शनिवार, 5 मई 2012

अव्यभिचारिणी भक्ति से ब्रह्म - प्राप्ति

|| अव्यभिचारिणी भक्ति से ब्रह्म - प्राप्ति ||
भगवान गीता [ १४ / २६ - २७ ] में कहते हैं " जो मनुष्य चित्त में दूसरा विषय न रखकर भक्तियोग से मेरी सेवा करता है वह गुणों का नाश कर सकता है | अतएव मैं कैसा हूँ , भक्ति कैसी होती है , एकनिष्ठ भक्ति का क्या लक्षण है , ये सब बातें स्पष्ट कहनी चाहिए | हे पार्थ ! सुनो | संसार में मैं ऐसा हूँ जैसे रत्न का तेज और रत्न [ यानी एक ही वस्तु ] , अथवा जैसे द्रवत्व ही पानी है , अवकाश ही आकाश है , या मधुरता ही शक्कर है दूसरी वस्तु नहीं | जैसे अग्नि ही ज्वाला है , वृक्ष ही जैसे शाखा या फूल आदि है , अथवा जमा हुआ दूध ही जैसे दही कहलाता है वैसे ही विश्व के नाम से सम्पूर्ण मैं ही प्रकट हुआ हूँ [ श्लोक ९ / १९ ] | जैसे आभूषण गलाया न जाय तथापि वह सोना ही है , वस्त्र [ थान ] की तह जैसे खोली न जाय तथापि वह तन्तु ही है , घडा जैसे चूर न किया जाय तथापि वह मिटटी ही है वैसे ही मैं ऐसा नहीं हूँ की विश्वत्त्व दूर करने पर ही दिखाई दूं | सब विश्व - समेत मैं ही हूँ [ श्लोक ७ / १९ ] | इस प्रकार मुझे जानना अव्यभिचारिणी भक्ति कहाती है | संसार में कुछ भी भेद जान पड़ा की वह व्यभिचार हुआ | इसलिए भेद को छोड़ अभेद - चित्त से निज के समेत सब मद्रूप ही जानो | हे पार्थ ! जैसे सोने के ताबीज में सोने का ही कुंडा रहता है वैसे ही निज को कोई दूसरा मत मानो | किरणें जैसे सूर्य की होती हैं , सूर्य से ही उत्पन्न होती हैं , परन्तु सूर्य से ही लगी हुई है ; ऐसे ही निज को जानो | हिमालय में जैसे हिमकण रहते हैं , वैसे ही निज को मुझ में जानो | तरंगें जैसे समुद्र से भिन्न नहीं रहती , वैसे ही जब दृष्टि ऐसी एकता से विकसित होती है की मैं ईश्वर में हूँ , अतएव जुदा नहीं हूँ , तब उसे हम भक्ति कहते हैं | ज्ञान की उत्तम स्थिति भी इसी दृष्टि को समझनी चाहिए , तथा योग का सर्वस्व भी यही है |
जैसे कुऐ के मुंह और आकाश में कोई जोड़ न रह कर दोनों एक में ही मिल रहते हैं वैसे ही वह भक्त परम पुरुष में मिला रहता है | जैसे घास को जलाकर आग अपने आप बुझ जाती है वैसे ही भेद का नाश कर ज्ञान आप भी नहीं रहता | यह भेद नहीं रहता की मैं दूर हूँ और भक्त यहीं है | अनादीकाल से जो हमारी एकता है वही बनी रहती है | बहुत क्या कहें , हे मर्मज्ञ अर्जुन ! ऐसी जो दशा है वही ब्रह्मत्व है | यह दशा उसे प्राप्त होती है जो मेरी भक्ति करता है | जैसे गंगा के प्रवाह में जो पानी बहता है उसके लिए योग्य स्थल समुद्र ही है , दूसरा नहीं , वैसे ही हे किरीटी ! जो ज्ञान दृष्टि से मेरी भक्ति करता है वह ब्रह्मता के मुकुट का चुडामनी बनता है | इसी ब्रह्मत्व को सायुज्यता कहते हैं | इसी का नाम चौथा पुरुषार्थ है | परन्तु यह देख कर की मेरी सेवा ब्रह्मत्व को पहुंचने का मार्ग है , कहीं यह न समझ लेना की मैं ब्रह्मत्व का साधन हूँ , क्योंकि मेरे अतिरिक्त ब्रह्म कुछ दूसरी वस्तु नहीं है | हे पांडव ! ब्रह्म नाम का जो अर्थ है वह मैं ही हूँ | इन शब्दों से मेरा ही वर्णन किया जाता है | हे मर्मज्ञ ! चन्द्रमंडल और चन्द्रमा जैसे दो वस्तूवें नहीं हैं वैसे ही मुझमें और ब्रह्म में भेद नहीं है | जो नित्य है , अचल है , अनावृत है , धर्मरूप है , अपार है , अद्वितीय है , बहुत क्या कहूँ , अपना ही नाश कर ज्ञान जिस सिद्धांत के अपरिमित स्थान में लीन होता है , वह वस्तु मैं ही हूँ |"
|| इत्ती ||

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