शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

गीता की महिमा


‎|| गीता की महिमा ||
गीता का अठार्वा [ १८ ] अध्याय , अर्थ - रुपी चिंता - मणी का बनाया हूवा , इस गीता - रत्न मंदिर का कलश है , जो सम्पूर्ण गीता - दर्शन का मुकुट है | ऐसी मान्यता है की दूर से मंदिर का कलश देखने से ही देव - दर्शन का फल प्राप्त हूवा समझा जाता है | इसी प्रकार इस अठार्वें अध्याय को देखने से ,सम्पूर्ण गीता - शास्त्र अवगत हो जाता है |सोलवां [ १६ ] अध्याय मानो उसका घंटा है और सत्रवा [ १७ ] अध्याय कलश रखने की जगह है | कलश के उपर श्री व्यासजी ने " गीता " के नाम की ध्वजा लगादी है | अठार्वा अध्याय सम्पूर्ण गीता -शास्त्र को प्रकट करता है | गीता का पाठ करना [ स्वाध्याय ] मानों बाहर की परिक्रमा करना है | गीता श्रवण करना मानो गीता मंदिर की छाया में बैठना है | तथा पान व दक्षिना लेकर भावार्थ - ज्ञान -रुपी गर्भ - गृह में प्रवेश करना और आत्म ज्ञान द्वारा परमात्मा - प्राप्ति करना है | इन तीनों का फल एक " मुक्ति " ही है | जैसे भंडारे [ सामूहिक भोज ] में एक पंक्ति में , नीचे - उपर बैठे हुवे सब लोगों को समान ही पकवान परोसे जाते हैं |
" त्याग और संन्यास " के विषय में प्रश्न करने के बहाने अर्जुन ने श्री कृष्ण से फिर गीता के सिद्धांत का स्पष्टीकरन करवाया है | इसलिए अठार्वें अध्याय को " एक अध्यायी गीता " ही समझना चाहिए | नित्य - कर्म [ वर्ण- आश्रम -धर्मानुसार प्राप्त सहज कर्म ] और नैमेत्तिक कर्म [ ग्रहण में दान करना , पितृ - श्राद्ध करना , अतिथि सत्कार करना आदि ] तो अवश्य करने चाहिए | जैसे भोजन करने से भूख मिटती है ,व तृप्ति होती है ,वैसे ही नित्य एवं नैमेतिक कर्म सब तरह से फलदायक हैं | परन्तु इन दोनों के फल का [ फल की इच्छा का ] उलटी [ उबका हूवा अन्न ] के समान त्याग करना चाहिए | इसी को त्याग कहते हैं | 
कर्म का स्वरूप से ही त्याग करने को " संन्यास " कहते हैं | जैसे निषिद्ध कर्मों का , आसुरी सम्पति का , आसक्ति आदि का त्याग ही करना चाहिए | जैसे सिर काटने पर , शरीर का भी नाश हो जाता है , वैसे ही कर्म - फल का त्याग करने से कर्मों का नाश हो जाता है | त्रि - कर्मों [ संचित , प्रारब्ध , व क्रिय- मानं ] के नाश होते ही " आत्म- ज्ञान " प्राप्त होता है |
|| इत्ती ||

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