शनिवार, 5 मई 2012

अद्वेत - ज्ञान के साथ भक्ति भी अवश्य रहती है

|| अद्वेत - ज्ञान के साथ भक्ति भी अवश्य रहती है ||
ज्ञानेश्वरी ग्रन्थावलोकन से ज्ञात होगा की उनहोंने इस ग्रन्थ में प्राय: श्रीशंकराचार्य के मत को ही माना है | परन्तु अद्वेत मत के साथ वे भक्ति का भी प्रतिपादन करते हैं | यही उनमें विशेषता है | श्लोक [ १८ / ५५ ] में स्पष्ट कहा है की चन्दन के संग जैसे सुगंध रहती है , चन्द्रमा के संग जैसे चांदनी रहती है , वैसे ही अद्वेत - ज्ञान के संग भक्ति भी अवश्य रहती है | गीता [ श्लोक ७ / १६ - १७ ] में कहा है की चार प्रकार के भक्तों में भगवान को ' ज्ञानी - भक्त ' ही सबसे अधिक प्रिय है | ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं की ज्ञानी भक्त शरीर और कर्म के वश भक्त प्रतीत होता है परन्तु उसे आत्मानुभव होने के कारण वह केवल ' ब्रह्म रूप ' ही है |
प्रश्न है की जब ज्ञान से मोक्ष प्राप्त होता है तो फिर भक्ति की क्या आवश्यकता है ? परन्तु श्रुति का सिद्धांत यही है की भक्ति के बिना अखंड परमानंद की प्राप्ति नहीं होती | ' यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ | तस्यैते कथिता ह्यर्था: प्रकाशन्ते महात्मन: ||' इस श्रुति का भी अर्थ यही है | ज्ञान से सच्चिदानंद - स्वरूप की सत्ता और चिता की प्रतीति होती है पर आनंदवत्ता के लिए भक्ति की ही आवश्यकता है | इसी प्रकार यद्यपि यह सत्य है की ज्ञान से मोक्ष [ मुक्ति ] होती है , तथापि केवल ज्ञान से उपाधि का नाश नहीं होता | अतएव उपाधि के नाश [ अंत:करण की शुद्धि ] के लिए भी भक्ति की आवश्यकता है | श्रवण , मनन और निदिध्यासन से ज्ञान स्थिर होता है , और निदिध्यासन योग की रीति से ही सिद्ध होता है परन्तु योग में भी समाधि के व्युत्थान का संभव है | अत: संतत समाधि - सुख का अनुभव लेने के लिए भक्ति आवश्यक है |
भक्ति का स्वरूप शुद्धप्रेम है | नारदजी ने कहा है ' आत्मस्वरूप में परमप्रेम का नाम भक्ति है ' तथा प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय कहा है | ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं की ईश्वर की सहज स्थिति का ही नाम भक्ति है | जिस अखंड प्रकाश से विश्व की स्थिति या अस्थिति है , जिस प्रकाश से आंतरिक वासनानुसार जगत की प्रतीति होती है उसे भक्ति कहते हैं | एवं चाँद से जैसे चांदनी भिन्न नहीं है वैसे ही भक्ति भी ब्रह्मस्वरूप से भिन्न नहीं है , तथा चांदनी जैसे भिन्न - सी जान पडती है वैसे ही भक्ति भी भिन्न - सी समझनी चाहिए |
भगवान गीता [ ६ / १० ] में कहते हैं " द्वेत का जो निशान मिटा देती है वह ब्रह्मविद्या यदि व्यक्त कर दी जाय तो हे अर्जुन ! प्रेम का माधुर्य चला जाएगा | इसीलिए हमने वैसा वर्णन नहीं किया | हमने प्रेम का भोग लेने के लिए एक पतले से पर्दे की आड रखकर , मन को अलग सा कर दिया | जो सोहम - भाव में अटके हुए हैं , जो मोक्ष - सुख के लिए दीन हो रहे हैं उनकी दृष्टि का कलंक अपने जैसे भक्त के प्रेम को न लगने दो | कदाचित भक्त का अहंभाव चला जाय और वह मद्रुप हो जाय तो फिर मैं अकेला क्या करूँगा ? फिर ऐसा कौन रहेगा की जिसे देखकर हमारी दृष्टि मिले , अथवा जिससे हम मनमाना वार्तालाप कर सकें , अथवा जिसे दृढ आलिंगन दे सकें ? यदि हमारा ऐक्य हो जाय तो अपने हृदय की उत्तम और मन में न समानेवाली बातें हम किनसे कहेंगे ?
भक्ति मुख्यतया तीन प्रकार की कही गई है : - [ १ ] तस्यैवाहम , अर्थात हनुमानजी के समान निज को ईश्वर का दास आदि समझना ; [ २ ] ममेवान्शो , अर्थात यशोदा आदि के समान ईश्वर में वात्सल्य भाव रखना ; और [ ३ ] स ऐवाहम , अर्थात गोपियों के समान ईश्वर से एक हो जाना | आत्म - प्रेम सबसे अधिक होता है | उसी आत्मस्वरूपि परमात्मा में अनिर्वचनीय प्रेम का नाम ही अत्यंत श्रेष्ठ भक्ति है | गीता [ श्लोक १८ / ५५ ] में इसी भक्ति का वर्णन है |
|| इत्ती ||

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