शनिवार, 5 मई 2012

योगनिष्ठां [ निष्काम कर्मयोग ] का स्वरूप

|| योगनिष्ठां [ निष्काम कर्मयोग ] का स्वरूप ||
सब कुछ भगवान का समझकर सिद्धि - असिद्धि में समभाव रखते हुए , आसक्ति और फलकी इच्छा का त्याग करके भगवत - आज्ञानुसार सब कर्मों का आचरण करना [ २ / ४७ - ५१ ] अथवा श्रधाभक्तिपूर्वक मन , वाणी और शरीर से सब प्रकार भगवान की शरण होकर नाम , गुण , और प्रभाव सहित उनके स्वरूप का निरंतर चिंतन करना [ ६ / ४७ ] , यही ' योगनिष्ठां ' है | इसी का भगवान ने समत्वयोग , बुद्धियोग , तदर्थकर्म , मदर्थकर्म एवं सात्विक त्याग आदि नामों से उल्लेख किया है | योगनिष्ठां में सामान्यरूप से अथवा प्रधानरूप से भक्ति रहती ही है | गीतोक्त योगनिष्ठां भक्ति से शून्य नहीं है | जहां भक्ति अथवा भगवान का स्पष्ट शब्दों में उल्लेख नहीं है [ २ / ४७ - ५१ ] , वहाँ भी भगवान की आज्ञा का पालन तो है ही - इस दृष्टि से भक्ति का सम्बन्ध वहाँ भी है ही |
योगनिष्ठां के भी तीन मुख्य भेद हैं : - [ १ ] कर्मप्रधान कर्मयोग - समस्त कर्मों में और सांसारिक पदार्थों में फल और आसक्ति का सर्वथा त्याग करके अपने वर्णाश्रम धर्मानुसार शास्त्रविहित कर्म करते रहना ही कर्मप्रधान कर्मयोग है | इसके उपदेश में कहीं - कहीं भगवान ने केवल फल के त्याग की बात कही है [ ५ / १२ ; ६ / १ ; १२ / ११ ; १८ / ११ ] , कहीं केवल आसक्ति के त्याग की बात कही है [ ३ / १९ ; ६ / ४ ] और कहीं फल और आसक्ति दोनों के छोड़ने की बात कही है [ २ / ४७ , ४८ ; १८ / ६ , ९ ] | अर्थात कर्मयोग का साधन वास्तव में तभी पूर्ण होता है जब फल और आसक्ति दोनों का ही त्याग होता है |
[ २ ] भक्तिमिश्रित कर्मयोग - इसमें सारे संसार में परमेश्वर को व्याप्त समझते हुए अपने - अपने वर्णोंचित कर्म के द्वारा भगवान की पूजा करने की बात कही गई है [ १८ / ४६ ] , इसलिए इसको भक्तिमिश्रित कर्मयोग कह सकते हैं |
[ ३ ] भक्तिप्रधान कर्मयोग - [ क ] भगवद - अर्पण कर्म: - पूर्ण भगवद - अर्पण कर्म तो वह है जिसमें समस्त कर्मों में ममता , आसक्ति और फलेच्छा को त्यागकर तथा यह सब कुछ भगवान का है , मैं भी भगवान का हूँ और मेरे द्वारा जो कर्म होते हैं वे भी भगवान के ही हैं , भगवान ही मुझसे कठपुतली की भांति सब कुछ करवा रहे हैं - ऐसा समझते हुए भगवान की आज्ञानुसार , भगवान की ही प्रसन्नता के लिए शास्त्रविहित कर्म किये जाते हैं [ ३ / ३० ; १२ / ६ ; १८ / ५७ , ६६ ] |
इसके अतिरिक्त पहले किसी दूसरे उद्देश्य से किये हुए कर्मों को पीछे से भगवान के अर्पण कर देना , कर्म करते - करते बीच में ही भगवान के अर्पण कर देना , कर्म समाप्त होने के साथ - साथ भगवान के अर्पण कर देना अथवा कर्मों का फलमात्र भगवान के अर्पण कर देना - यह भी ' भगवद-अर्पण ' का ही प्रकार है |
[ ख ] भगवदर्थ कर्म - जो शास्त्रविहित कर्म भगवत - प्राप्ति , भगवत - प्रेम अथवा भगवान की प्रसन्नता के लिए भगवद - आज्ञानुसार किये जाते हैं वे तथा जो भगवान के विग्रह आदि का अर्चन तथा भजन - ध्यान आदि उपासनारूप कर्म जो भगवान के ही निमित्त किये जाते हैं और स्वरूप से भी भगवत - सम्बन्धी होते हैं , वे दोनों ही ' भगवदर्थ ' कर्म के अंतर्गत हैं | इन दोनों प्रकार के कर्मों का ' मत्कर्म ' और ' मदर्थ कर्म ' नाम से भी गीता में उल्लेख हुआ है [ ११ / ५५ ; १२ / १० ] |
|| इत्ती ||

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