने पहने हैं | ऐसे जो महात्मा देवी प्रकृति के भाग्य -रूप हैं , जो मेरा सम्पूर्ण स्वरूप जानते हैं , वे प्रेम से मेरा भजन करते हैं | वे प्रेम से नाचते हुऐ [ श्लोक ९ /१४ ] हरी - कीर्तन करते हैं | मेरे नाम के घोष से संसार के दू:खों का नाश कर डालते हैं | वे योग के बिना ही आँखों को कैवलय दिखाते हैं | वे राजा -रंक में , छोटे -बड़े में भेद नहीं करते | इस प्रकार वे नाम -भजन की महिमा से विश्व को प्रकाशित कर देते हैं | सूर्य में अस्त होना दोष है , चंद्रमां महीने में एक - आध बार ही सम्पूर्ण होता है , परन्तु मेरे भक्त सदा पूर्ण ही रहते हैं | जो मेरे नाम का घोष [ कीर्तन ]करते रहते हैं , उनके पास खोजने से मैं अवश्य मिलूँगा | वे कृष्ण , विश्न्नु , हरी , गोविन्द इन शुद्ध नामों का उचारण करते हैं तथा उच्च स्वर से गाते हैं | 
इसी प्रकार ज्ञानी महात्मा मन व पांच प्रान्नों को जीतकर ,कुंडलिनी के प्रकाश में मन और पवन की सहायता से चंद्रामृत [ १७ वीं कला ] के सरोवर को अधीन कर लेते हैं और समाधि -लक्ष्मी के सिंहासन पर नि:शेष आत्म -अनुभव रुपी राज्य -सुख का अद्वेत भाव से राज्याभिषेक होता है | इस प्रकार कोई ज्ञान -यग्य द्वारा मेरी भक्ति करते हैं | भक्त जो कुछ कहता है ,वह सब भगवान का ही कीर्तन होता है | वह जो कुछ करता है ,वह सब भगवान की सेवा होती है | उसकी सम्पूर्ण लौकिक और पारमार्थिक क्रियाएँ केवल भगवान की प्रसनता के लिए ही होती है |
|| इत्ती ||

सोमवार, 9 जनवरी 2012

संतोष का महत्व


‎|| संतोष का महत्व ||
भगवान गीता [ श्लोक १२ /१४ ; १२ /१९ ] में बताते हैं की जो भक्त निरंतर संतुष्ट हैं , जिनका मन ,इन्द्रियों पर नियंत्रण है , मुझ में पका निश्चय वाला है ,वह मुझ में अर्पण किये हूवे मन, बुद्ही वाला भक्त मुझे प्रिय है | वह समता - युक्त भक्त जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है , वह भक्ति - मान , प्रज्ञावान भक्त मुझे प्रिय है | यहाँ भगवान नित्य , निरंतर संतुष्टि की आवश्यकता बता रहे हैं | क्योकि त्रिस्न्ना के रहते मनुष्य सिथिर - बुद्धि नहीं रह सकता | संत सुन्दरदासजी ने कहा है:- " जो दस , बीस , पचास भये शत , होई हजार तो लाख मांगेगी | करोड , अरब , खरब , असंख्य भये , महिपति होने की चाह जगेगी | स्वर्ग ,पाताल को राज मिले ,त्रिसना अधिकी अति आग लगेगी | सुन्दर एक संतोष बिना सठ ,तेरी तो भूख कभी न भगेगी " |
गीता [ श्लोक १२ /२० ] में भगवान कहते हैं ,ऐसे संतोषी ,ज्ञानी भक्त को मैं अपने शिर पर धरता हूँ क्योंकी वह मोक्ष का अधिकारी होने पर भी भक्ति -मार्ग में प्रवेश कर रहा है | इसलिए हम उसे नमस्कार करते हैं , अपने माथे का मुकुट बनाते हैं और उसका चरण अपने हृदय [ भृगु - लता ] में रखते हैं | उसके दर्शन करने के लिए ही मैंने आँखों को स्वीकार किया है |
मेरे हाथ के कमलों से उसकी पूजा करता हूँ | उसके शरीर के आलंगन हेतु , मेरे दो हाथों पर और भी दो हाथ लगा आया हूँ | उसके सत्संग - सुख के लिए ही मैं देह धारण करता हूँ | वह मेरा प्रेमी है | जो उसका चरित्र सुनते हैं वे भी ,और जो भक्त - चरित्र की प्रसंशा करते हैं वे भी हमें प्रान्नों से प्यारे होते हैं | यह बात सत्य है | इसे ही भक्ति -योग कहते हैं | जो मुझे अत्यंत श्रेष्ट मानकर मेरी भक्ति को स्वीकार करता है वही इस संसार में भक्त है , वही योगी है ,और मुझे नित्य उन्हींकी उत्कंठा लगी रहती है | हम उनका ध्यान करते हैं | वही हमारी देव -पूजा है | उनके मिलने पर हमें खुशी होती है | 
|| इत्ती ||

