शनिवार, 5 मई 2012

आत्मज्ञान से सर्वद्रष्टा के दर्शन

|| आत्मज्ञान से सर्वद्रष्टा के दर्शन ||
रोगी को क्या रोग की चाह रहती है , दरिद्र को क्या दरिद्रता की इच्छा रहती है , फिर भी जिस बलिष्ठ प्रारब्धानुसार उन्हें रोग या दरिद्रता भोगनी ही पडती है , वह प्रारब्ध ईश्वर के वश होने के कारण अन्यथा कभी नहीं होता | वह ईश्वर भी तुम्हारे हृदय में बसता है | वह ईश्वर सम्पूर्ण भूतों के अहंकार से आवृत हो सर्वदा उल्लसित है | निजमायारुपी परदे की आड में खड़ा हो वह अकेला डोरी हिलाता है और बाहर की ओर चौरासी लाख छायाचित्रों को सजाता और ब्रह्मा से लेकर चींटी तक सब भूतों को उनकी योग्यतानुसार देहाकार दिखाता है एवं जिसके सम्मुख , उसकी योग्यतानुसार , जो देह रखता है उसे वह जीव समझता है , की यह मैं ही हूँ | इस बुद्धि से वह जीव उस देह पर आरूढ़ हो जाता है | इस प्रकार शरीर रुपी यंत्रों पर जीवों को बैठाकर वह ईश्वर आप पूर्व - कर्मरुपी सूत्र हिलाता है | भगवान गीता [ १८ / ६१ - ६३ ] में कहते हैं " हे धनुर्धर ! वायु जैसे तिनकों को आकाश में घुमाती है वैसे ही ईश्वर प्राणियों को स्वर्ग और संसार में घुमाता है | जो मूल प्रकृति के वश अनेक जीवों को उनके व्यापार में प्रवृत करता है वह एक ईश्वर तुम्हारे हृदय में है |
हे पांडव ! अर्जुनत्व को छोड़ तुममें जो अहंवृति उठती है , वही उस ईश्वर का तात्विक स्वरूप है | अर्थात ईश्वर स्वामी है , वह प्रकृति का नियमन करता है और प्रकृति अपनी इच्छानुसार इन्द्रियों से कर्म करवाती है | तुम्हें चाहिए की करना , न करना दोनों प्रकृति को सौंपकर , प्रकृति भी जिस हृदयस्थ ईश्वर के अधीन है , उसे अपना अहंकार , काया , वाचा और मन अर्पण कर गंगाजल जैसे समुद्र की शरण में जाता है , वैसे ही तुम उसकी शरण में जाओ | उसके प्रसाद [ कृपा ] से तुम सब विषयों की उपशांतिरुपी स्त्री के पति हो , आत्मानंद से निजरूप में ही रमण करोगे | तथा उत्पत्ति जहां से उत्पन्न होती है , विश्रान्ति जहां विश्राम पाती है , अनुभूति जिस अनुभव का अनुभव लेती है , लक्ष्मीनाथ कहते हैं , हे पार्थ ! उस अक्षय स्वात्म-पद के तुम राजा बन जाओगे |
यह जो गीता नाम से प्रसिद्ध है , जो सब वेदों का सार है , जिससे आत्मा रत्न के समान करगत हो सकता है , वेदान्त ने ज्ञान नाम से जिसकी महिमा वर्णन की है , अत: सब संसार में जिसकी उत्तम कीर्ति फ़ैल गई है , बुद्धि आदि ज्ञान जिस ज्ञान के सम्मुख अंधकाररूप है , जिसका उदय होते ही मैं सर्वद्रष्टा दिखाई देता हूँ , वह आत्मज्ञान मुझ सर्वगुण का भी गुप्तधन है , परन्तु तुम्हें पराया समझकर मैं उस गुप्तधन का क्या करू ? अतएव हे पांडव ! मैंने कृपा से व्याप्त हो वह गुप्तधन तुम्हें दे दिया | जैसे सूर्य को भी अंजन लगाया जाय वैसे ही मुझ सर्वज्ञ ने भी सब बातों की छानबीन कर निश्चय किया और हे धनंजय ! जो तुम्हारे हित का था वही उपदेश किया | अब इस पर तुम्हें क्या करना चाहिए , इसका तुम भी विचार कर निश्चय करो और फिर जैसा चाहो वैसा करो |
|| इत्ती ||

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