बुधवार, 2 नवंबर 2011

भगवान बुद्धि -ग्राह्य हैं


भगवान बुद्धि -ग्राह्य हैं |
एक शंका उत्पन्न होती है की अगर बुद्धि जड है तो इससे चेतन भगवान की प्राप्ति केसे हो सकती है ? संतों ने बताया की साधक के पास सबसे श्रेष्ठ करण बुद्धि ही है जिसे वह परमात्मा में लगाता है | उपनिषदों में शरीर को रथ ,जीवात्मा को रथी [ मालिक ], इन्द्रियों को घोड़े, मन को लगाम, और बुद्धि को सारथि [चालक ] कहा गया है [कठो -उपनिषद १/३/३ ] जैसे रथ, घोड़े, और लगाम तो घर के बाहर ही छूट जाते हैं, भीतर शयन -कक्ष तक सारथि [ सामान पहुँचाने ] जाता है | परन्तु शयनकक्ष में तो रथी अकेला ही जाता है | इसी प्रकार साधक की बुद्धि परमात्मा तक पहुंचती है | पर वह परमात्मा को पकड़ नहीं पाती | परमात्मा तक केवल स्वयं [ आत्मा ] ही पहुंच पाता है [ श्लोक ६/२१ ] | इसी बात को भगवान उक्त श्लोक में, ध्यान -योग का वर्णन करते हुए समझा रहें हैं | ध्यान -योगी को "आत्यन्तिक सुख " अर्थात सात्विक सुख से विलक्षण ;'अतीन्द्रिय ' अर्थात राजस सुख से विलक्षण ;और बुद्धि -ग्राह्य अर्थात तामस सुख से विलक्षण बताया गया है | ध्यान से प्राप्त सुख को संसार का सबसे बड़ा लाभ बताया गया है [ श्लोक ६/२२] | इसमें हानि की संभावना नहीं है तथा जिसमें दुख का लेश भी नहीं है | ऐसे अखंड सुख [ज्ञान -मार्ग से ] के प्राप्त होने में ही सभी साधनों की पूर्न्नता है | ऐसे ध्यान -योग का अभ्यास न उकताए हुए चित से निसचय -पूर्वक करना चाहिए | यह योग सभी साधकों का साध्य है |

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