बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

सर्वगुह्यतम ज्ञान - मन , बुद्धि को भगवान में लगाना


||  सर्वगुह्यतम ज्ञान -  मन , बुद्धि को भगवान में लगाना   ||
भगवान गीता [  श्लोक ९ / ३४ ; १८ / ६५ ; ८ / ७ ;  १२ / ८ ]   में कहते हैं "  हे अर्जुन यद्दपि तुमने यहाँ अकस्मात जन्म लिया है तथापि यहाँ से झटपट अलग हो निकलो |  भक्ति के मार्ग से चलो जिससे तुम्हें मेरा अविनाशी निजधाम प्राप्त हो जाएगा |  तुम अपना मन मद्रूप कर दो , मेरे भजन में प्रेम रखो , सर्वत्र मुझ एक को ही नमस्कार करो |  जो मेरी ही ओर ध्यान रखकर नि:शेष संकल्प को जला देता है उसको मेरा निर्मल यजन करनेवाला कहते हैं |  इस प्रकार मुझसे संपन्न होगे तो मेरे स्वरूप को पहुंचोगे , यह अपने अंत:कर्ण की बात मैं तुमसे कहे देता हूँ |  अजी , हमने जो अपना गुह्य सबसे छिपा कर रखा है उसे प्राप्त कर सुखरूप हो रहो |"  
इस प्रकार श्रीकृष्ण ने , भक्तों के मनोरथों के कल्पवृक्ष परब्रह्म ने कहा और संजय ने वर्णन किया |  यह सुनकर वृद्ध धृतराष्ट्र चुपचाप बैठा रहा , जैसे की भैंसा नदी की बाढ में बैठा रहता है |  तब संजय ने कहा की यहाँ अमृत की वर्षा हो गई परन्तु यह धृतराष्ट्र यहाँ रहता हुआ भी मानों दुसरे गाँव को गया था |  मेरे बड़े भाग्य , की कथा कहने के लिए मुनिराज श्री व्यास देव ने मुझे नियुक्त किया |  इस प्रकार बड़ी कठिनाई से और द्रिढ निश्चय से बोलते हुए संजय को ऐसा सात्विक भाव उत्पन्न हुआ की वह अपने में नहीं समा सका |  उसका चित्त चकित हो स्थिर हो गया , वाचा जहां की तहां स्तब्ध हो गई , पाँव से शिखा तक रोमांच हो गया , आधी खुली हुई आँखों से आनंद - जल बरसने लगा और अंत:स्थ सुख की तरंगों के कारण बाह्य - शरीर कांपने लगा |  उसके सब रोममूलों में स्वेद के निर्मल बिंदु भर गए जिससे वह ऐसा दिखाई देता था मानों मोतियों की जाली पहने हो |  इस प्रकार महासुख के प्रेम से जब जीवदशा का आकुंचन होने लगा तब उसने व्यासजी का सौपा हुआ कार्य करना बंद कर दिया |  तथा जब श्रीकृष्ण के वचन की ध्वनि उसके कानों में पड़ी तब मानो उसने देहस्मृतिरुपी गर्म भूमि तैयार की और आँखों के आंसु पौंछने लगा , और आगे की कथा कहने के लिए तैयार हुआ | 
जो अभिप्राय गीता के सातसौ श्लोकों में है वह एक नवें [ ९ ]  अध्याय में ही प्रकट है |  वैसे तो गीता के कोई अध्याय ब्रह्मस्वरूप को जानकर उसका प्रतिपादन करते हैं , कोई अपनी ही जगह से ब्रह्मस्वरूप का निर्देश करते हैं , और कोई जानने का प्रयत्न करते हुए जानने के गुनसहित ब्रह्मरूप हो गए हैं |  ऐसे ये गीता के अध्याय हैं , परन्तु नौवां अध्याय अवर्णनीय है |  इसमें अनिर्वाच्य ब्रह्म का निरूपण किया गया है | जितना कुछ अभिप्राय वेदों में प्रकट हुआ है उतना एक लाख श्लोकयुक्त महाभारत ग्रन्थ में कहा है ; और जो कुछ उस महाभारत में है सो सब कृष्ण - अर्जुन संवाद में मौजूद है |  अतएव नवें अध्याय के अभिप्राय का स्पष्टीकरन करने के लिए वेद भी डरते हैं |  नवें अध्याय में जो श्रीकृष्ण के वचन हैं वे नवें अध्याय जैसे ही हैं |  यह निर्णय वही तत्वज्ञ जानता है जिसके हाथ गीतार्थ आ गया है |
||        इत्ती   ||

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