बुधवार, 2 नवंबर 2011

स्तिथ्प्रग्य मनुष्य


श्री कृष्ण ने गीता में दूसरे अध्याय में बताया है की स्तिथ्प्रग्य मनुष्य अपने भीतर की आत्म - स्तिथि में रमन करता है | सुख -दुःख में समान रहता है | न प्रिय से राग करता है ,न अप्रिय से द्वेष करता है | इन्द्रियों को इन्द्रयों तक ही सीमित रहने देता है | उसका प्रभाव आत्मा पर नहीं होने देता ,कछुवा जैसे अपने अंगों को समेटकर अपने भीतर कर लेता है ,वैसे ही वह अपनी कामनाओं और लालसाओं को संसार में न फैलाकर अपनी अंतह भूमिका में ही समेट लेता है | जिसकी मानसिक स्तिथि ऐसी होती है ,उसे योगी ,ब्रह्मभूत ,जीवन्मुक्त ,या समाधिस्थ कहते हैं | २७ प्रकार की समाधियां बताई गई हैं | परन्तु वर्तमान देशकाल ,पात्र की सिथति में स हज समाधि सुलभ और सुख -साध्य है | महात्मा -कबीर ने अपने अनुभव से सहज -समाधि को सर्व -सुलभ देखकर अपने अनुयायों को इसी साधना के लिये प्रेरित किया है |
कबीरवाणी के अनुसार;- साधो सहज समाधि भली | कबीरजी सहज -योग को प्रधानता देते हैं | सहज योग का तात्पर्य है -सिधान्त्मय जीवन , कर्त्तव्यपूर्ण कार्यक्रम | क्योंकि इन्द्रिय भोगों, पाशविक वृत्तियों एवं काम, क्रोध, लोभ, मोह, की तुच्छ ईछाओं से प्रेरित होकर आमतोर से लोग अपना कार्यक्रम निर्धारित करते हैं और इसी कारण भांति -भांति के कष्टों का अनुभव करते हैं | सात्विक सिद्धांत को जीवन -आधार बना लेने से उन्हीं के अनुरूप विचार और कार्य करने से आत्मा को सत -तत्व में रमन करने का अभ्यास हो जाता है | व् इसमें आनंद आने लगता है | इससे एक दिव्य -आवेश -सा छाया रहता है | उसकी मस्ती, प्रसन्ता, संतोष असाधारण होता है | इस स्तिथि को सहज -योग की समाधि या "सहज-समाधि "कहा जाता है |
जिसके जीवन में संयम, सेवा, सत्यता, संतोष, सुमिरन, सत्संग, स्वाध्याय आ जाता है और जो इन्हें श्रद्धा पूर्वक आचरण में लाता है उसको सहज योग का आनंद प्राप्त होता है |

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