शनिवार, 5 मई 2012

धर्म - अधर्म विवेचन

|| धर्म - अधर्म विवेचन ||
भगवान गीता [ १८ / ३१ ] में राजसी बुद्धि के लक्षण बताते हुए कहते हैं " हे पार्थ ! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता , वह बुद्धि राजसी है |" सत्य , अहिंसा , दया , शांति , ब्रह्मचर्य , शम , दम , तितिक्षा तथा यज्ञ , दान , तप एवं अध्ययन , अध्यापन , प्रजापालन , कृषि , पशुपालन और सेवा आदि जितने भी वर्णाश्रम के अनुसार शास्त्रविहित शुभकर्म हैं - जिन आचरणों का फल शास्त्रों में इस लोक और परलोक के सुख - भोग बतलाया गया है - तथा जो दूसरों के हित के कर्म हैं , उन सबका नाम धर्म है | झूठ , कपट , चोरी , व्यभिचार , हिंसा , दंभ , अभक्ष्य - भक्षण आदि जितने भी पापकर्म हैं - जिनका फल शास्त्रों में दू:ख बतलाया है - उन सबका नाम अधर्म है | वर्ण, आश्रम , प्रकृति , परिस्थिति तथा देश और काल की अपेक्षा से जिस मनुष्य के लिए जो शास्त्रविहित करने योग्य कर्म है - वह कार्य [ कर्तव्य ] है और जिसके लिए शास्त्र में जिस कर्म को न करने योग्य - निषिद्ध बतलाया है , बल्कि जिसका न करना ही उचित है - वह अकार्य [ अकर्तव्य ] है | राजस भाव का फल दू:ख बतलाया है ; अतएव कल्याणकामी पुरुषों को सत्संग , सद्ग्रन्थों के अध्ययन और सद्विचारों के पोषण द्वारा बुद्धि में स्थित राजस भावों का त्याग करके सात्विक भावों को उत्पन्न करने और बढाने की चेष्टा करनी चाहिए |
शास्त्रों में धर्म की बड़ी महिमा है | इस विश्व की रक्षा करनेवाले वृषभरूप धर्म के चार पैर माने गए हैं | सतयुग में चारों पैर पूरे रहते हैं ; त्रेता में तीन , द्वापर में दो और कलियुग में एक ही पैर रह जाता है | धर्म के चार पैर हैं - सत्य , दया , शांति और अहिंसा | इनमें सत्य के बारह भेद हैं - ' झूठ न बोलना , स्वीकार किये हुए का पालन करना , प्रिय वचन बोलना , गुरु की सेवा करना , नियमों का द्रिढता से पालन करना , आस्तिकता , साधूसंग , माता - पिता का प्रिय कार्य करना , बाह्यशौच - आंतरशौच , लज्जा और अपरिग्रह |"
दया के छ: प्रकार हैं : - ' परोपकार , दान , सदा हंसते हुए बोलना , विनय , अपने को छोटा समझना और समत्वबुद्धि |' शान्ति के तीस लक्षण हैं : - ' किसी में दोष न देखना , थोड़े में संतोष करना , इन्द्रिय - संयम , भोगों में अनासक्ति , मौन , देवपूजा में मन लगाना , निर्भयता , गम्भीरता , चित्त की स्थिरता , रूखेपन का अभाव , सर्वत्र नि:स्प्रह्ता , निश्चयात्मिका बुद्धि , न करने योग्य कार्यों का त्याग , मान - अपमान में समता , दूसरे के गुण में श्लाघा , चोरी का अभाव , ब्रह्मचर्य , धैर्य , क्षमा , अतिथि - सत्कार , जप , होम , तीर्थसेवा , श्रेष्ठ पुरुषों की सेवा , मत्सरहीनता , बंध - मोक्ष का ज्ञान , संन्यास - भावना , अति दू:ख में भी सहिष्णुता , कृपणता का अभाव और मूर्खता का अभाव |'
अहिंसा के सात भाव हैं : - ' आसनजय , दूसरे को मन - वाणी - शरीर से दू:ख न पहुंचाना , श्रधा , अतिथिसत्कार , शांतभाव का प्रदर्शन , सर्वत्र आत्मीयता और दूसरे में भी आत्मबुद्धि |' यह धर्म है | इस धर्म का थोड़ा सा भी आचरण परम लाभदायक और इसके विपरीत आचरण महान हानिकारक है | इस चतुष्पाद धर्म के साथ - साथ ही अपने - अपने वर्णाश्रम अनुसार धर्मों का आचरण करना चाहिए | धर्म की रक्षा के लिए ही [ ४ / ८ ] के अनुसार भगवान युग - युग में प्रकट हुआ करते हैं |
|| इत्ती ||

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