रविवार, 27 नवंबर 2011

योग से सिद्धि


‎|| योग से सिद्धि ||
भगवान ने मनुष्य को ,सब समय में ,करने की दो आज्ञाएं दी हैं | प्रथम , मेरा स्मरण [ गीता श्लोक ८ / ७ ] और दूसरी वर्ण - आश्रम धर्म के अनुसार अपने नियत एवं सहज कर्म 
[ १८ / ७; १८ /४८ ] को करना | अर्जुन के सामने उस समय युद्ध करना ही उसका सहज कर्म था ,अत: भगवान ने युद्ध करने की आज्ञा दी | ज्ञानी भक्त को [श्लोक ३ /३० ]अपना सहज 
कर्म समता - युक्त निष्काम कर्म मन बुद्धि को भगवान में अर्पण करके ,भगवान के लिए ,निर्मम ,निर-अहंकार ,निस्पृह ,व निर् -विकार भाव से [ श्लोक १२ /१० ] करना चाहिए | अर्थार्त 
योग - युक्त [ श्लोक ८ /२७ ] होकर कर्म करना चाहिए |
परन्तु योग की सिद्धि होने के लिए [ श्लोक ६ / १७ ] के अनुसार यथा -योग्य , आहार -विहार , कर्मों में चेष्टा ,व सोना एवं जागना ही बताया है | जिस काल में वश में किया हूवा चित , भली - भांती परमात्मा में सिथ्त्त हो जाता है , उस समय भोगों की इच्छा - रहित मनुष्य योग - युक्त कहा जाता है |
इस प्रकार कर्म करने से साधक का अंत: करण शुद्ध हो जाता है [ ४ /३८ ; ३ /१९ ] एवं उसे अपने आप ही आत्म -ज्ञान हो जाता है | तथा समता से निष्काम -कर्म -योग करने ,फल की इच्छा का त्याग करने पर परम -पद [ २ /५१ ; २ /७१ ] की प्राप्ति हो जाती है | भक्त के कर्म में अगर कोई कमी भी रह जाती है ,तो भगवान की कृपा से [ श्लोक १८ /५६ ]
वह परम -पद की प्राप्ति कर लेता है |
इसी प्रकार ज्ञान -योगी अपने बल से आत्म - ज्ञान तक तो पहुंच जाता है , परन्तु उसे ब्रह्म - ज्ञान तो केवल सद्-गुरु की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है | 
परन्तु भक्ति -मार्ग में तो सब कुछ भगवान की कृपा से ही प्राप्त हो जाता है | सुदामा , प्रहलाद , ध्रुव आदि इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं |

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