शनिवार, 5 मई 2012

सर्वोत्तम भक्त ही सर्वोत्तम योगी है

|| सर्वोत्तम भक्त ही सर्वोत्तम योगी है ||
भगवान गीता [ ६ / ४७ ] में अनन्यप्रेम करनेवाले भक्त योगी की प्रशंसा करते हुए कहते हैं " सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रधावान योगी मुझमें लगे हुए अंतरात्मा से मुझको निरंतर भजता है , वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है |" जो भगवान की सत्ता में , उनके अवतारों में , उनके वचनों में , उनके अचिंत्यानंत दिव्य गुणों में तथा नाम और लीला में एवं उनकी महिमा , शक्ति , प्रभाव और ऐश्वर्य आदि में प्रत्यक्ष के सदृश पूर्ण और अटल विश्वास रखता हो उसे ' श्रद्धावान ' कहते हैं | भगवान को ही सर्वश्रेष्ठ , सर्वगुनाधार , सर्वशक्तिमान और महान प्रियतम जान लेने से जिसका भगवान में ही अनन्यप्रेम हो गया है और इसलिए जिसका मन - बुद्धिरूप अंत:करण अचल , अटल , और अनन्यभाव से भगवान में ही स्थित हो गया है , उस अंत:करण को ' मद्गत अंतरात्मा ' या मुझमें लगा हुआ अंतरात्मा कहते हैं |
यहाँ ' माम ' पद सगुन- निर्गुण समग्र ब्रह्म पुरुषोत्तम का वाचक है | सब प्रकार और सब ओर से अपने मन - बुद्धि को भगवान में लगाकर परम श्रद्धा और प्रेम के साथ , चलते - फिरते , उठते - बैठते , खाते - पीते , सोते - जागते , प्रत्येक क्रिया करते अथवा एकांत में स्थित रहते , निरंतर श्रीभगवान का भजन - ध्यान करना ही ' भजते ' का अर्थ है |
भगवान कहते हैं " यद्यपि मुझे तपस्वी , ज्ञानी और कर्मी आदि सभी प्यारे हैं और इन सबसे भी वे योगी मुझे अधिक प्यारे हैं जो मेरी ही प्राप्ति के लिए साधन करते हैं , परन्तु जो मेरे समग्ररूप को जानकर मुझसे अनन्यप्रेम करता है , केवल मुझको ही अपना परम प्रेमास्पद मानकर , किसी बातकी अपेक्षा , आकांक्षा और परवाह न रखकर अपने अंतरात्मा को दिन - रात मुझमें ही लगाए रखता है , मात्परायण शिशु की भाँती जो मुझको छोड़कर और किसीको जानता ही नहीं , वह तो मेरे हृदय का परम धन है | मैं अपने हृदय से उसकी ओर देखता रहता हूँ , और उसकी प्रत्येक चेष्टा मुझको अपार सुख पहुंचानेवाली होती है | मैं अनंत आनंद का सागर होकर भी अपने उस भक्त की चेष्टा देख - देखकर परम आनंद को प्राप्त होता रहता हूँ | उसकी क्या बडाई करूं ? वह मेरा अपना है , मेरा ही है , उससे बढकर मेरा प्रियतम और कौन है ? जो मेरा प्रियतम है , वही तो श्रेष्ठ है , इसलिए मेरे मन में वही सर्वोत्तम भक्त है और वही सर्वोत्तम योगी है |"
यह सही है की भय और द्वेष आदि कारणों से भी मन - बुद्धि भगवान में लग सकते हैं और किसी भी कारण से मन - बुद्धि के परमात्मा में लग जाने का फल परम कल्याण ही है | परन्तु यहाँ का प्रसंग प्रेमपूर्वक भगवान में मन - बुद्धि लगाने का है ; भय और द्वेषपूर्वक नहीं | क्योंकि भय और द्वेष से जिसके मन - बुद्धि भगवान में लग जाते हैं , उसको न तो श्रद्धावान ही कहा जा सकता है और न परम योगी ही माना जा सकता है | इसके अतिरिक्त गीता में स्थान - स्थान पर [ ७ / १७ ; ९ / १४ ; १० / १० ] प्रेमपूर्वक ही भगवान में मन - बुद्धि लगाने की प्रशंसा की गई है |
|| इत्ती ||

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