बुधवार, 28 दिसंबर 2011

भक्तों के अधीन भगवान


‎|| भक्तों के अधीन भगवान ||
भगवान गीता [ श्लोक १० / ८ ,९ ,१० ,११ ] में बताते हैं की जैसे तरंगों का जन्म जल में ही होता है ,उनका आश्रय तथा जीवन भी जल ही होता है |वैसे ही इस विश्व में मेरे शिवाय कुछ नहीं है | ऐसा जानकार जो मेरा भजन सची उत्कंठा व प्रेम पूर्वक करते हैं ,वे आत्मज्ञानी संसार में ,मेरे जगत -रूप को मन में धरकर ,सबको मेरा ही स्वरूप मानते हैं | इस प्रकार सर्वत्र भगवद -रूप मानना ही मेरा भक्ति -योग है | वे चित से मेरा स्वरूप हो जाते हैं , मुझ से ही उनके प्राण संतुष्ट रहते हैं , ज्ञान के कारण परस्पर संवाद -सुख के संतोष से नाचते हैं | ज्ञान का ही लेन -देन करते हैं | वे मेरी प्राप्ति के तृप्ति -सूचक उद्गारों से गरजने लगते हैं | विश्व में मेरा वर्णनं करते हैं |मेरी कथा में खो जाते हैं व मेरे में ही रमण करते हैं | खेलते हुये बालक के पीछे -पीछे जैसे उसकी माता दोड़ती है वैसे ही में भक्ति के मार्ग का पोषण करता रहता हूँ |


जिस मार्ग से वे मुझे सुख से प्राप्त कर ले ,वही मार्ग पोषण करना मुझे अच्छा लगता है | हमने स्वर्ग ,मोक्ष उत्पन्न किये , तथा ये दोनों उनके अधीन कर दिए | और बदले में लक्ष्मी सहित हमने अपना शरीर भी उन्हें समर्पित कर दिया | यहाँ तक की हम निज का परित्याग कर भक्त को अंगीकार करते हैं |


उनका शुद्ध तत्व -ज्ञान मानों कपूर की मशाल बन जाता है ,और मैं मशालची बनकर उनके आगे चलता हूँ , और अज्ञान की रात में जो अँधेरा घिर आता है ,उसको हटाकर नित्य प्रकाश कर देता हूँ | इसे ही भक्त का ' आत्म - साक्षात्कार " कहते हें | भगवान की कृपा से भक्त इसे सहज में ही पा लेता है |


भगवान कहते हैं , भक्तों को मुझ से प्रेम है ,और मुझे उनके " अनन्य - भाव " की इच्छा है , क्योंकि मेरे घर में प्रेमियों का अकाल है | अत: भक्ति में नित्य ,निरंतर , निष्काम ,अनन्यता और श्रधा - युक्त प्रेम की आवश्यकता है |

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