सोमवार, 23 जनवरी 2012

अनन्यभक्ति से मुक्ति / प्रेम की प्राप्ति


‎|| अनन्यभक्ति से मुक्ति / प्रेम की प्राप्ति ||
भगवान गीता [ ९ / २१ - २२ ] में कहते हैं " जो मुझे भूलकर पुण्य के द्वारा स्वर्ग की इच्छा करते हैं उनका अमरत्व वृथा हो जाता है और अंत में उन्हें मृत्युलोक ही प्राप्त होता है | फिर वे माता की उदररुपी गुहा में विष्ठा की ऊभ में पककर तथा नौ मॉस तक उबलकर जन्म - जन्म कर मरते हैं | अजी , स्वप्न में द्रव्य हाथ आता है परन्तु जागृत होते ही सब लुप्त हो जाता है , वैसे ही इन यज्ञ - कर्ताओं का स्वर्ग - सुख समझना चाहिए | हे अर्जुन ! वेदयज्ञ भी हो तथापि मुझे न जानने से ऐसे वृथा हो जाता है जैसे कोई धान को छोड़ भूसा ही उड़ाता रहे | यों एक मेरे बिना ये वेदोक्त धर्म निष्फल हैं | इसलिए तुम और चाहे कुछ भी न जानो पर मुझे जानलो | इसीसे तुम सुखी होगे | 
जो संपूर्ण मनोभावों से मुझे चित्त अर्पण करते हैं , जैसे गर्भ का गोला कोई भी व्यापार नहीं जानता वैसे ही जिन्हें मेरे बिना और कुछ भला नहीं दिखाई देता , और जिन्होंने अपने जीवन को मद्रूप ही कर लिया है , ऐसे जो एकनिष्ट चित्त से मेरा चिंतन करते हुए मेरी भक्ति करते हैं उनकी मैं भी सेवा करता हूँ | वे जिस समय एकाग्र चित्त से मेरे भजन में लगते हैं उसी समय मुझे भी उनकी चिंता उत्पन्न होती है | उनका जो - जो कार्य हो वह सब मुझे ही करना पड़ता है | जैसे पक्षिणी पंख न फूटे हुए बच्चों के जीवन के लिए ही अपना जीवन रखती है , अपनी भूख - प्यास नहीं जानती और उस चिरोंटी का हित ही उस माता का कार्य रहता है , वैसे ही जो प्राणों सहित मेरा अनुशरण करते हैं उनका सब कुछ कार्य मैं ही करता हूँ | उन्हें मेरे सायुज्य की इच्छा हो तो मैं उनका वही हेतु पूर्ण करता हूँ , अथवा सेवा की इच्छा हो तो प्रेम सम्मुख रख देता हूँ | इस प्रकार वे मन में जो जो भाव रखते हैं वह मैं बारंम्बार पूर्ण करता हूँ और उन्हें दी हुई वस्तु की रक्षा भी मैं ही करता हूँ | हे पांडव ! जिनके सब भावों का आश्रय मैं हूँ उनका इस प्रकार सब योगक्षेम मुझी को करना पड़ता है |
आगे [ ९ / २३ ] बताते हैं की जो अन्य देवताओं को पूजते हैं वे मुझे समष्टिरूप से नहीं जानते | क्योंकि यह जो संपूर्ण विश्व है सो मैं ही हूँ | देखो , वृक्ष के शाखा - पत्ते क्या एक ही बीज के नहीं होते ? परन्तु पानी लेना जड का काम है , सो वह जड ही में दिया जाता है | अथवा ये जो दसों इन्द्रियाँ हैं सो यद्यपि एक ही देह की है और इनके सेवन किये हुए विषय एक ही जगह पहुंचते हैं तथापि उत्तम रसोई बना कर कान में कैसे भरी जा सकती है ? फूल लाकर आँखों से कैसे सूंघे जा सकते हैं ? रस का सेवन मुख से ही करना चाहिए , सुगंध नाक से ही सूंघनी चाहिए , वैसे ही मेरा यजन मेरे प्रीत्यर्थ ही करना चाहिए | मुझे न जानकर जो भजन करता है सो वृथा बहकना है | इसलिए कर्म के नेत्र - रूप जो ज्ञान है वह निर्दोष होना चाहिए | 
|| इत्ती ||

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