शुक्रवार, 6 जनवरी 2012

पारमार्थिक दृष्टि से मनुष्यों की श्रेणियाँ


‎|| पारमार्थिक दृष्टि से मनुष्यों की श्रेणियाँ ||
भगवान ने गीता [ श्लोक ४ / ४० ] में कहा है " विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है | ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है , न परलोक है और न सुख ही है |" भगवान के उपर्युक्त वचन से ऐसा प्रतीत होता है की विवेक एवं श्रद्धा से रहित संशयी पुरुष ही परमार्थ के मार्ग में सबसे नीचे है ; क्योंकि वे परमार्थ के मार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं , उस पर चल ही नहीं पाते | जो मार्ग पर ही नहीं है , उनके लक्ष्य स्थान तक पहुंचने की तो संभावना ही कैसे हो सकती है ? ऐसे पुरुषों के लिए भगवान ने यहाँ तक कह दिया है की उनकी इस लोक में भी उन्नति नहीं होती , फिर परलोक की तो बात ही क्या है ; और वे सब प्रकार के सुखों से वंचित रहते हैं | जिसको भी मनुष्य - शरीर मिला है , वह भगवत- प्राप्ति के योग्य है और साधन करके इसी जीवन में परमात्मा को प्राप्त कर सकता है | इस दृष्टि से मनुष्य से लेकर , भगवान तक १८ श्रेणियाँ मानी गई है , जो इस प्रकार है : - [ १ ] धर्मध्वजी [ २ ] ईश्वरविरोधी नास्तिक [ ३ ] पापी [ ४ ] संशय युक्त मनुष्य [ ५ ] सकामकर्मी [ ६ ] लौकिक सिद्धियाँ प्राप्त किये हुए योगी [ ७ ] अर्थार्थी भक्त [ ८ ] आर्त्त भक्त [ ९ ] काम क्रोध आदि शत्रुओं पर विजय पाने के लिए भगवान को भजने वाले आर्त्त भक्त [ १० ] जिज्ञासु भक्त [ ११ ] प्रेमी भक्त [ १२ ] केवल अपना कर्तव्य मानकर ही भगवान से प्रेम करने वाले निष्कामी भक्त [ १३ ] भगवतप्राप्त महापुरुष [ १४ ] विशेष अधिकार प्राप्त किये हुए महापुरुष [ १५ ] पूर्ण अधिकार प्राप्त महापुरुष [ १६ ] कारक महापुरुष [ १७ ] भगवान के सदा समीप रहने वाले उनके लीला - परिकर [ १८ ] स्वयम भगवान |
ये सब श्रेणियाँ उन जिज्ञासुओं के लिए कही गई हैं , जो इन्हें पढ़ - सुनकर श्रेय - मार्ग पर ही आरूढ़ होने के लिए प्रयत्न करना चाहते हैं | श्रीमदभागवत में भगवान ने अपने मुख से , निष्कामी भक्त के लिए कहा है " मुझे आत्मसमर्पण कर देने वाला भक्त मुझे छोड़कर अन्य किसी वस्तु को नहीं चाहता - उसे न तो ब्रह्मा का पद चाहिए , न इन्द्रासन ; उसे न तो चक्रवर्ती सम्राट बनने की इच्छा होती है और न वह रसातल का ही स्वामी बनना चाहता है | और तो क्या , वह योग की बड़ी - बड़ी सिद्धियों तथा मोक्ष तक की अभिलाषा नहीं करता |" 

