शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

ब्रहामी --- सिथति के लक्षण


‎|| ब्रहामी --- सिथति के लक्षण ||
ब्र्हामी - सिथति का साधक अपने भीतर और बाहर ब्रह्म का पुन्य - प्रकाश प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करता है | उसे स्पष्ट प्रतीत होता है की वह ब्रह्म की गोद में किलोल कर रहा है , ब्रह्म 
के अमृत - सिंधु में आनंद - मग्न हो रहा है | इस दशा में पहुंच कर वह जीवन - मुक्त हो जाता है | जो प्रारब्ध बन चुके हैं , उन कर्मों का लेखा -जोखा पूरा करने के लिए वह जीवित 
रहता है | जब वह हिसाब बराबर हो जाता है तो पूर्ण - शान्ति और पूर्ण ब्राह्मी - सिथती में जीवन -लीला समाप्त हो जाती है | फिर उसे संसार में लौटना नहीं पडता [ श्लोक८ /२१ ; १५ /६ ] | प्रारब्धों को पूरा करने के लिए वह शरीर धारण किये रहता है | सादा जीवन बिताते हुवे भी उसकी आत्मिक -सिथति बहुत ऊँची रहती है |
ब्रह्म -दीक्षा में शिष्य गुरु को अपना सब कुछ समर्पण [ आत्म - समर्पण ] करता है | गुरु उस सबको अमानत के तौर पर शिष्य को लौटा देता है | व आदेश देता है की इन सबका 
उपयोग गुरु की वस्तु समझकर करो | इस आत्मदान का मूल्य इतना भारी है की उसकी तुलना और किसी त्याग या पुन्य से नहीं हो सकती | 
नित्य सवा - मन सोने का दान करने वाले करण के पास भी , दान के बाद कुछ ना कुछ अपना रह जाता था | जिस दानी ने अपना कुछ छोड़ा ही नहीं ,उसकी तुलना किसी दानी से 
नहीं हो सकती | जब अपना कुछ रहा ही नहीं तो " मेरा क्या " ? अहंकार किस बात का ? जब सब वस्तुओं के स्वामी गुरु या परमात्मा ही हैं तो स्वार्थ कैसा ? इस प्रकार वस्तुत:
अहंकार का ही दान होता है | इसके द्वारा साधक सहज ही सब बंधनों से मुक्त हो जाता है | जैसे भरतजी , राम को राज्य का अधिकारी मानकर ,उनकी खडाऊ सिंघासन पर रखकर ,राज -काज चलाते रहे ,वैसे ही आत्म -दानी अपनी वस्तुओं का समर्पण करके उनके मेनेजर के रूप में स्वयम काम करता रहता है |
वर्तमान समय में गुरु - शिष्य का जोडा " लोभी गुरु , लालची चेला ; दोनों नर्क में ठेलम - ठेला " का उदाहरण बनते हैं | अत: इस क्षेत्र में अत्यंत सावधानी की आवश्यकता है |

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