गुरुवार, 26 जनवरी 2012

भक्तिहीन जीवन ही पापयुक्त है


||    भक्तिहीन जीवन ही पापयुक्त है    ||
भगवान गीता [ श्लोक ९ /  ३० - ३१ ]  में कहते हैं "  अजी मृत्यु के समय की मती के अनुसार अगली गति होती है इसलिए जिसने अपना जीवन निदान में भक्ति के अर्पण कर दिया हो -  तो वह यद्दपि प्रथम दुराचारी भी हो तथापि उसे सर्वोत्तम ही जानो |  जैसे जो बड़ी बाढ में डूबे और बिना मरे निकल आवे तो वह जीता हुआ किनारे पर पहुंच गया इसलिए उसका डूबना वृथा हो जाता है वैसे ही अंत में भक्ति करने से पूर्वकृत पाप भी मिट जाते हैं |  क्योंकि यद्दपि दुष्कृति भी हो तथापि वह पश्चातापरुपी तीर्थ में नहाता है और नहाकर सर्वभावों से मुझमें प्रवेश करता है , इससे उसका कुल पवित्र हो जाता है , उसकी कुलीनता निर्मल हो जाती है और जन्म का फल उसी को प्राप्त होता है |  वह मानो सब कुछ पढ़ चूका , सब तप तप चूका और अष्टांग योग का अभ्यास कर चूका |  बहुत क्या , हे पार्थ !  वह सर्वथा सब कर्मों के पार उतर चूका |  जिसकी आस्था निरंतर मेरे लिए ही होती है , जिसने संपूर्ण मन और बुद्धि के व्यापार से एक - निष्ठांरुपी पिटारा भरकर हे किरीटी ! मुझमें ही रख दिया है |  
वह फिर कुछ काल के बाद मेरे समान होता है ऐसा न समझो |  अजी , जो अमृत में रहे उसके पास मृत्यु कैसे आ सकती है ?  जिस समय में सूर्योदय नहीं होता उसी समय को रात्री कहते हैं ; वैसे ही जो मेरी भक्ति के बिना किया जाय वही क्या महापाप नहीं है ?  अतएव हे पांडव ! ज्योंही उसके चित्त को मेरा सानिध्य होता है त्योंही वह तत्वत:  मतस्वरूप हो जाता है |  दीपक से दीपक लगाया जाय तो पहला दीपक कौनसा है ,यह जैसे जान नहीं पड़ता , वैसे ही जो सर्व भावों से मुझे भजता है वह मद्रूप ही हो रहता है |  फिर जो मेरी नित्यशान्ति है वही उसकी दशा हो जाती है , और जो मेरी काँन्ति है वही उसकी हो जाती है |  किंबहुना वह मेरे ही जी से जीवन धारण करता है |  हे पार्थ !  इस विषय में बारंबार वही बात कहाँ तक कहूँ ?  यदि मेरी प्राप्ति की इच्छा हो तो भक्ति को मत भूलो |  अजी , कुल की शुद्धता के पीछे न लगो , कुलीनता की प्रशंशा मत करो , विद्वत्ता की वृथा अभिलाषा मत करो , अथवा रूप और तारुण्य से मत्त न हो , या संपत्ति का गर्व मत करो |  एक मेरा भाव न हो तो ये सब बातें व्यर्थ हैं |  बिना दानों के , छूछे भुट्टे घने लगे हों , अथवा सुंदर नगर वीरान पड़ा हो , तो किस काम का ?   वैसे ही सब संपत्ति अथवा कुल और जाती की श्रेष्ठता है |  जैसे अवयव - सहित शरीर हो परन्तु जीव न हो , वैसे ही नाश हो उस जीवन का जिसमें की मेरी भक्ति नहीं है |  अजी , पृथ्वी पर क्या पाषाण नहीं रहते ?  अजान के वृक्ष की सघन छाया को निषिद्ध मान सज्जन जैसे उसका त्याग कर देते हैं , वैसे ही पुन्य भी अभक्त का त्याग कर चले जाते हैं |  निमकौडियों की बहार से नीम यदि झुक जाय तो उसका कौवों को ही सुकाल होता है वैसे ही भक्तिहीन मनुष्य पापों के लिए ही बढता है |  
अथवा खपरे में छ:  रस परोस कर चौराहे पर रखे जाएँ तो जैसे कुत्तों के ही उपयोगी होते हैं , वैसे ही भक्तिहीनों का जीवन है जो स्वप्नं में भी सुकृत नहीं जानते , जिससे वे मानो संसार के दू:खों के लिए थाली परोस रखते हैं |  अतएव उत्तम कुल होने की आवश्यकता नहीं |  जाती शुद्र की भी हो और शरीर चाहे पशु का भी प्राप्त हो , तथापि कुछ हानि नहीं है |  देखो , मगर के पकड़े हुए हाथी ने अकुला कर ऐसे प्रेम से मेरा स्मरण किया की वह मेरे संनिद्ध पहुंच गया और उसका पशुत्व भी दूर हो गया |  
||       इत्ती    ||

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