सोमवार, 2 जनवरी 2012

भक्त वत्सल भगवान


‎|| भक्त वत्सल भगवान ||
भगवान अपने अनन्य भक्तों का योगक्षेम स्वयम वहन करते हैं [ श्लोक ९ / २२ ] | वे सिद्ध भक्तों का संसार समुद्र से उद्धार करने स्वयम आते हैं | कहाँ तक कहा जाए , भगवान स्वयम अपने भक्तों के अधीन रहते हैं | भक्तराज अम्बरीश पर क्रोध करनेवाले महरषी दुर्वासा सुदर्शनचक्र के डर से भागते - भागते जब वैकुण्ठलोक में श्रीहरी के पास पहुंचे , तब भगवान ने उनसे कहा - " हे द्विज ! मैं परतंत्र के समान भक्तों के अधीन हूँ | उन साधू भक्तों ने मेरे हृदय पर अधिकार कर लिया है | मैं भी उनका सर्वदा प्रिय हूँ | हे विप्रवर ! जिनका मैं ही एकमात्र आश्रय हूँ , अपने उन साधूस्वभाव भक्तों को छोड़कर तो मैं अपने आत्मा की और अपनी अर्धांगिनी विनाशरहिता लक्ष्मी की भी परवाह नहीं करता | जो अपने स्त्री , पुत्र , गृह , प्राण , धन और इहलोक तथा परलोक को छोड़कर मेरी ही शरण में आ गए हैं , उन भक्तजनों को मैं छोड़ने का विचार भी कैसे कर सकता हूँ ? जैसे पतिव्रता स्त्रियाँ अपने सदाचारी पती को वश में कर लेती है , वैसे ही अपने हृदय को मुझमें प्रेम- बंधन से बाँध रखनेवाले वे समदर्शी साधू पुरुष भक्ति के द्वारा मुझे अपने वश में कर लेते हैं | संत मेरे हृदय हैं और मैं संतों का हृदय हूँ | वे मेरे शिवाय और किसीको नहीं जानते और मैं उनके शिवाय कुछ भी नहीं जानता |" 
भगवान प्रेम के कारण भक्तों के पीछे - पीछे घूमा करते हैं | उनके सुख - दू:ख में अपना सुख - दू:ख मानते हैं | उनके लिए अपने आन - बान और स्वयम श्रीलक्ष्मीजी तक की चिंता नहीं करते | भक्तवर भीष्म की प्रतिज्ञा की रक्षा करने के लिए अपनी शस्त्र ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा को भंग कर देते हैं | तथा अर्जुन के साथ तो उन्होंने क्या - क्या नहीं किया ? उनके सारथि तक बने और जयद्रथ का वध कराने के लिए दुर्योधन के साथ माया का व्यवहार भी किया | भले ही उनको कोई बुरा कहले ; पर भक्त के प्राण - प्रण की रक्षा होनी चाहिए | भक्तों की मान - मर्यादा और सुख - दू:ख को अपना समझने का तो उन्होंने मानो अटल व्रत ही ले रखा है | ऐसे महामहिम , भाग्यवान और भगवतस्वरूप भक्तों के स्मरण - ध्यानमात्र से ही पाप - राशि भस्म हो जाय , मुक्ति दासी की तरह पीछे - पीछे घूमे और प्रभू के चरणों में अचल मती , रति और गति प्राप्त हो जाय तो कौनसा आश्चर्य है ? 
भगवान की तरह महापुरुषों के ध्यान से भी कल्याण हो सकता है | उनके स्वरूप का ध्यान करने से उनके भाव , गुण और चरित्र हृदय में आ जाते हैं , उनका स्वरूप चित्त में अंकित हो जाता है और जैसे प्रकाश के आते ही अन्धकार मिट जाता है , वैसे ही भक्तों के चरित्र - गुण आदि की स्मृति अंत:कर्ण में आते ही समस्त पापों को नष्ट कर देती है | संतों के संगमात्र से ही , उनके दर्शन से ही उद्धार हो जाता है | भक्तिसूत्रों में देवरिषि नारदजी कहते हैं - " माया से कौन तरता है ? जो आसक्ति का त्याग करता है , जो महापुरुषों का सेवन करता है और जो ममतारहित होता है |" संतों की सेवा करना सबके लिए साध्य है | 
|| इत्ती ||

