शनिवार, 5 मई 2012

केवल भक्ति से विश्वरूप - दर्शन संभव है

|| केवल भक्ति से विश्वरूप - दर्शन संभव है ||
भगवान गीता [ ११ / ५२ - ५५ ] में विश्वरूप की दुर्लभता बताते हुए कहते हैं " हे अर्जुन ! जो विश्वात्मक रूप हमने तुम्हें बताया वह शंकर को , इतना तप करने पर भी नहीं जुडता और हे किरीटी ! योगीजन अष्टांग योग आदि के कष्ट सहते हैं तथापि उन्हें जिसकी भेंट का कभी अवसर नहीं प्राप्त होता | देवता भी इसके दर्शन को तरसते हैं | जिस विश्वरूप के समान वस्तु किसीको स्वप्न में भी नहीं दिखाई देती , सो यह स्वरूप तुमने सुख से देख लिया | हे सुभट ! इस रूप की प्राप्ति के लिए साधनों के मार्ग नहीं हैं तथा छहों शास्त्रों सहित वेद भी इससे हार खा चुके हैं | हे धनुर्धर ! मुझ विश्वरूप के मार्ग से चलने के लिए सब तपों के समूह में भी योग्यता नहीं है तथा दान आदि साधनों से भी मेरी प्राप्ति होना निश्चय से कठिन है | यज्ञों से भी मैं वैसा हाथ नहीं आता जैसा तुमने मुझे सुख से देख लिया | ऐसा मैं एक ही रीति से प्राप्त हो सकता हूँ अर्थात जब भक्ति आकर चित्त को जय- माल पहनावे |
परन्तु वह भक्ति ऐसी हो जैसी की वर्षा की धारा , जो पृथ्वी के अतिरिक्त दूसरी गति ही नहीं जानती ; अथवा सब जल संपदा लेकर जैसे गंगा समुद्र की खोज करती है और अनन्य गति से बारंबार उसी से मिलती है , वैसे ही भक्ति सब भावों के समूहसहित हृदय में न समाते हुए प्रेम से मुझमें मद्रूप हो प्रवेश करे | और मैं ऐसा हूँ जैसा की क्षीरसमुद्र , जो तीर पर तथा मध्य में समान ही क्षीर का बना रहता है ; और , मुझसे लेकर चींटी तक - किंबहुना चराचर में - भजन के लिए दूसरी वस्तु ही नहीं है | जो ऐसी भक्ति प्राप्त हो तो उसी क्षण मेरे इस रूप का ज्ञान होता और सहज दर्शन भी हो जाता है | फिर जैसे ईंधन नाम को नहीं रहता और मूर्तिमान अग्नि हो रहता है , अथवा जब तक सूर्य का उदय नही होता तब तक अन्धकार गगनरूप हो रहता है ; परन्तु उदय होते ही एकदम प्रकाशमय हो जाता है , वैसे ही मेरे साक्षात्कार से अहंकार का आवागमन बंद हो जाता है और अहंकार का लोप होते ही द्वेत का नाश हो जाता है | फिर वह भक्त , मैं और यह संपूर्ण विश्व , स्वभावत: एकमय ही हो रहते हैं | बहुत क्या कहें , वह भक्त ही सर्वत्र एकरूपता से समा जाता है |
जो केवल मुझे ही अपने सब कर्म समर्पित करता है , जिसे मेरे अतिरिक्त जगत में और कुछ भला नहीं दिखाई देता , जिसके इहलोक और परलोक सब एक मैं ही हूँ , जिसने अपने जीवन का फल मुझे ही निश्चित कर रखा है , और जो प्राणियों के भेद भूल गया है , क्योंकि उसकी दृष्टि में मैं ही भर गया हूँ - अतएव जो निर्वैर हो गया है , और सर्वदा भजन करता है , ऐसा जो भक्त हो , उसका जब यह कफ-वात - पित्तात्मक शरीर छूटता है तब हे पांडव ! वह मद्रूप हो रहता है |"
|| इत्ती ||

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