गुरुवार, 24 नवंबर 2011

भक्तों के गुण



‎|| भक्तों के गुण ||
[ १ ] अहिंसा - मन , वचन , और शरीर से किसी प्रकार किसी को कष्ट न देना | [ २ ] सत्य - अंत:करण और इन्द्रियों द्वारा जैसा निश्चय किया गया हो वैसा -का -वैसा ही प्रिय शब्दों में कहना | [३ ] अस्तेय - किसी प्रकार की चोरी न करना | [ ४ ] ब्रहमचर्य - मैथूनों का त्याग करना | ५ ] अपरिग्रह - ममत्व बुद्धि से संग्रह न करना [ ६ ] शौच - बाहर और भीतर की पवित्रता [ ७ ] संतोष - तृष्णा का सर्वथा अभाव [ ८ ] तप - स्वधर्म पालन के लिए कष्ट सहन करना [ ९ ] स्वाध्याय - पारमार्थिक ग्रंथों का अध्ययन और भगवान के नाम तथा गुन्नों का कीर्तन [ १० ] इश्वर - भक्ति - भगवान में श्रधा और प्रेम होना [ ११ ] ज्ञान - सत और असत पदार्थ का यथार्त जानना [ १२ ] वैराग्य - इस लोक और परलोक के समस्त पदार्थों में आसक्ति का अत्यंत अभाव [ १३ ] मन का निग्रह - मन का वश में होना [१४ ] इन्द्रिय- दमन - समस्त इन्द्रियों का वश में होना [ १५ ] तितिक्षा - सर्दी , गर्मी ; सुख , दुख आदि द्वंदों में सहन -शीलता [ १६ ] श्रद्धा - वेद , शास्त्र , महात्मा , गुरु और परमेश्वर के वचनों में प्रत्यक्ष की तरह विस्वाश [ १७ ] क्षमा - अपना अपराध करने वाले को किसी प्रकार भी दंड देने का भाव न रखना [ १८ ] वीरता - कायरता का सर्वथा अभाव [ १९ ] दया - किसी भी प्राणी को दू:खी देखकर हृदय का पिघल जाना [ २० ] तेज - प्रभावित करने की शक्ति [ २१ ] सरलता - शरीर और इन्द्रियों सहित अंत:करण की सरलता [ २२ ] स्वार्थ -त्याग - किसी कार्य से लोक -परलोक के किसी भी स्वार्थ को न चाहना [ २३ ] अमानित्व - सत्कार , मान , और पूजा आदि का न चाहना [ २४ ] दंभ -हीनता - ढोंग का न होना [ २५ ] अपैशुनता - किसी की निंदा या चुगली न करना [ २६ ] निष्कपटता - अपने स्वार्थ साधन के लिए किसी बात का भी छिपाव न करना [ २७ ] विनय - नम्रता का भाव [ २८ ] धृति - भारी विपति आने पर भी चलायमान न होना [ २९ ] सेवा - सब जीवों को यथा योग्य सुख पहुँचाने के लिए मन ,वाणी , शरीर द्वारा निरंतर नि:स्वार्थ भाव से अपनी शक्ति के अनुसार चेष्टा करना [ ३० ] सत्संग - संत - महात्मा पुरुषों का संग करना [३१ ] जप - अपने ईष्ट देव के नाम या मंत्र का जाप करना [ ३२ ] ध्यान - अपने ईष्ट देव का चिंतन करना [ ३३ ] निर्वैर्ता - अपने साथ वैर रखने वालों में भी द्वेष - भाव न होना [ ३४ ] निर्भयता - भय का सर्वथा अभाव [ ३५ ] समता - हाथ , पैर आदि अपने अंगों की तरह सबके साथ यथा - योग्य बर्ताव में भेद रखने पर भी आत्म -रूप से सबको समभाव से देखना [ ३६ ] निर- अह्न्कारता - मन , बुद्धि , शरीर आदि में " मैं पन " का और उनसे होने वाले कर्मों में कर्तापन का सर्वथा अभाव [ ३७ ] मैत्री - प्राणी मात्र के साथ प्रेम भाव [ ३८ ] दान - जिस देश में , जिस काल में , जिसको जिस वस्तु का अभाव हो उसको वह वस्तु [ प्रत्युपकार और फल की इच्छा न रखकर ] हर्ष और सत्कार के साथ प्रदान करना [ ३९ ] कर्तव्य - परायनता - अपने कर्तव्य में तत्पर रहना [ ४० ] शान्ति - इच्छा और वासनावों का अत्यंत अभाव होना और अंत:करन में निरंतर प्रसनता का रहना |

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