शनिवार, 5 मई 2012

भक्तिप्रधानकर्मयोग ; निश्चित कल्याणकारक

|| भक्तिप्रधानकर्मयोग ; निश्चित कल्याणकारक ||
अर्जुन ने [ २ / ७ ] श्लोक में कहा है " कायरतारूप दोष से उपहत हुए स्वभाववाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ की जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो , वह मेरे लिए कहिये ; क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ , इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए |" अर्थात अर्जुन ने यहाँ शरणागति और शिष्यत्व दोनों स्वीकार कर अपने ' निश्चित - कल्याण ' का मार्ग पूछा है | वस्तुत: इसी श्लोक से गीता की साधना का आरंभ होता है , यही उपदेश के उपक्रम का बीज है और ' सर्वधर्मान परितज्य ' श्लोक [ १८ / ६६ ] में ही इस साधना की सिद्धि है , वही उपसंहार है | फिर त्याग और संन्यास के विषय में अर्जुन की जिज्ञासा के अनुसार , त्याग का यानी कर्मयोग का और संन्यास का यानी सांख्ययोग [ ज्ञानयोग ] का तत्व अलग - अलग समझाकर [ १८ / ५५ ] , तक उस प्रकरण को समाप्त कर दिया ; किन्तु इस वर्णन में भगवान ने यह बात नहीं कही की दोनोंमें से तुम्हारे लिए कौन सा साधन निश्चित - कल्याणकारक है ? अब अर्जुन को भक्तिप्रधान - कर्मयोग ग्रहण कराने के उद्देश्य से इसकी महिमा कहते हैं |
भगवान [ १८ / ५६ - ५७ ] में कहते हैं " मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाता है | " समस्त कर्मों का और उनके फलस्वरूप समस्त भोगों का आश्रय त्यागकर जो भगवान के ही आश्रित हो गया है ; जो अपने मन - इन्द्रियों सहित शरीर को , उसके द्वारा किये जानेवाले समस्त कर्मों को और उनके फल को भगवान के समर्पण करके उन सबसे ममता , आसक्ति और कामना हटाकर भगवान के ही परायण हो गया है , जो भगवान के विधान में सदैव प्रसन्न रहता है , एवं अपने को केवल निमितमात्र समझकर , अपने को सर्वथा भगवान के अधीन समझता है - ऐसे भक्तिप्रधान कर्मयोगी को भगवत - परायण कहते हैं | उपर्युक्त भक्तिप्रधान कर्मयोगी के भाव से भावित और प्रसन्न होकर , उस पर अतिशय अनुग्रह करके भगवान स्वयम ही उसे पराभक्तिरूप बुद्धियोग प्रदान कर देते हैं [ १० / १० ] ; उस बुद्धियोग के द्वारा भगवान के यथार्थ स्वरूप को जानकर जो उस भक्त का भगवान में तन्मय हो जाना है - परमेश्वर में प्रविष्ट हो जाना है - यही उसका उपर्युक्त परमपद को प्राप्त हो जाना है |
इस प्रकार भक्तिप्रधानकर्मयोग की महिमा का वर्णन करके अब अर्जुन को वैसा बनने के लिए आदेश देते हैं - " सब कर्मों को मन से मुझमें अर्पण करके तथा समबुद्धिरूप योग को अवलंबन करके मेरे परायण और निरंतर मुझमें चित्तवाला हो [ १८ / ५७ ] |" मैं कुछ भी नहीं करता - ऐसा समझकर भगवान की आज्ञानुसार उन्हीं के लिए , उन्हीं की प्रेरणा से , जैसे करावें वैसे ही , निमितमात्र बनकर समस्त कर्मों को कठपुतली की भाँती करते रहना - यही समस्त कर्मों को मन से भगवान में अर्पण कर देना है |
मन - बुद्धि को अटल भाव से भगवान में लगा देना ; उठते - बैठते , चलते - फिरते , खाते - पीते , सोते - जागते और समस्त कर्म करते समय भी नित्य - निरंतर मन से भगवान के दर्शन करते रहना - यही निरंतर भगवान में चित्तवाला होना है | यही बात गीता [ ९ / ३४ ; १८ / ६५ ] में ' मन्मना भव ' से भी कही गई है | इस प्रकार भगवान ने , अर्जुन को ' भक्तिप्रधानकर्मयोगी ' बनने की आज्ञा देकर , उसके ' निश्चित कल्याणकारक साधन ' के प्रश्न का प्रत्युत्तर दिया है |
|| इत्ती ||

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