रविवार, 15 जनवरी 2012

आत्म - ज्ञानी के लक्षण


|| आत्म - ज्ञानी के लक्षण ||
भगवान ने [ गीता श्लोक १३ /१० ; १३ /११ ] अनन्य भक्ति से भी ज्ञान की प्राप्ति बताई है | केवल भगवान को ही अपना स्वामी मानते हुवे , स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके ,श्रधा और भाव के सहित परम प्रेम से भगवान का नित्य ,निरंतर चिंतन करना अनन्य भक्ति है | गीता [ श्लोक १४ /२६ ] में भी अनन्य भक्ति से भक्त के गुन्नातीत होने पर ब्रह्म की प्राप्ति बताई | भगवान कहते हैं , जिसका अंत: करण मेरे समीप आ पहुंचा है , उसने अपने व मेरे लिए मानो एकत्व की शय्या तैयार की है | जैसे गंगाजी समुद्र में मिलने पर भी आगे को बहती ही रहती है , वैसे ही जो मेरा स्वरूप होने पर भी सब भावों से मेरा भजन करता है , उसी को मूर्ति -मान ज्ञान समझो | जिसे एकांत का प्रेम है ,जिसे बस्ती से अकुलाहट होती है ,उसे मनुष्य के आकार में ज्ञान की मूर्ति जानो | परमात्मा नामक जो एक वस्तु है , वह जिसे ज्ञान के द्वारा दिखाई देती है | जो संसार व स्वर्ग की कामना छोड़ देता है , और अध्यात्म - ज्ञान में सद्भाव की डूबकी लगाता है | मन और बुद्धि को अध्यात्म -ज्ञान में लगा देता है | उसी के पास ज्ञान है , इसे सत्य जानो |
जैसे भोजन की तृप्ति , भोजन करने से ही होती है , उसकी वार्ता से नहीं ; ज्ञान की सिथति भी कुछ ऐसी ही है | यदि ज्ञान के प्रकाश से पर- तत्व तक दृष्टि न पहुंचे तो उस ज्ञान को भी अंधा समझना चाहिए | इसलिए बुद्धि ऐसी निर्मल होनी चाहिए ,की ज्ञान जो ज्ञेय वस्तु बतावे , उसे वह सम्पूर्ण देख सके | अर्थार्त ज्ञान का प्रकाश होते ही , जिसकी बुद्धि ज्ञेय में प्रविष्ट हो जाती है ,वह हाथों - हाथ [ तत- क्षण ] पर - तत्व को स्पर्श करता है | वह ज्ञान - रूप ही हो जाता है | इस प्रकार [ श्लोक १३ / ७ - ११ ] ज्ञान के अठारह लक्षण बताए गए और कहा की इन चिन्हों से ज्ञान समझना चाहिए |
जैसे शून्य दिखाना हो तो एक गोला [ ० ] बनाना पडता है वैसे ही अद्वेत का वर्णन करना हो तो द्वेत को स्वीकार करना पडता है | जैसे [ श्लोक १३ / १६ ] , बालक ,तरुण , प्रोढ तीनों अव्स्थावों में शरीर एक ही रहता है , वैसे ही सृष्टि की उत्पति के समय ब्रह्मा , सिथति के समय विश्न्नु व प्रलय के समय रूद्र कहलाने वाला ' ब्रह्म " एक ही है | 
|| इत्ती ||

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