सोमवार, 23 जनवरी 2012

आत्मसमर्पण ही सर्वोपरी भक्ति


‎|| आत्मसमर्पण ही सर्वोपरी भक्ति ||
भगवान [ श्लोक ९ / २५ ] अपनी भक्ति का महत्व बताते हुए कहते हैं ' जो मन , वचन औए इन्द्रियों से देवों के ही निमित्त भजन करते हैं वे शरीर छोड़ने के साथ ही देवरूप हो जाते हैं | अथवा जिनके चित्त पितरों के व्रत धारण करते हैं उन्हें जीवन समाप्त होते ही पितृत्व प्राप्त होता है | अथवा क्षुद्र देवता इत्यादि भूत ही जिनके परम देव हैं , जो जारण - मारनकर्मों से उनकी भक्ति करते हैं , उन्हें देहरुपी जवनिका हटते ही भूतत्व की प्राप्ति होती है एवं उनके संकल्पानुसार ही उनके कर्म उन्हें फल देते हैं | परन्तु जो नेत्रों से मुझे ही देखते हैं , कानों से मुझे ही सुनते हैं ; मन में मेरा ही चिंतन करते हैं , वाचा से मेरा ही वर्णन करते हैं , जो सर्वांग से सर्वत्र मुझे ही नमस्कार करते हैं , दान - पुण्य इत्यादि जो कुछ करते हैं वह मेरे ही उद्देश्य से , जो मेरा ही अध्ययन करते हैं , जो अंतर - बाह्य मुझसे ही तृप्त हुए हैं , जिनका जीवन मेरे ही हेतु है , जो ऐसा अभिमान रखते हैं की हम हरी के गुणानुवाद वर्णन करने के लिए जन्मे हैं , जो एक मेरे ही लोभ के कारण जगत में लोभी बने हैं , जो मेरी इच्छा से ही सकाम है , मेरे प्रेम से सप्रेम हैं , और मेरे ही भ्रम से सभ्रम हो जगत की ओर नहीं देखते , जो शास्त्रों से मेरे ही ज्ञान का उपार्जन करते हैं , जो मंत्रों से मेरी ही प्राप्ति करते हैं , इस प्रकार जो संपूर्ण क्रियाओं से मेरा भजन करते हैं , वे वास्तव में मृत्यु के इस पार मुझमें मिल जाते हैं , तो फिर मृत्यु होने पर और दूसरी ओर कैसे जायेंगे ? 
अतैव जो मेरा यजन करनेवाले हैं , जिन्होंने सेवा के बहाने से निज को मुझे ही समर्पित कर दिया है , उनकी मुझसे ही एकता हो जाती है | हे अर्जुन ! आत्मसमर्पण किये बिना मेरे लिए प्रेम नहीं उत्पन्न होता | मैं किसी उपचार से वश नहीं होता | इस विषय में जो निज को ग्यानी समझता है वही अज्ञानी है , जो बडप्पन बधारता है वह उसकी न्यूनता है , और जो निज को कृतार्थ हुआ कहता है उसे कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ रहता | अथवा हे किरीटी ! यज्ञ , दान इत्यादि अथवा तप की जो प्रतिष्ठा है वह आत्मसमर्पण के सामने एक त्रिन की भी बराबरी नहीं रखती | देखो , ज्ञानबल में क्या कोई वेदों से श्रेष्ठ है ? अथवा क्या कोई शेष से भी बड़ा वक्ता है ? परन्तु वह भी मेरी शय्या के नीचे दब रहता है | और वेद तो नेति - नेति कह कर हट जाते हैं | इस विषय में सनकादिक भी पागल बन गए हैं | तपस्वियों का विचार कीजिये तो शंकर के समान कौन है परन्तु वे भी अभिमान छोड़ कर मेरा चरणतीर्थ माथे पर धरते हैं | अथवा सम्पन्नता में लक्ष्मी के समान कौन है जिसके घर में श्री जैसी दासियाँ हैं ? वे खेल में जो घरोंदे बनाती हैं उन्हें अमरपुर कहा जा सकता है तथा क्या सचमुच में इन्द्र इत्यादि देवता उनकी गुडिया नहीं हैं ? जब वे अप्रसन्न हो उन घरोंदों को तोड़ डालती हैं तब महेंद्र के रंक हो जाते हैं | वे जिस वृक्ष की ओर देखने लगती हैं वही कल्पवृक्ष बन जाता है | जिसके घरकी दासियों की ऐसी सामर्थ्य है उस मुख्य नायिका लक्ष्मी की भी यहाँ कुछ प्रतिष्ठा नहीं | हे पांडव ! वह तो सब भावों से सेवा करके अभिमान को छोड़ , पाँव पखारने की अधिकारिणी हुई है | इसलिए प्रतिष्ठा दूर छोड़ देनी चाहिए और विद्वता संपूर्ण भूल जानी चाहिए | जगत में सब अल्पत्व प्राप्त हो तभी मेरे सानिध्य का लाभ होता है | 
अजी सूर्य की द्रष्टि के सम्मुख चन्द्र का भी लोप हो जाता है , तो फिर खद्द्योत भला अपने प्रकाश से क्या प्रतिष्ठा पा सकता है ? वैसे ही जहां लक्ष्मी की भी प्रतिष्ठा नहीं चलती , जहां शंकर का तप भी पूरा नहीं पड़ता , वहाँ अन्य प्राकृत अज्ञानी जन मुझे कैसे जान सकते हैं ? इसलिए शरीर का अभिमान छोडना चाहिए | मुझ पर से सब गुणों का राई - नॉन उतार कर संपत्ति के अभिमान को भी निछावर कर देना चाहिए | 
|| इत्ती ||

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