शनिवार, 5 मई 2012

जो संन्यासी है वही योगी है

|| जो संन्यासी है वही योगी है ||
भगवान गीता [ ६ / १ - ३ ] में कहते हैं " सुनो , संसार में योगी और संन्यासी एक ही हैं | उन्हें अलग मत मानो | साधारणत: विचार करने से वे दोनों एक ही जान पड़ते हैं | दूसरा नाम केवल आरोप है , उसे छोड़ दो तो जो योग है वही संन्यास है | ब्रह्मदृष्टि से देखते दोनों में कुछ अंतर नहीं दिखाई देता | एक ही मनुष्य को जैसे अलग - अलग नामों से पुकारते हैं अथवा जैसे एक ही जगह जाने के लिए अलग - अलग मार्ग रहते हैं , अथवा जैसे पानी स्वभावत: एक है परन्तु अलग - अलग घडों में भरा हुआ रहता है वैसी ही भिन्नता योग और संन्यास की जानो | हे अर्जुन ! संसार में सबकी यही सम्मति है की योगी उसीको समझना चाहिए जो कर्म करके फलमें अनुरक्त नहीं रहता | जैसे पृथ्वी सहज ही अहंबुद्धि के बिना वृक्ष आदि उत्पन्न करती है परन्तु उनके बीजों की अपेक्षा नहीं करती वैसे ही सर्वत्र जो आत्मा व्याप्त है उसके आधार से तथा जाती के अनुरूप जिस अवसर पर जो कर्म प्राप्त हो , वही उचित जान जो करता है , परन्तु शरीर में अहंबुद्धि नहीं रखता , एवं जिसकी बुद्धि कर्म करके फलकी आशा तक नहीं पहुंचती , वही संन्यासी है | हे पार्थ ! सुनो , वास्तव में वही योगीश्वर है | अन्यथा जो नैमितिक उचित कर्म को बद्धक समझकर छोड़ देता है और तत्काल दूसरा कर्म करने में प्रवृत होता है वह , जैसे एक लेप पोंछकर तुरंत ही दूसरा लगाया जाय ऐसे , आग्रह के अधीन हो वृथा विवंचना में पडता है | पहले से जो स्वभावत: गृहस्थाश्रम का बोझा सर पर है वही बोझा वह संन्यास लेकर अधिक बढाता है | अतएव श्रोत , स्मार्त , होम आदि न छोड़ते कर्म की मर्यादा का उल्लंघन न हो तो निज में ही सहज योगसुख प्राप्त होता है |
सुनो , " जो संन्यासी है वही योगी है " इस एकवाक्यता की पताका संसार में अनेक शास्त्रों ने फहराई है | उन्होंने अपनी अनुभवरुपी तुला से यह सत्य ठहराया है की जहां त्याग किये हुए संकल्प का लोप होता है वहीं योग - साररुपी ब्रह्म की भेंट होती है | अब हे पार्थ ! यदि योगरुपी पर्वत के शिखर पर पहुंचना हो तो यह कर्ममार्गरुपी जीना मत छोडो | इस मार्ग के द्वारा यम - नियमरुपी आधारभूमि पर से आसनरुपी पगडंडी पकड़ कर प्राणायाम की कगार से ऊपर चढो | फिर प्रत्याहाररुपी मध्यभाग है , जहां बुद्धि के भी पैर फिसलते हैं और जिसका आक्रमण करते समय हठ - योगी भी गिरने के डर से अपनी प्रतिज्ञाओं का परित्याग कर देते हैं , तथापि अभ्यास के बल से उस प्रत्याहार के निरालम्ब आकाश में भी धीरे - धीरे वैराग्य का आश्रय प्राप्त हो जाएगा | इस प्रकार वायुरूप घोड़े पर सवार हो धारणा के मार्ग से चलते रहो जब तक की ध्यान की सीमा के पार न निकल जाओ | तब फिर इस मार्ग से चलना बंद हो जाएगा | प्रवृति की इच्छा भी बंद हो जायेगी | ब्रह्मानन्द की एकता प्राप्त होने से साध्य और साधन एक में मिल जायेंगे | आगे चलना बंद हो जाएगा और पिछला स्मरण भी रुक जाएगा | ऐसी समान भूमिका पर समाधि लग जायेगी | इस उपाय से योगारूढ़ हो साधक अत्यंत प्रबुद्ध हो जाता है |
|| इत्ती ||

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