शनिवार, 5 मई 2012

भक्तियोग की श्रेष्ठता

|| भक्तियोग की श्रेष्ठता ||
[ १ ] श्रेष्ठ - भगवान में तल्लीन अंत:करण वाला श्रद्धावान भक्त संपूर्ण योगियों में श्रेष्ठ है [ ६ / ४७ ] | कारण की उसके श्रद्धा - विस्वाश भगवान पर ही होते हैं , उसका आश्रय भगवान ही रहते हैं | ज्ञानयोगी और भक्तियोगी - इन दोनों में भक्तियोगी श्रेष्ठ है [ १२ / २ ] ; कारण की वह नित्य - निरंतर भगवान में ही लगा रहता है | [ २ ] सुगम - भक्त श्रद्धा - भक्ति से जो पत्र , पुष्प , फल , जल आदि भगवान को अर्पण करता है , उसको भगवान खा लेते हैं | इतना ही नहीं , किसीके पास अगर ये भी न हो तो वह जो कुछ करता है , उसे भगवान के अर्पण करने से वह संपूर्ण बन्धनों से मुक्त होकर भगवान को प्राप्त हो जाता है [ ९ / २६ - २८ ] | कारण की भक्त में भगवान को अर्पण करने का भाव रहता है , और भगवान भी भावग्राही हैं | [ ३ ] शीघ्र - सिद्धि - भगवान में लगे हुए चित्त वाले भक्त का उद्धार भगवान बहुत जल्दी कर देते हैं [ १२ / ७ ] | कारण की वह केवल भगवान के ही परायण रहता है ; अत: उसका उद्धार करनेकी जिम्मेवारी भगवान पर आ जाती है | [ ४ ] पापों का नाश - भगवान अपने शरणागत भक्त को संपूर्ण पापों से मुक्त कर देते हैं [ १८ / ६६ ] | कारण की सर्वथा शरणागत भक्त की संपूर्ण जिम्मेवारी भगवान पर ही आ जाती है | [ ५ ] संतुष्टि - भगवान में मन लगाने पर भक्त संतुष्ट हो जाता है [ १० / ९ ] | कारण की भगवान में ज्यों - ज्यों मन लगता है , त्यों - त्यों उसे संतोष होता है की मेरा समय भगवान के चिंतन में लग रहा है | सिद्धावस्था में वह संतोष भक्त में स्वत: रहता है [ १२ / १४ ] | कारण की उसको भगवतप्राप्ति हो गई होती है | [ ६ ] शान्ति की प्राप्ति - भक्त परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है [ ६ / १५ ] ; [ ९ / ३१ ] | कारण की उसका आश्रय केवल भगवान ही रहते हैं | [ ७ ] समता की प्राप्ति - भगवान अपने भक्त को वह समता देते हैं , जिससे वह भगवान को प्राप्त हो जाता है [ १० / १० ] | कारण की वे केवल भगवान में ही लगे रहते हैं , भगवान के सिवाय कुछ भी नहीं चाहते | [ ८ ] ज्ञान की प्राप्ति - भगवान स्वयम अपने भक्त के अज्ञान का नाश करते हैं [ १० / ११ ] | कारण की भक्त केवल भगवान में ही लगा रहता है , भगवान के सिवाय कुछ चाहता ही नहीं | अत: भगवान अपनी तरफ से ही उसके अज्ञान का नाश करके भगवततत्त्व का ज्ञान करा देते हैं | [ ९ ] प्रसन्नता - [ स्वच्छता ] की प्राप्ति : - भक्त का अंत:करण प्रसन्न , स्वच्छ हो जाता है [ ६ / १४ ] | कारण की भगवतप्राप्ति के सिवाय भक्त का अन्य कोई उद्देश्य नहीं रहता |
|| इत्ती ||

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