बुधवार, 2 नवंबर 2011

अनन्य भक्ति


" अनन्य भक्ति "


जीव , ब्रहम ,व् माया तीनों सनातन हैं | पर जिस व्यक्ति की माया छूट जाती है ,उसके लिये माया का अंत हो जाता है | जबकि माया [ प्रकृती ] को भी अनंत कहा गया है क्योंकि इसका अंत देखने में नहीं आता | अत: जीव या तो भगवान में लग सकता है , या माया में | अनंत जन्मों से जीव मायाबदद है | क्योंकि इसकी बूदधि ने गलत निर्णय लिया की संसार में सुख है |जबकि भगवान ने गीता [ श्लोक ९/३३] में संसार को अनित्य ,व् दुखमय बताया है |इसी सुख के आकर्षण से जीव प्रकृति के क्षेत्र [ वस्तु ,व्यक्ति ,घटना ,देश ,परिस्तिथि   काल ,पदार्थ ,क्रिया ,भाव ,लक्ष्य या उद्देश्य ] में ही रमन करता है | क्योंकि वह भगवान से विमुख हो गया है अत: जन्म-मरन के फेरे में पड़ा हुआ है |
इसके विपरीत अगर वह भगवान के सम्मुख हो जाये एवं अनन्य भाव से अपने मन , बूदही ,चित ,प्राण ,व् आत्मा को भगवान के क्षेत्र [ भगवान के नाम ,रूप ,गुन, लीला ,धाम , और संत ] में लगावे , जिसके लिए भगवान ने बार-बार गीता [ श्लोक ८/७,१२/८,९/३४,१८/६५ १८/५८, १२/१४, २/५१, ५/१७ ५/२५, ६/१५, ६/१०, आदि-आदि ] में उपदेश दिए हैं | तो उसे मुक्ति [ दुखों से निवर्ति , ] तथा आनंद की प्राप्ति [ भग वत -प्राप्ति ] हो सकती है | अनन्य भक्ति में नित्य ,निरंतर ,निष्काम ,निरहंकार ,निर्मम निस्पृह ,निर्विकार ,एवं अनन्य भाव से श्रधा -सहित स्मरण करना मुख्य है | इसके साथ नाम का जप एवं रूप का ध्यान करना जरूरी है |


सांसारिक सुख [विषयों का सुख ] समय एवं मात्रा में सिमित होता है जबकि चेतन से चेतन [ आत्मा व् परमात्मा ] के योग से अनंत आनंद की अनुभूति होती है | वास्तव में सुसुप्ति का सुख शरीर एवं संसार को भूलने से मिलता है | अत: भगवत -प्राप्ति [ जानना ,देखना ,एवं प्रवेश करना अर्थार्त समग्र स्वरूप की प्राप्ति गीता श्लोक ११/५४; ८/२२; १८/५५; १४/२६ ] जो की केवल अनन्य -भक्ति से ही संभव है, के द्वारा ही अनंत काल एवं अनंत मात्रा का आनंद प्राप्त किया जा सकता है |

1 टिप्पणी:

  1. कर्म का लेख मिटे ना भाई, चाहे कोई लाख करे चतुराई

    सत्कर्मो का संचय करें कर्म का लेख मिटे ना भाई पचास के दशक में उपरोक्त लाईन हर आदमी की जुबान पर होती थी। लोग जीवन में इसे हमेशा याद रखते थे और अपने आपको गलत कामों से दूर रखते थे। धीरे-धीरे दशक बीतते गए तथा इस लाईन का असर कम होने लगा। लोग भौतिकवाद में घुसते गए तथा अच्छे बुरे को भूलते गए। इस अंधे भौतिकवाद ने इंसान को मशीन बनाने की कोशिश की है, परंतु यह हो नहीं सकता। मनुष्य को अपने कर्मो का हिसाब देना पड़ता है, ऐसा हमारे धर्म ग्रंथ भी कहते हैं। आज के लोग अपने आपको विज्ञान के युग का मानते हैं तथा हर तर्क को विज्ञान की कसौटी पर कसते हैं। ऐसे लोगों के लिए यह घटना इस बात को सत्यापित करेगी कि मनुष्य को अपने कर्मो का हिसाब देना पड़ता है। अमेरिका में एक महिला बीमारी से ग्रसित थी, उसका इलाज किसी चिकित्सक से नहीं हो पा रहा था, आखिर में उसको मनोचिकित्सक के पास लाया गया। उस चिकित्सक ने उस महिला को सम्मोहन विधि के द्वारा उससे उसके जीवन की अनसुलझी गुत्थियों के बारे में पूछा। जिससे महिला ने अपने पुराने 89 जन्मों का ब्योरा उस चिकित्सक को बताया। चिकित्सक ने उसके कुछ जन्मों को सत्यापित कराया जो सही पाए गए। रहस्योद्घाटन में उन्होंने यह माना कि उक्त महिला पूर्व जन्मों के कर्मो के हिसाब से अगले जन्म में सुख या दु:ख भोगती गई तथा इस जन्म की व्याधि भी पूर्व जन्म के कर्मो के कारण ही थी। इस घटना के बाद उस महिला के जीवन में बहुत बदलाव आया। अब जब यह तथ्य वैज्ञानिक कसौटी पर खरा उतरा है तो हमें भी इसको मानकर अपने कर्मो के बारे में यह सोचना चाहिए कि यह किसी प्रकार से बुरे कर्मो की श्रेणी में तो नहीं आते। इससे किसी का अहित तो नहीं होता, समाज की व्यवस्था तो नहीं बिगड़ती। रामचरितमानस में भी कहा गया है कि कर्म प्रधान विस्व रचि राखा, जो जस करहिं सो तस फल चाखा। हर व्यक्ति अपने बुढ़ापे के लिए धन संचय करके रखता है, तो उसी प्रकार हमको भी अपने अगले जन्म के लिए अच्छे कर्मो का संचय करना चाहिए। इस सत्य को जीवन में आत्मसात करना चाहिए कि कर्म का लेख मिटे ना भाई, चाहे कोई लाख करे चतुराई। कर्म का लेख मिटे ना भाई, चाहे कोई लाख करे चतुराई

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