शनिवार, 5 मई 2012

सनातन कृष्ण [ धूम / पितरयान ] मार्ग का वर्णन

|| सनातन कृष्ण [ धूम / पितरयान ] मार्ग का वर्णन ||
जिस मार्ग से गए हुए साधक वापस लौटते हैं , उसका वर्णन करते हुए भगवान गीता [ ८ / २५ ] में कहते हैं " जिस मार्ग में धूमाभिमानी देवता है , रात्री - अभिमानी देवता है तथा कृष्णपक्ष का अभिमानी देवता है और दक्षिणायन के छ: महीनों का अभिमानी देवता है , उस मार्ग में मरकर गया हुआ सकाम कर्म करनेवाला योगी उपर्युक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले गया हुआ चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने शुभकर्मों का फल भोगकर वापस आता है |"
यहाँ ' धूम: ' पद अन्धकार के अभिमानी देवता का वाचक है | उसका स्वरूप अन्धकारमय होता है | अग्नि - अभिमानी देवता की भाँती पृथ्वी के ऊपर समुद्र सहित समस्त देशमें इसका भी अधिकार है तथा दक्षिणायन - मार्ग से जानेवाले साधकों को रात्री - अभिमानी देवता के पास पहुँचा देना इसका काम है | दक्षिणायन - मार्ग से जानेवाला जो साधक दिन में मर जाता है , उसे यह दिनभर अपने अधिकार में रखकर रात्री का आरंभ होते ही रात्री - अभिमानी देवता को सौंप देता है और जो रात्री में मरता है , उसे तुरंत ही रात्री - अभिमानी देवता के अधीन कर देता है | यहाँ ' रात्री: ' पद को भी रात्री के अभिमानी देवता का ही वाचक समझना चाहिए | दिन के अभिमानी देवता की भाँती इसका अधिकार भी जहां तक पृथ्वीलोक की सीमा है , वहाँ तक है | भेद इतना ही है की पृथ्वी लोक में जिस समय जहां दिन रहता है , वहाँ दिन के अभिमानी देवता का अधिकार रहता है और जिस समय जहां रात्री रहती है , वहाँ रात्री - अभिमानी देवता का अधिकार रहता है | दक्षिणायन - मार्ग से जानेवाले साधक को पृथ्वीलोक की सीमा से पार करके अंतरिक्ष में कृष्णपक्ष के अभिमानी देवता के अधीन कर देना इसका काम है | यदि वह साधक शुक्लपक्ष में मरता है , तब तो उसे कृष्णपक्ष आने तक अपने अधिकार में रखकर और यदि कृष्णपक्ष में मरता है तो तुरंत ही अपने अधिकार से पार करके कृष्णपक्षाभिमानी देवता के अधीन कर देता है | इस प्रकार क्रम से दक्षिणायन अभिमानी देवता , पित्रलोकाभिमानी देवता , आकाशाभिमानी देवता को और वहाँ से चन्द्रमा के लोक में पहुँचा देता है | यहाँ चन्द्रमा का लोक उपलक्षणमात्र है ; अत: ब्रह्मा के लोक तक जितने भी पुनरागमन - शील लोक हैं , चन्द्रलोक से उन सभी को समझ लेना चाहिए |
स्वर्गादि के लिए पुण्यकर्म करनेवाला पुरुष भी अपनी ऐहिक भोगों की प्रवृति का निरोध करता है , इस दृष्टि से उसे भी ' योगी 'कहा गया है | इसके अतिरिक्त योगभ्रष्ट पुरुष भी इस मार्ग से स्वर्ग में जाकर , वहाँ कुछ कालतक निवास करके वापस लौटते हैं | वे भी इसी मार्ग से जानेवालों में हैं | अत: उनको ' योगी ' कहना उचित ही है | यह मार्ग उच्च लोकों की प्राप्ति के अधिकारी शास्त्रीय कर्म करनेवाले पुरुषों के लिए ही है [ २ / ४२ , ४३ , ४४ तथा ९ / २० , २१ आदि ] |
चन्द्रमा के लोक में जानेवाला साधक उस लोक में शीतल प्रकाशमय दिव्य देवशरीर पाकर अपने पुण्यकर्मों के फलस्वरूप दिव्य भोगों को भोगता है | वहाँ रहने का नियत समय समाप्त हो जाने पर इस मृत्युलोक में वापस लौटता है | वह चन्द्रलोक से आकाश में आता है , वहाँ से वायुरूप हो जाता है , फिर धूम के आकार में परिणित हो जाता है , धूम से बादल में आता है , बादल से मेघ बनता है , इसके अनंतर जल के रूप में पृथ्वी पर बरसता है , वहाँ गेहूं ,जो , तिल , उडद आदि बीजों में या वनस्पतियों में प्रविष्ट होता है | उनके द्वारा पुरुष वर्ग , फिर क्रमश: सम्बन्धित स्त्री वर्ग में अपने कर्मानुसार योनी को पाकर जन्म ग्रहण करता है |
परमेश्वर के परमधाम में जाने का जो मार्ग है , वह प्रकाशमय - दिव्य है | उसके अधिष्ठात्रिदेवता भी सब प्रकाशमय हैं ; और उसमें गमन करनेवालों के अंत:करण में भी सदा ही ज्ञान का प्रकाश रहता है ; इसलिए इस मार्ग का नाम ' शुक्ल ' रखा गया है | तथा जो ब्रह्मा के लोक तक समस्त देवलोकों में जाने का मार्ग है , वह शुक्लमार्ग की अपेक्षा अन्धकारयुक्त है | उसके अधिष्ठात्रीदेवता भी अन्धकारस्वरूप हैं और उसमें गमन करनेवाले लोग भी अज्ञान से मोहित रहते हैं | इसलिए उस मार्ग का नाम ' कृष्ण ' रखा गया है |
|| इत्ती ||

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