भक्ति - विशेस कर्म - योग ; अनन्य - योग


‎|| भक्ति - विशेस कर्म - योग ; अनन्य - योग ||
गीता [ श्लोक १२ / ६ -७ ] में भगवान कहते हैं की जो वर्ण - आश्रम - धर्म के अनुसार अपने सहज कर्म कर्मेन्द्रियों के द्वारा सुख से करते हैं , विधि के अनुसार आचरण करते हैं ,निषिद्ध कर्मों का त्याग करते हैं और कर्मफलों को मुझे समर्पित कर नष्ट कर देते हैं | इस प्रकार जो मेरे परायण हैं और निरंतर मेरी उपासना कर ध्यान के बहाने से मेरे घर ही बन गए हैं | जिन्होंने मेरे से प्रेम - व्यापार कर भुक्ति - मुक्ति दोनों को लात मार दी है | इस प्रकार जो " अनन्य - योग " से , अंत: करण से ,मन से और शरीर से मेरे हाथ बिक गए हैं |
उनका जो कहो सो सब कुछ मैं ही कर देता हूँ | भगवान कहते हैं ,मेरे भक्त जैसे भी हों ,मैं उनका सगा बनता हूँ तथा कलि -काल को भी जीतकर उनका पक्ष लेता हूँ | कलियुग में संतों ने तीन को ही सगा बताया है:- " संत सगे , सद्गुरु सगे , और सगे श्री - कंत ; बाकी सगे स्वार्थ सगे , दगा करेंगे अंत " | भगवान कहते हैं ,मेरे भक्त मेरे संबंधी हैं [ नरसी मेहता जैसे ] ,उनके लिए मैं किसी बात की लज्जा नहीं रखता | कहीं मेरे भक्त डर नहीं जावें ,इसलिए मैं मूर्ति -रूप में उनके घर में भागता आता हूँ | संसार में हजारों नाम -रूपी नावें बनाकर मैं उनका तारक् बना हूँ | मैंने ब्रह्म -चारियों को ध्यान -मार्ग में लगा दिया है और परिवार वालों को मैंने इन नावों पर बैठा दिया है | किसी के पेट से प्रेम -रुपी लंगर बांधकर मैं सायुज्य - रुपी -मुक्ति तीर पर ले आया हूँ | अत: भक्तों को चिंता का कुछ भी कारण नहीं है | मैं सर्वदा उनका उद्धार करने वाला बना हूँ |
भक्तों ने जब अपनी चित -वृति मुझे समर्पित कर दी है तभी से उन्होंने मुझे अपने व्यापारों में लगा लिया है | इसलिए ,हे पार्थ तुम यही मंत्र सीखो की इसी मार्ग की उपासना करनी चाहिए |
|| इत्ती ||