शुक्रवार, 6 जनवरी 2012

पारमार्थिक दृष्टि से मनुष्यों की श्रेणियाँ


‎|| पारमार्थिक दृष्टि से मनुष्यों की श्रेणियाँ ||
भगवान ने गीता [ श्लोक ४ / ४० ] में कहा है " विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है | ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है , न परलोक है और न सुख ही है |" भगवान के उपर्युक्त वचन से ऐसा प्रतीत होता है की विवेक एवं श्रद्धा से रहित संशयी पुरुष ही परमार्थ के मार्ग में सबसे नीचे है ; क्योंकि वे परमार्थ के मार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं , उस पर चल ही नहीं पाते | जो मार्ग पर ही नहीं है , उनके लक्ष्य स्थान तक पहुंचने की तो संभावना ही कैसे हो सकती है ? ऐसे पुरुषों के लिए भगवान ने यहाँ तक कह दिया है की उनकी इस लोक में भी उन्नति नहीं होती , फिर परलोक की तो बात ही क्या है ; और वे सब प्रकार के सुखों से वंचित रहते हैं | जिसको भी मनुष्य - शरीर मिला है , वह भगवत- प्राप्ति के योग्य है और साधन करके इसी जीवन में परमात्मा को प्राप्त कर सकता है | इस दृष्टि से मनुष्य से लेकर , भगवान तक १८ श्रेणियाँ मानी गई है , जो इस प्रकार है : - [ १ ] धर्मध्वजी [ २ ] ईश्वरविरोधी नास्तिक [ ३ ] पापी [ ४ ] संशय युक्त मनुष्य [ ५ ] सकामकर्मी [ ६ ] लौकिक सिद्धियाँ प्राप्त किये हुए योगी [ ७ ] अर्थार्थी भक्त [ ८ ] आर्त्त भक्त [ ९ ] काम क्रोध आदि शत्रुओं पर विजय पाने के लिए भगवान को भजने वाले आर्त्त भक्त [ १० ] जिज्ञासु भक्त [ ११ ] प्रेमी भक्त [ १२ ] केवल अपना कर्तव्य मानकर ही भगवान से प्रेम करने वाले निष्कामी भक्त [ १३ ] भगवतप्राप्त महापुरुष [ १४ ] विशेष अधिकार प्राप्त किये हुए महापुरुष [ १५ ] पूर्ण अधिकार प्राप्त महापुरुष [ १६ ] कारक महापुरुष [ १७ ] भगवान के सदा समीप रहने वाले उनके लीला - परिकर [ १८ ] स्वयम भगवान |
ये सब श्रेणियाँ उन जिज्ञासुओं के लिए कही गई हैं , जो इन्हें पढ़ - सुनकर श्रेय - मार्ग पर ही आरूढ़ होने के लिए प्रयत्न करना चाहते हैं | श्रीमदभागवत में भगवान ने अपने मुख से , निष्कामी भक्त के लिए कहा है " मुझे आत्मसमर्पण कर देने वाला भक्त मुझे छोड़कर अन्य किसी वस्तु को नहीं चाहता - उसे न तो ब्रह्मा का पद चाहिए , न इन्द्रासन ; उसे न तो चक्रवर्ती सम्राट बनने की इच्छा होती है और न वह रसातल का ही स्वामी बनना चाहता है | और तो क्या , वह योग की बड़ी - बड़ी सिद्धियों तथा मोक्ष तक की अभिलाषा नहीं करता |" 

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