शनिवार, 5 मई 2012

नवीन नवधा भक्ति

|| नवीन नवधा भक्ति ||
[ १ ] सत्संग --भगवद्भक्तों के दर्शन , चिंतन , स्पर्श तथा उनके वचन सुनने से अति हर्षित होना | [ २ ] कीर्तन -- प्रेम में मग्न होकर हर समय भगवन्नाम का स्मरण तथा प्रेम और प्रभाव के सहित भगवान के गुणों का कथन | [ ३ ] स्मरण -- सारे संसार में भगवान के स्वरूप का चिंतन | [ ४ ] शुभेच्छा -- भगवान के दर्शन की और उनमें प्रेम होने की उत्कट इच्छा | [ ५ ] संतोष -- जो कुछ आकर प्राप्त हो उसको भगवत - आज्ञा से हुआ मानकर आनंद से पतिव्रता स्त्री की भाँती स्वीकार करना | [ ६ ] सेवा -- सब जीवों को परमेश्वर का स्वरूप समझकर निष्काम - भाव से उनकी सेवा और सत्कार करना | [ ७ ] निष्काम कर्म -- शास्त्रोक्त निष्कामभाव से सब कर्मों में ईश्वर के अनुकूल बरतना अर्थात जिससे परमेश्वर प्रसन्न होवें , वही कर्म करना | [ ८ ] उपरामता -- संसार के भोगों से चित्त को हटाना | [ ९ ] सदाचार -- ईश्वर में प्रेम होने के लिए अहिंसा सत्य आदि का पालन करना |
नारदभक्तिसूत्र में कहा है - ईश्वर में परम अनुराग ही भक्ति है | भक्ति मुख्यतया दो प्रकार की मानी गई है -- वैधाभक्ति और पराभक्ति | वैधाभक्ति का फल है पराभक्ति | भागवत में नौ तरह की भक्ति बताई गई है - भगवान के गुण - लीला - नाम आदि का श्रवण , उन्हीं का कीर्तन , उनके नाम - रूप आदि का स्मरण , उनके चरणों की सेवा , पूजा , अर्चन , वन्दन , दास्य , सख्य और आत्मनिवेदन | इस नौ प्रकार की भक्ति का फल प्रेमलक्षणा भक्ति है | प्रेम ही भक्ति की अंतिम अवस्था है | भगवान ने गीता [ ११ / ५४ - ५५ ; १० / ९ - ११ ] में भक्ति के लक्षण बताए हैं |
यह नवधा भक्ति संक्षेप से बताई गई है | इनके फलस्वरूप प्रेमलक्षणा भक्ति प्रकट होती है | उस समय भक्त न तो किसी से डरता है , न मनमें दूसरी इच्छा रहती है | " न लाज तीन लोक की न वेद को कह्यो करे | न संक भूत प्रेतकी न देव यक्ष से डरे || सुने न कान औरकी द्रसे न और इच्छना | कहे न मुख और बात प्रेम भक्ति लक्षणा ||" यह प्रेमलक्षणा भक्ति के लक्षण हैं | यह भक्ति प्रकट होने से भगवान बड़े प्रेम से मिलते हैं | परमात्मा की भाँती ही प्रेम का स्वरूप भी अनिर्वचनीय है | प्रेम साधन भी है और साधनों का फल [ साध्य ] भी | गूंगे के स्वाद की तरह वह [ प्रेम ] वाणी का विषय नहीं होता |
प्रेम का वास्तविक महत्त्व कोई परमात्मा का अनन्यप्रेमी ही जानता है | प्रेमियों का प्रेम और ज्ञानियों का आनंद सब जगह है | प्रेम ही आनंद है और आनंद ही प्रेम है | भगवान सगुण - साकार की उपासना करनेवालों के लिए प्रेममय बन जाते हैं और निर्गुण - निराकार की उपासना करनेवालों के लिए आनंदमय बन जाते हैं | प्रेमियों का मिलन भी बड़ा ही विलक्षण - अत्यंत अलौकिक होता है | यहाँ अद्वेत होते हुए भी द्वेत है और द्वेत होते हुए भी अद्वेत है | जैसे दोनों हाथ परस्पर मिलकर सटकर एक हो जाते हैं , उस समय ये दो होते हुए भी एक हैं और एक होते हुए भी दो हैं | वैसे ही यहाँ न भेद है और न अभेद | प्रेम में प्रेमी और प्रेमास्पद का नित्य ऐक्य - शास्वत संयोग बना रहता है | प्रेम , प्रेमी और प्रेमास्पद में भेद नहीं रहता | भक्ति , भक्त और भगवान - सब एक हो जाते हैं |
|| इत्ती ||

1 टिप्पणी:

  1. धर्म अगर मनके आधार पर हि तारण निकाला जाता रहा तो बबालतो होतेही रहना है। घर्म का तत्व सिर्फ ईतना के बुद्धि को दाता राम याने अपने प्राण जो शरीरके ऊपरी भागमें काम करते है जिसका हर समय हर पल ध्यान और प्राणायाम सतत करते रहना जो बाकिके चार वायुको सुध्ध करदेता है आपने एक कहावततो सुनी होगीहि पारश लोखंदकोभी सोना बना देता है वह पारश प्राणहै और बाकीके चारवायु उदान अपान समान और व्यान लोखंदको सोना बना देता है। एक इन्सान इन प्राणों को पकडकर ध्यानसे आत्मा की प्राप्ति करता है और आत्मज्ञानी बनता है भगवान ऐसे प्राणवान आत्मज्ञानी पुरुष केहि बारेमे कहते है ज्ञानी मेरा आत्मा है न कहि आता है न कही जाता है बस मुजमें आत्मविश्वास रखता है और अच्छे कार्योमेही अपना योगदान देता है।

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