सोमवार, 9 जनवरी 2012

संतोष का महत्व


‎|| संतोष का महत्व ||
भगवान गीता [ श्लोक १२ /१४ ; १२ /१९ ] में बताते हैं की जो भक्त निरंतर संतुष्ट हैं , जिनका मन ,इन्द्रियों पर नियंत्रण है , मुझ में पका निश्चय वाला है ,वह मुझ में अर्पण किये हूवे मन, बुद्ही वाला भक्त मुझे प्रिय है | वह समता - युक्त भक्त जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है , वह भक्ति - मान , प्रज्ञावान भक्त मुझे प्रिय है | यहाँ भगवान नित्य , निरंतर संतुष्टि की आवश्यकता बता रहे हैं | क्योकि त्रिस्न्ना के रहते मनुष्य सिथिर - बुद्धि नहीं रह सकता | संत सुन्दरदासजी ने कहा है:- " जो दस , बीस , पचास भये शत , होई हजार तो लाख मांगेगी | करोड , अरब , खरब , असंख्य भये , महिपति होने की चाह जगेगी | स्वर्ग ,पाताल को राज मिले ,त्रिसना अधिकी अति आग लगेगी | सुन्दर एक संतोष बिना सठ ,तेरी तो भूख कभी न भगेगी " |
गीता [ श्लोक १२ /२० ] में भगवान कहते हैं ,ऐसे संतोषी ,ज्ञानी भक्त को मैं अपने शिर पर धरता हूँ क्योंकी वह मोक्ष का अधिकारी होने पर भी भक्ति -मार्ग में प्रवेश कर रहा है | इसलिए हम उसे नमस्कार करते हैं , अपने माथे का मुकुट बनाते हैं और उसका चरण अपने हृदय [ भृगु - लता ] में रखते हैं | उसके दर्शन करने के लिए ही मैंने आँखों को स्वीकार किया है |
मेरे हाथ के कमलों से उसकी पूजा करता हूँ | उसके शरीर के आलंगन हेतु , मेरे दो हाथों पर और भी दो हाथ लगा आया हूँ | उसके सत्संग - सुख के लिए ही मैं देह धारण करता हूँ | वह मेरा प्रेमी है | जो उसका चरित्र सुनते हैं वे भी ,और जो भक्त - चरित्र की प्रसंशा करते हैं वे भी हमें प्रान्नों से प्यारे होते हैं | यह बात सत्य है | इसे ही भक्ति -योग कहते हैं | जो मुझे अत्यंत श्रेष्ट मानकर मेरी भक्ति को स्वीकार करता है वही इस संसार में भक्त है , वही योगी है ,और मुझे नित्य उन्हींकी उत्कंठा लगी रहती है | हम उनका ध्यान करते हैं | वही हमारी देव -पूजा है | उनके मिलने पर हमें खुशी होती है | 
|| इत्ती ||

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