शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

कुंडलीनी का महत्व


कुंडलीनी का महत्व 
मनुष्य शरीर में मेरु -दंड छोटे -छोटे ३३ अस्थि खण्डों से मिलकर बना है | संतों के ऐसी मान्यता है की यह ३३ देवताओ का [८ वसु ,११ रूद्र ,१२ आदित्य ,ईंद्र और प्रजापति ] प्रति निधित्व करता है | इसमें उनकी शक्तियां बीज -रूप में उपस्थित रहती हैं | इसमें ईडा [ चंद्र नाड़ी ,नेगेटिव ] ; पिंगला [ सूर्य नाडी ,पोजीटीव ]
एवम दोनों के मिलने से सुषुम्ना तीसरी शक्ति पैदा होती है | यह त्रिवेनि मस्तिष्क के मध्य केंद्र से , ब्रह्मरन्ध्र से ,व् सहस्रार कमल से संबधित है | तथा मेरु दंड नुकीले अंत पर समाप्त हो जाती है | सुषुम्ना में वज्रा ,वज्रा में चित्रणी , और चित्रणी में ब्रह्म -नाडी रहती है | यह मस्तिष्क में पहुंचकर हजारों भागों में फैल जाती है | इसे सहस्र -दल कमल भी कहते हैं | विष्णुजी की शय्या शेषजी के हजारों फंनों पर होने का अलंकार भी इसी से लिया गया है | ब्रह्म -नाड़ी मेरु दंड के अंतिम भाग के पास एक काले वर्ण के शत्तकोंन वाले परमाणु से लिपटकर बंध जाती है | शरीर में प्राण इसी नाडी से बंधे रहते हैं | इसके गुंथन -स्थल को ' कुंडलिनी " कहते हैं | इसके सादे -तीन लपेटे हैं व मुंह नीचे को है |
इसको गुप्त शक्तियों की तिजोरी कहा जा सकता है | इसके छ: ताले लगे हुए है | इन्हें छ: चक्र [ मूलाधार ,मणिपुर ,अनाहत ,विशुद्ध , आज्ञा ,शून्य [ ब्रह्म -रंध्र ] भी कहते हैं | इनका वेधन करके जीव कुंडलिनी को जागृत कर सकता है |
इस भगवती कुंडलिनी की कृपा से साधक को सब कलाएं ,सब सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं | उसके लिए कोई वस्तु अप्राप्य नहीं रहती | इसे जागृत करना एक विज्ञान है , इसे योग्य -गुरु के संरक्षन में ही करना चाहिए |

2 टिप्‍पणियां:

  1. इस योग में कर्म के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति की जाती है । श्रीमद्भगवद्गीता में कर्मयोग को सर्वश्रेष्ठ माना गया है । गृहस्थ और कर्मठ व्यक्ति के लिए यह योग अधिक उपयुक्त है । हममें से प्रत्येक किसी न किसी कार्य में लगा हुआ है, पर हममें से अधिकांश अपनी शक्तियों का अधिकतर भाग व्यर्थ खो देते हैं; क्योंकि हम कर्म के रहस्य को नहीं जानते । जीवन की रक्षा के लिए, समाज की रक्षा के लिए, देश की रक्षा के लिए, विश्व की रक्षा के लिए कर्म करना आवश्यक है । किन्तु यह भी एक सत्य है कि दु:ख की उत्पत्ति कर्म से ही होती है । सारे दु:ख और कष्ट आसक्ति से उत्पन्न हुआ करते हैं । कोई व्यक्ति कर्म करना चाहता है, वह किसी मनुष्य की भलाई करना चाहता है और इस बात की भी प्रबल सम्भावना है कि उपकृत मनुष्य कृतघ्न निकलेगा और भलाई करने वाले के विरुद्ध कार्य करेगा । इस प्रकार सुकृत्य भी दु:ख देता है । फल यह होता है कि इस प्रकार की घटना मनुष्य को कर्म से दूर भगाती है । यह दु:ख या कष्ट का भय कर्म और शक्ति का बड़ा भाग नष्ट कर देता है । कर्मयोग सिखाता है कि कर्म के लिए कर्म करो, आसक्तिरहित होकर कर्म करो । कर्मयोगी इसीलिए कर्म करता है कि कर्म करना उसे अच्छा लगता है और इसके परे उसका कोई हेतु नहीं है । कर्मयोगी कर्म का त्याग नहीं करता वह केवल कर्मफल का त्याग करता है और कर्मजनित दु:खों से मुक्त हो जाता है । उसकी स्थिति इस संसार में एक दाता के समान है और वह कुछ पाने की कभी चिन्ता नहीं करता । वह जानता है कि वह दे रहा है, और बदले में कुछ माँगता नहीं और इसीलिए वह दु:ख के चंगुल में नहीं पड़ता । वह जानता है कि दु:ख का बन्धन ‘आसक्ति’ की प्रतिक्रिया का ही फल हुआ करता है।


    गीता में कहा गया है कि मन का समत्व भाव ही योग है जिसमें मनुष्य सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जय-पराजय, संयोग-वियोग को समान भाव से चित्त में ग्रहण करता है । कर्म-फल का त्याग कर धर्मनिरपेक्ष कार्य का सम्पादन भी पूजा के समान हो जाता है । संसार का कोई कार्य ब्रह्म से अलग नहीं है । इसलिए कार्य की प्रकृति कोई भी हो निष्काम कर्म सदा ईश्वर को ही समर्पित हो जाता है । पुनर्जन्म का कारण वासनाओं या अतृप्त कामनाओं का संचय है । कर्मयोगी कर्मफल के चक्कर में ही नहीं पड़ता, अत: वासनाओं का संचय भी नहीं होता । इस प्रकार कर्मयोगी पुनर्जन्म के बन्धन से भी मुक्त हो जाता है । पाखंड पूर्ण ,दिखावा मात्र ,छ्ल-कपट पूर्ण कर्मों का परहेज हितकारी होता है |ना खुद ऐसे कर्म करो ,ना किसी को करने की शिक्षा ही दो

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