बुधवार, 2 नवंबर 2011

सगुण साकार की भक्ति सर्व -श्रेष्ट


"सगुण साकार की भक्ति सर्व -श्रेष्ट "


निर्गुण निराकार की की भक्ति देहधारियों के लिए बहुत कठिन है | तथा बहुत देरी से प्राप्त होती है | परन्तु सगुण -उपासना में भगवान की विमुखता ही बाधक है | देहाभिमान नहीं | क्योंकि सगुण उपासक साधन के आश्रित न होकर भगवान के आश्रित हो जाता है | अत: भगवान कृपा करके उसका शीघ्र ही उधार कर देते है |[गीता श्लोक ८/१४ ; १२/७] यही सगुण उपासना की विशेसता है | अनन्य -भक्ति -योग [१२/६-७-८] का अभ्यास करने वाले साधक भक्तों के उद्धार करने हेतु भगवान के पार्षद आते हैं [श्लोक ६/५] और सिद्ध भक्तों के लिए [श्लोक १२/७ ] भगवान स्वयम आते हैं |परन्तु ज्ञान -मार्ग में चलने वाला साधक अपना उद्धार स्वयम करता है | भगवान कहते है की मुझमें मन अवम बुद्धि लगाने से मेरी प्राप्ति होती है | मन ,बुद्धि लगाने का अर्थ स्वयम को ही भगवान में लगाना है | क्योंकि जीव स्वयम वहीं लगता है जहां मन बुद्धि लगते हैं | जैसे जहां सूई जाती है ,धागा भी वहीं जाता है | इसी प्रकार मन , बुद्धि भगवान में लींन हो जाते हैं | अगर इसमें कठिनाई है ,तो अभ्यास -योग [बार -बार मन को संसार से हटकर भगवान में लगाना ] से मेरी प्राप्ति की इच्छा कर | अगर यह भी संभव नहीं है तो केवल मेरे लिए कर्म कर |अगर यह भी नहीं कर सकता तो मन -बुद्धि पर विजय करके सब कर्मों के फल [ फल की इच्छा ] का त्याग कर | अर्थात तू जो कर्म करता है , खाता है ,यज्ञ , तप, दान ,करता है ,वह सब मुझे अर्पण करदे [श्लोक १२/८-९-१० ;९/२७ ] मर्म को न जानकर किये हूवे अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ट है , ज्ञान से भगवान के स्वरूप का ध्यान श्रेष्ट है और ध्यान से भी सब कर्मों के फल का त्याग [ फल की इच्छा का त्याग ही सचा त्याग है ] श्रेष्ट है | इससे तत्काल ही परम शांति प्राप्त होती है[श्लोक १२/१२ ] |

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