गुरुवार, 10 नवंबर 2011

मुक्ति की युक्ति


‎|| मुक्ति की युक्ति ||
कोई भी मनुष्य कर्म किये बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता | अत: नित्य कर्म , निमित कर्म अथवा सहज कर्म [ वेद - अध्ययन , यज्ञ , दान , तप , सभी शुभ कर्म ] को अवश्य करने चाहिए | जैसे डूबते हुए को , नदी ही बाहर फेंक दे , मरने वाले को स्वयम मृत्यु ही जीवन दान दे दे , सांप के काटने पर जहर [ anti-venom ] की सूई ही जान की रक्षा करती है , कांटे को कांटे से ही निकाला जाता है , वैसे ही कर्म करने से , कर्मों का बंधन भी छूट सकता है | अत: अंत: करण की शुद्धि के लिए , कर्मों के वेग को कम करने के लिए , लोक - कल्याण के लिए , भगवत - प्रीती के लिए कर्मों को युक्ति के साथ अवश्य करने चाहिए | तीर्थों से बाहरी शुद्धि होती है , और कर्मों से अंत: - करण की शुद्धि होती है | अत: सत्कर्म निर्मल तीर्थ ही हैं [ श्लोक १८ / ५ ] |
जैसे दुसरे के सहारे से तैरता हुआ व्यक्ती तैराक होने का अभिमान नहीं करता , सेठ का मुनीम दान करते हुऐ दानी का अभिमान नहीं करता , वैसे ही करतापन का अहंकार न करते हुए ,सहज प्राप्त कर्मों को निष्काम भाव से सच्चाई और ईमानदारी के साथ यथा समय पूर्ण करते रहना चाहिए | तथा किये हुए कर्म की जो फल प्राप्ति हो , उसकी ओर ध्यान ही नहीं देना चाहिए | जैसे दाई पराये बालक को संभालती है , चरवाहा दूध की इच्छा किये बिना पूरे गाँव की गायें चराता है , पिता अपनी पुत्री का लालन - पालन , विवाह आदि पूरी क्षमता से करता है , वैसे ही कर्म - फल की आशा छोड़ देनी चाहिए | यही निष्काम - कर्म की युक्ति [ कुंजी ] है | जो इस युक्ति से कर्म करेगा , उसे अपने में ही आत्म - प्राप्ति [ आत्म - साक्षात्कार ] हो जायेगी [ श्लोक १८ / ६ ] | अत: भगवान का उत्तम सन्देश यही है की फल की आशा [ इच्छा ] और देहाभिमान [ अहंकार का भाव ] को छोड़कर सभी कर्म [ वर्ण- आश्रम धर्म के अनुसार ] अवश्य करने चाहिए |
क्योंकि देह रहते कर्म का त्याग नहीं हो सकता | हम तिलक लगाकर उसे वापिस पौंछ सकते हैं ,पर क्या सिर को भी काटकर वापिस लगा सकते हैं ? क्या नींद में हम श्वास नहीं लेते ? क्या हृदय की धडकन हमारी सावधानी से ही हो रही है ? अर्थात हम कुछ भी नहीं करें तो भी कर्म तो होते ही रहते हैं | इस प्रकार शरीर के बहाने कर्म ही मनुष्य के पीछे लगा है | वह जीते - जी व मृत्यु के बाद भी पीछा नहीं छोड़ता | इससे छूटने का यही तरीका है की फल की इच्छा न की जाय | कर्म फल भगवान को समर्पित करने से आत्म - ज्ञान प्रकट होता है और ज्ञान की अग्नि में सभी कर्म नि: शेष रूप से जल जाते हैं [ श्लोक ४ / ३७ ] | संसार में ज्ञान से पवित्र कोई चीज नहीं है | ज्ञान की पवित्रता ज्ञान में ही है |

1 टिप्पणी:

  1. किताबें ऐसी शिक्षक हैं जो बिना कष्ट दिए, बिना आलोचना किए और बिना परीक्षा लिए हमें शिक्षा देती हैं।ढोंगी गुरु होते हैं ग्रन्थ नही

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