रविवार, 29 जनवरी 2012

पापी दुराचारी को भी शरणागति से परमपद की प्राप्ति


‎|| पापी दुराचारी को भी शरणागति से परमपद की प्राप्ति ||
भगवान गीता [ श्लोक ९ / ३२ ] में कहते हैं " अजी जिनका नाम लेना भी अनुचित है , जो सब अधमों में अधम हैं , उन पापयोनियों में भी जिनका जन्म हुआ हो , जो मूढ़ चाहे पत्थर जैसे मूर्ख हों , परन्तु मुझमें सर्वभावों से दृढ हों , जिनकी वाचा से मेरे गुणानुवाद निकलते हों , जिनकी दृष्टि मेरा ही रूप भोगती हो , जिनका मन मेरा ही संकल्प धारण करता हो , जिनके श्रवण मेरी कीर्ति से रीते न रहते हों , मेरी सेवा ही जिनके सर्वान्गों का अलंकार है , जिनका ज्ञान विषयों को नहीं जानता , जिनका ज्ञान केवल मुझ एक को ही जानता हो , जो इस प्रकार का लाभ हो तो ही जीवन समझते हैं अन्यथा मरण ; हे पांडव ! जो सब प्रकार से अपने सब भाव सजीव रखने के हेतु मुझको ही जीवन समझते हों , वे चाहे पापयोनी [ पूर्व -जन्म के पापी ] भी हों , चाहे वेद पढे हुए न हों , परन्तु मुझसे तुलना करते हुए उनकी योग्यता में कुछ न्यूनता नहीं रहती | देखो , भक्ति की सम्पन्नता से दैत्यों ने देवों को हीनता में दाल दिया है | जिसकी महिमा के लिए मैंने नृसिंहरूप धारण किया , उस प्रहलाद की मुझ से तुलना की जाय , तो वही श्रेष्ठ दिखाई देता है क्योंकि जो वस्तुवें मैं उसे देना चाहूँ वे सब उसे उपलब्ध थी | यों तो दैत्य का कुल था , परन्तु उसकी श्रेष्ठता की बराबरी इन्द्र भी नहीं कर सकता |अतएव इस विषय में अकेली भक्ति ही शोभा देती है , और जाती अप्रमान है | 
उत्तमता तभी फलती है , सर्वज्ञता तभी शोभती है जब मन और बुद्धि मेरे प्रेम से भर जाती है | अतएव कुल , जाती और वर्ण सब वृथा है | हे अर्जुन ! संसार में मेरी भक्ति से ही कृतार्थता होती है | चाहे जिस भाव से हो , परन्तु मन का प्रवेश मुझमें होना चाहिए ; और यदि यह बात हो जाय तो पिछले कर्म सब वृथा हो जाते हैं | जैसे छोटे - छोटे नाले तभी तक नाले कहलाते हैं जब तक वे गंगा के जल तक नहीं पहुंचते ; वहाँ पहुंचते ही वे केवल गंगारूप हो जाते हैं | पर जब वे प्रेम से मुझमें मिल जाती हैं तब जाती और व्यक्ति का कुछ भी निशान नहीं बच रहता मानों लवण के कन समुद्र में मिला दिए गए हों | अलग - अलग नदियों के नाम तथा उनका पूर्व और पश्चिम से बहना तभी तक है , जब तक वे सब समुद्र में नहीं मिल जाती | वैसे ही किसी भी बहाने से चित्त यदि मुझमें प्रवेश कर ले , तो उतने से ही वह अपने आप मद्रूप हो जाता है | अजी पारस फोड़ने के लिए भी , यदि लोहे का पारस से स्पर्श कराया जाय , तो स्पर्श करते ही वह सोना हो जाएगा | देखो पती के बहाने से वृजपत्नियों के अंत:करन मुझ से मिलते ही क्या मतस्वरूप नहीं हो गए ? अथवा भय के बहाने क्या कंस ने , अथवा निरंतर वैर के बहाने से क्या शिशुपाल आदि ने मुझे प्राप्त नहीं कर लिया ? हे पांडव ! सगोत्र होने के कारण ही यादवों को , और ममता के कारण वसुदेव आदि को मेरा सायुज्य प्राप्त हुआ है | नारद , ध्रुव , अक्रूर , शुक और सनतकुमारों को जैसे मैं भक्ति से प्राप्त हूँ वैसे ही गोपिकाओं को विषयबुद्धि से , कंस को भय से , और शिशुपाल आदि घातको को उनके अलग - अलग मनोधर्मों से प्राप्त हूँ | अजी मैं एक निदान का स्थान हूँ , मेरी प्राप्ति चाहे जिस मार्ग से हो सकती है ; भक्ति से , अथवा विषयों की विरक्ति से अथवा वैर से | 
अतएव हे पार्थ ! मुझमें प्रवेश करने के लिए संसार में साधनों की कमी नहीं है | और चाहे जिस जाती में जन्म हो , और भक्ति हो अथवा विरोध हो , परन्तु भक्त अथवा वैरी मेरा ही हो | अजी , किसी भी प्रकार से यदि मेरी भक्ति हो तो वास्तव में मद्रूपता का ही लाभ होता है |
|| इत्ती ||

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