बुधवार, 2 नवंबर 2011

जीने -मरने की कला


जीने -मरने की कला 
यद्यपि करम से ज्ञान श्रेष्ट है, चूँकि ज्ञान की अग्नि में सभी कर्म नि:शेष रुप से भस्म हो जाते हैं परन्तु ज्ञान -योगी को भी शरीर -निर्वाह हेतु कर्म तो करने ही पड़ते है | अत: कर्मों ही मुक्ति का साधन बनाना श्रेष्ट है |यही बात भगवान [ गीता श्लोक २/५० -५१ ] में समझा रहे हैं | अर्थात समता -युक्त निष्काम कर्म-योग को कर्मों में कुशलता कहा गया है | यही जीने की कला है | इसका सार यह है की निर्लिप्त रहकर कर्म करो और कर्म करने में निर्लिप्त रहो | क्योंकि भोग एवं संग्रह से ही कामना, आसक्ति, ममता रूपी जड़ें जीवात्मा को संसार से बांधती हैं | इन्हें वैराग्य -रूपी तलवार से काटकर, संसार से उपराम होकर भगवान की शरण ग्रहण करनी चाहिए | मनुष्य -जीवन का सर्वोच उद्देश्य भगवत -प्राप्ति है | इसे जीते जी ही प्राप्त कर लेना चाहिए |
गीता -श्लोक [ ६/८ ] में बताए अनुसार आचरण कर अर्थात अंत: करण की शुद्धि से ज्ञान -विज्ञानं की प्राप्ति तथा वैराग्य से मिटटी, पत्थर ,व् सोने में समानता देखकर निर्विकार होना एवं शरीर, इन्द्रियों, मन को नियंत्रण करने से भगवत-प्राप्ति संभव है | यही जीने की कला है | इसमें समता का बहुत महत्व है | जो स्थान भक्ति में प्रेम का है [ श्लोक १० /१० ] वही स्थान कर्म एवं ज्ञान-मार्ग में समता का है | गीता शलोक [ ८ / ५ -६ ] में एवं श्लोक [ ८ / १२ -१३ ] में भगवान मरने की कला बता रहे है, की अंत -काल में भी अगर कोई मेरा स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है तो वह मुझे ही प्राप्त होता है | इस नियम से ही भगवान [ दुष्टों को भी संहार करने पर ] सायुज्य -मुक्ति प्रदान करते हैं | अन्य योगी -जन ध्यान -योग से [ श्लोक ८ /८ ] उस परम -पद को प्राप्त करते हैं |

1 टिप्पणी:

  1. भगवान श्रीकृष्ण ने गोकुलवासियों को गोवर्धन पर्वत की पूजा करने तथा इंद्र की पूजा न करने का कहकर इंद्र का घमण्ड तोड़ा था। चूंकि ग्रामवासियों द्वारा पूजित होने पर भी ही इंद्र वहां वर्षा करते थे इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने इंद्र का घमण्ड तोड़कर उसे यह बताया था कि वर्षा करना आपका मौलिक कर्तव्य है। इसके लिए कोई आपकी पूजा करे यह आवश्यक नहीं है। इस प्रकार श्रीकृष्ण ने इंद्र को फल रहित कर्म करने का कर्तव्य बोध कराया था। इस संदर्भ का सार है कि सभी को अपने कर्तव्यों का निर्वहन ठीक प्रकार से बिना किसी अतिरिक्त फल की अभिलाषा से करना चाहिए। चूंकि कर्तव्य का निर्वहन करना उसकी मौलिक जिम्मेदारी है।

    जब श्रीकृष्ण ने अगुंली पर उठाया गोवर्धन

    अच्छी वर्षा के लिए गोकुलवासी इंद्र को प्रसन्न करने के लिए उसकी पूजा करते थे। लेकिन श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत का महत्व इंद्र से अधिक बताने पर जब ग्रामवासियों ने गोवर्धन पर्वत की पूजा की तो इंद्र बहुत क्रोधित हुए। उन्होंने गोकुलवासियों को अपना बल दिखाने के लिए भंयकर वर्षा की जिससे सारा गांव डूबने लगा। तब भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी एक अंगुली पर उठाकर गोकुलवासियों को आश्रय प्रदान किया था तथा इंद्र का घमण्ड भी तोड़ा था। श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप को जानकर इंद्र ने उनकी स्तुति की तथा क्षमायाचना की। तब श्रीकृष्ण ने इंद्र को समझाया था कि सभी स्थानों पर समान रूप से वर्षा करना आपका कर्तव्य है इसके लिए मन में पूजा की अभिलाषा रखना सर्वथा अनुचित है।

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