सोमवार, 2 जनवरी 2012

भक्त वत्सल भगवान


‎|| भक्त वत्सल भगवान ||
भगवान अपने अनन्य भक्तों का योगक्षेम स्वयम वहन करते हैं [ श्लोक ९ / २२ ] | वे सिद्ध भक्तों का संसार समुद्र से उद्धार करने स्वयम आते हैं | कहाँ तक कहा जाए , भगवान स्वयम अपने भक्तों के अधीन रहते हैं | भक्तराज अम्बरीश पर क्रोध करनेवाले महरषी दुर्वासा सुदर्शनचक्र के डर से भागते - भागते जब वैकुण्ठलोक में श्रीहरी के पास पहुंचे , तब भगवान ने उनसे कहा - " हे द्विज ! मैं परतंत्र के समान भक्तों के अधीन हूँ | उन साधू भक्तों ने मेरे हृदय पर अधिकार कर लिया है | मैं भी उनका सर्वदा प्रिय हूँ | हे विप्रवर ! जिनका मैं ही एकमात्र आश्रय हूँ , अपने उन साधूस्वभाव भक्तों को छोड़कर तो मैं अपने आत्मा की और अपनी अर्धांगिनी विनाशरहिता लक्ष्मी की भी परवाह नहीं करता | जो अपने स्त्री , पुत्र , गृह , प्राण , धन और इहलोक तथा परलोक को छोड़कर मेरी ही शरण में आ गए हैं , उन भक्तजनों को मैं छोड़ने का विचार भी कैसे कर सकता हूँ ? जैसे पतिव्रता स्त्रियाँ अपने सदाचारी पती को वश में कर लेती है , वैसे ही अपने हृदय को मुझमें प्रेम- बंधन से बाँध रखनेवाले वे समदर्शी साधू पुरुष भक्ति के द्वारा मुझे अपने वश में कर लेते हैं | संत मेरे हृदय हैं और मैं संतों का हृदय हूँ | वे मेरे शिवाय और किसीको नहीं जानते और मैं उनके शिवाय कुछ भी नहीं जानता |" 
भगवान प्रेम के कारण भक्तों के पीछे - पीछे घूमा करते हैं | उनके सुख - दू:ख में अपना सुख - दू:ख मानते हैं | उनके लिए अपने आन - बान और स्वयम श्रीलक्ष्मीजी तक की चिंता नहीं करते | भक्तवर भीष्म की प्रतिज्ञा की रक्षा करने के लिए अपनी शस्त्र ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा को भंग कर देते हैं | तथा अर्जुन के साथ तो उन्होंने क्या - क्या नहीं किया ? उनके सारथि तक बने और जयद्रथ का वध कराने के लिए दुर्योधन के साथ माया का व्यवहार भी किया | भले ही उनको कोई बुरा कहले ; पर भक्त के प्राण - प्रण की रक्षा होनी चाहिए | भक्तों की मान - मर्यादा और सुख - दू:ख को अपना समझने का तो उन्होंने मानो अटल व्रत ही ले रखा है | ऐसे महामहिम , भाग्यवान और भगवतस्वरूप भक्तों के स्मरण - ध्यानमात्र से ही पाप - राशि भस्म हो जाय , मुक्ति दासी की तरह पीछे - पीछे घूमे और प्रभू के चरणों में अचल मती , रति और गति प्राप्त हो जाय तो कौनसा आश्चर्य है ? 
भगवान की तरह महापुरुषों के ध्यान से भी कल्याण हो सकता है | उनके स्वरूप का ध्यान करने से उनके भाव , गुण और चरित्र हृदय में आ जाते हैं , उनका स्वरूप चित्त में अंकित हो जाता है और जैसे प्रकाश के आते ही अन्धकार मिट जाता है , वैसे ही भक्तों के चरित्र - गुण आदि की स्मृति अंत:कर्ण में आते ही समस्त पापों को नष्ट कर देती है | संतों के संगमात्र से ही , उनके दर्शन से ही उद्धार हो जाता है | भक्तिसूत्रों में देवरिषि नारदजी कहते हैं - " माया से कौन तरता है ? जो आसक्ति का त्याग करता है , जो महापुरुषों का सेवन करता है और जो ममतारहित होता है |" संतों की सेवा करना सबके लिए साध्य है | 
|| इत्ती ||

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