बुधवार, 2 नवंबर 2011

जीवन - मुक्ति


"जीवन - मुक्ति "
भगवान ने अपने धाम को परम धाम [श्लोक -८/२१ ; १५/६ ] कहा है | इसे वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत आदि भी कहते हैं | एक जगह इसकी प्राप्ति बताई, तथा दूसरी जगह जाने की [गत्वा ] बात कही गई है | जहां अव्यक्त, अक्षर, परम गति कहा गया है, वहाँ भगवान के निर्गुण -निराकार स्वरूप का वर्णनं है जिसे ज्ञानियों को 'ब्रह्म -प्राप्ति 'भी कहा जाता है | जिन जीवात्मा को भगवत प्राप्ति हो जाती है, उन्हें महात्मा कहा जाता है | वे जीवन -मुक्त भी कहलाते हैं | अनन्य भक्त जब शरीर छोडकर परम -धाम की प्राप्ति करते है, तो इसे "सद्यो -मुक्ति " कहा जाता है | ऐसे भक्तों के शरीर चिन्मय हो जाते हैं और वे भगवान के श्री -विग्रह में समाँ जाते हैं जैसे मीरा -बाई, संत तुकाराम आदि | उक्त दोनों गतियों को प्राप्त जीव पुन: लौटकर पृथ्वी पर नहीं आते | जैसे घी से पुन: दूध नहीं बन सकता वैसे ही परम -धाम से मनुष्य वापिस नहीं आ सकते | वास्तव में जीव भी भगवान का अंश है [श्लोक १५/७ ] और परम -धाम की तरह वह भी भगवान से अभिन्न है |अत: सभी जीवों का भी वही अपना घर है |जब तक हम अपने घर में नहीं जायेंगे, तब तक हम मुसाफिर की तरह अनेक योनियों में ,अनेक लोकों में घूमते ही रहेंगे | परम पद को न तो आधी -भौतिक प्रकाश [ सूर्य चन्द्र आदि ] व् न ही आधी -देविक प्रकाश [नेत्र ,मन ,बुद्धि ,वान्नी ,आदि ] ही प्रकाशित कर सकता है क्योंकि वह स्वयं प्रकाश है |
जीव [आत्मा ] का सम्बंध केवल परमात्मा से है, पर वह भूल से प्रकृति के कार्य स्थूल, सूक्ष्म, और कारण शरीर को अपना मानता है और यही अनर्थ का कारण है | जीव की यह भूल स्वयम जीव ही सुधार सकता है, कोई और नहीं | भगवान से विमुखता से यह भूल हुई है, अत: जिस दिन वह भगवान के सन्मुख हो जायेगा, उसी क्षण उसके सारे पाप नष्ट हो जायेंगे | मानस में भगवान ने कहा है " सन्मुख होई जीव मोहि जबहीं ,जन्म कोटि अघ नाश्हीं तब ही"

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