शनिवार, 5 मई 2012

संन्यास और त्याग ; तत्त्व विवेचन

|| संन्यास और त्याग ; तत्त्व विवेचन ||
अर्जुन ने [ १८ / १ ] में पूरी गीता का सार जानने के उद्देश्य से भगवान के सामने संन्यास यानी ज्ञानयोग और त्याग यानी फलासक्ति के त्यागरूप कर्मयोग का तत्त्व भलीभाँती अलग - अलग जानने की इच्छा प्रकट की | प्रत्युत्तर में भगवान ने [ १८ / १३ - १७ तक ] संन्यास [ ज्ञानयोग ] का स्वरूप बतलाया है | गीता श्लोक [ १८ / १९ - ४० तक ] जो सात्विक भाव और कर्म बतलाये हैं , वे इसके साधन में उपयोगी हैं ; और राजस , तामस इसके विरोधी हैं | श्लोक [ १८ / ५० - ५५ तक ] उपासना सहित ज्ञानयोग की विधि और फल बतलाया है तथा श्लोक [ १८ / १७ ] में केवल ज्ञानयोग का साधन करने का प्रकार बतलाया है |
इसी प्रकार [ १८ / ६ ] में [ फलासक्ति के त्यागरूप ] कर्मयोग का स्वरूप बतलाया है | श्लोक [ १८ / ९ ] में सात्विक त्याग के नाम से केवल कर्मयोग के साधन की प्रणाली बतलाई है | श्लोक [ १८ / ४७ , ४८ ] में स्वधर्म के पालन को इस साधन में उपयोगी बतलाया है और श्लोक [ १८ / ७ , ८ ] में वर्णित तामस , राजस त्याग को इसमें बाधक बतलाया है | श्लोक [ १८ / ४५ , ४६ ] में भक्तिमिश्रित कर्मयोग का और श्लोक [ १८ / ५६ - ६६ तक ] भक्तिप्रधान कर्मयोग का वर्णन है | श्लोक [ १८ / ४६ ] में लौकिक और शास्त्रीय समस्त कर्म करते हुए भक्तिमिश्रित कर्मयोग के साधन करने की रीति बतलाई है और श्लोक [ १८ / ५७ ] में भगवान ने भक्तिप्रधान कर्मयोग के साधन करने की रीति बतलाई है |
भगवान [ १८ / ५ , ६ ] में अपना निश्चित किया हुआ उत्तम मत बताते हुए कहते हैं " यज्ञ , दान और तप - ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों को पवित्र करनेवाले हैं ; इसलिए हे पार्थ !इन यज्ञ , दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए |" यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है - इस कथन से भगवान ने यह भाव दिखलाया है की मेरे मतसे इसीका नाम त्याग है ; क्योंकि इस प्रकार कर्म करनेवाला मनुष्य समस्त कर्मबन्धनों से मुक्त होकर परमपद को प्राप्त हो जाता है , कर्मों से उसका कुछ भी संबंध नहीं रहता | भगवान के कथनानुसार समस्त कर्मों में ममता , आसक्ति और फल का त्याग कर देना ही पूर्ण त्याग है | इसके करने से कर्मबंधन का सर्वथा नाश हो जाता है ; क्योंकि कर्म स्वरूपत: बंधनकारक नहीं है ; उनके साथ ममता , आसक्ति और फल का संबंध ही बंधनकारक है | यही भगवान के मत में विशेषता है |
इस प्रकार अपना सुनिश्चित मत बतलाकर अब भगवान शास्त्रों में कहे हुए तामस , राजस और सात्त्विक , इन तीन प्रकार के त्यागों में सात्त्विक त्याग ही वास्तविक त्याग है और वही कर्तव्य है ; दुसरे दोनों त्याग वास्तविक त्याग नहीं हैं , अत: वे करने योग्य नहीं हैं - यह बात समझाने के लिए तथा अपने मत की शास्त्रों के साथ एकवाक्यता दिखलाने के लिए आगे के तीन श्लोकों [ १८ / ७ , ८ , ९ ] में क्रमसे तीन प्रकार के त्यागों के लक्षण बतलाते हैं |
|| इत्ती ||

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