शनिवार, 5 मई 2012

निर्गुण - ब्रह्म की प्राप्ति ही परम गति है

|| निर्गुण - ब्रह्म की प्राप्ति ही परम गति है ||
भगवान गीता [ ८ / १० - १३ ] में परम दिव्य पुरुष का स्वरूप बतलाकर अब साधन की विधि और फल बतलाते हैं | भगवद - विषयक अनुराग का नाम भक्ति है ; जिसमें भक्ति होती है , वही भक्ति से युक्त है | इससे पूर्व [ श्लोक ८ / ८ ] बतलाया हुआ अभ्यासयोग [ अष्टांगयोग ] ही ' योग ' है , योगाभ्यास से उत्पन्न जो यथायोग्य प्राण - संचालन और प्राणनिरोध का सामर्थ्य है , उसका नाम ' योगबल ' है | दोनों भोंहों के बीच में जहां योगशास्त्र के जाननेवाले पुरुष ' आज्ञाचक्र ' बतलाया करते हैं , वही भृकुटी के मध्य का स्थान है | कहते हैं की यह आज्ञाचक्र द्विदल है | इसमें त्रिकोण योनी है | अग्नि , सूर्य और चन्द्र इसी त्रिकोण में एकत्र होते हैं | जानकार योगी पुरुष महाप्रयाण के समय योगबल से प्राणों को यहीं लाकर स्थिर रूप से निरुद्ध कर देते हैं | इसीका नाम अच्छी तरह प्राणों का स्थापन करना है | इस आज्ञाचक्र के समीप सप्त कोष हैं , जिनके नाम हैं - इंदु , बोधिनी , नाद , अर्धचन्द्रिका , महानाद [ सोमसुर्याग्नीरूपिणी ] कला और उन्मनी ; प्राणों के द्वारा उन्मनी कोष में पहुंच जाने पर जीव परम पुरुष को प्राप्त हो जाता है | फिर उसका पराधीन होकर जन्म लेना बंद हो जाता है | वह या तो जन्म लेता ही नहीं , लेता है तो लोकोपकार के लिए स्वेच्छा से या भगवद - इच्छा से |
आगे [ ८ / ११ ] यह भाव दिखलाया गया है की वेद के जाननेवाले ज्ञानी महात्मा पुरुष ही उस ब्रह्म के विषय में कुछ कह सकते हैं , इसमें अन्य लोगों का अधिकार नहीं है | वे महात्मा कहते हैं की यह ' अक्षर ' है अर्थात यह एक ऐसा महान तत्व है , जिसका किसी भी अवस्था में कभी भी किसी भी रूप में क्षय नहीं होता ; यह सदा अविनश्वर , एकरस और एक रूप रहता है | गीता [ १२ / ३ ] में जिस अव्यक्त अक्षर की उपासना का वर्णन है , यहाँ भी यह उसीका प्रसंग है | यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए की इस प्रवेश का अर्थ ' कोई आदमी बाहर से किसी घर में घुस गया ' ऐसा नहीं है | परमात्मा तो अपना स्वरूप होने से नित्य प्राप्त ही है , इस नित्यप्राप्त तत्व में जो अप्राप्ति का भ्रम हो रहा है - उस अविद्यारूप भ्रम का मिट जाना ही उसमें प्रवेश करना है |
आगे [ ८ / १२ - १३ ] सब द्वारों के रोकने का मतलब है , श्रोत्र आदि पांच ज्ञानेंद्रियाँ और वाणी आदि पांच कर्मेंद्रियां - इन दसों इन्द्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर अर्थात देखने , सुनने आदि की समस्त क्रियाओं को बंद करके , साथ ही इन्द्रियों के गोलकों [ रहने के स्थानों ] को भी रोककर , इन्द्रियों की वृति को अंतरमुख कर लेना ही सब द्वारों का संयम करना है | नाभि और कंठ - इन दोनों स्थानों के बीच का स्थान , जिसे हृदयकमल भी कहते हैं और जो मन तथा प्राणों का निवासस्थान माना गया है , हृद्देश है ; और इधर - उधर भटकनेवाले मन को संकल्प - विकल्पों से रहित करके हृदय में निरुद्ध कर देना ही उसको हृद्देश में स्थिर करना है | मनको हृदय में रोकने के बाद प्राणों को ऊर्ध्वगामी नाडी के द्वारा हृदय से ऊपर उठाकर मस्तक में स्थापित करने के लिए कहा गया है , ऐसा करने से प्राणों के साथ - साथ मन भी वहीं जाकर स्थित हो जाता है | उपर्युक्त प्रकार से इन्द्रियों का संयम और मन तथा प्राणों का मस्तक में भली - भाँती निश्चल हो जाना ही योगधारणा में स्थित रहना है |
गीता [ १० / २५ ] में भी ओंकार को ' एक अक्षर ' कहा है | यह अद्वितीय अविनाशी परब्रह्म परमात्मा का नाम है और नाम तथा नामी में वास्तव में अभेद माना गया है ; इसलिए भी ओंकार को ' एक अक्षर ' और ' ब्रह्म ' कहना उचित ही है | कठोपनिषद में भी कहा है '' यह अक्षर ही ब्रह्म है , यह अक्षर ही परम है ; इसी अक्षर को जानकर ही जो जिसकी इच्छा करता है , उसे वही प्राप्त हो जाता है |" अत: निर्गुण - निराकार ब्रह्म को अभेद भाव से प्राप्त हो जाना , परम गति को प्राप्त होना है ; इसीको सदा के लिए आवागमन से मुक्त होना , मुक्ति - लाभ कर लेना , मोक्ष को प्राप्त होना अथवा ' निर्वाण ब्रह्म ' को प्राप्त होना कहते हैं |
|| इत्ती ||

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