शनिवार, 5 मई 2012

गीता में अनन्य - भक्ति का स्वरूप

|| गीता में अनन्य - भक्ति का स्वरूप ||
भगवान गीता [ ११ / ५४ - ५५ ] में अनन्य भक्ति के द्वारा अपने को देखना , जानना और एकीभाव से प्राप्त करना सुलभ बतलाते हैं | भगवान में ही अनन्य प्रेम हो जाना तथा अपने मन , इन्द्रिय और शरीर एवं धन , जन आदि सर्वस्व को भगवान का समझकर भगवान के लिए भगवान की ही सेवा में सदा के लिए लगा देना - यही अनन्य भक्ति है | सांख्ययोग के द्वारा निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति बतलाईगयी है ; और वह सर्वथा सत्य है | परन्तु सांख्ययोग के द्वारा सगुण - साकार भगवान के दिव्य चतुर्भुजरूप के भी दर्शन हो जायं , ऐसा नहीं कहा जा सकता | क्योंकि सांख्ययोग के द्वारा साकाररूप में दर्शन देने के लिए भगवान बाध्य नहीं है | यहाँ प्रकरण भी सगुण भगवान के दर्शन का ही है | अतएव यहाँ केवल अनन्य भक्ति को ही भगवद -दर्शन आदि में हेतु बतलाना उचित ही है |
आगे [ ११ / ५५ ] कहते हैं " हे अर्जुन ! जो पुरुष केवल मेरे ही लिए सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को करने वाला है , मेरे परायण है , मेरा भक्त है , आसक्ति रहित है और सम्पूर्ण भूतप्राणियों में वैरभाव से रहित है - वह अनन्यभक्तियुक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है |" जो मनुष्य स्वार्थ , ममता और आसक्ति को छोड़कर , सब कुछ भगवान का समझकर , अपने को केवल निमित्त मात्र मानता हुआ यज्ञ , दान , तप और खान - पान , व्यवहार आदि समस्त शास्त्रविहित कर्तव्यकर्मों को निष्कामभाव से भगवान की ही प्रसन्नता के लिए भगवान की आज्ञानुसार करता है - वह ' मत्कर्मकृत ' अर्थात भगवान के लिए भगवान के कर्मों को करनेवाला है | जो भगवान को ही परम आश्रय , परमगति , एकमात्र शरण लेनेयोग्य , सर्वोत्तम , सर्वाधार , सर्वशक्तिमान , सबके सुहृद , परम आत्मीय और अपने सर्वस्व समझता है तथा उनके किये हुए प्रत्येक विधान में सदा सुप्रसन्न रहता है - वह ' मत्परम: ' अर्थात भगवान के परायण है |
भगवान में अनन्य प्रेम हो जाने के कारण जो भगवान में ही तन्मय होकर नित्य - निरंतर भगवान के नाम , रूप , गुण , प्रभाव और लीला आदि का श्रवण , कीर्तन और मनन आदि करता रहता है ; इनके बिना जिसे क्षण भर भी चैन नहीं पडती ; और जो भगवान के दर्शन के लिए अत्यंत उत्कंठा के साथ निरंतर लालायित रहता है - वह ' मद्भक्त:' अर्थात भगवान का भक्त है | शरीर , स्त्री , पुत्र , घर , धन , कुटुंब तथा मान - बडाई आदि जितने भी इस लोक और परलोक के भोग्य पदार्थ हैं - उन सम्पूर्ण जड - चेतन पदार्थों में जिसकी किंचिंन मात्र भी आसक्ति नहीं रह गई है ; भगवान को छोड़कर जिसका किसी में भी प्रेम नहीं है - वह ' संगवर्जित: ' अर्थात आसक्तिरहित है | समस्त प्राणियों को भगवान का ही स्वरूप समझने , अथवा सबमें एकमात्र भगवान को व्याप्त समझने के कारण किसी के द्वारा कितना भी विपरीत व्यवहार किया जाने पर भी जिसके मन में विकार नहीं होता ; तथा जिसका किसी भी प्राणी में किन्चिन मात्र भी द्वेष या वैरभाव नहीं रह गया है - वह ' सर्वभूतेषु निर्वैर: ' अर्थात समस्त प्राणियों में वैरभाव से रहित है | ' य: ' और ' स: ' पद उपर्युक्त लक्षणोंवाले भगवान के अनन्य भक्त के वाचक हैं और वह मुझको ही प्राप्त होता है - इस कथन का भाव चौवनवें [ १८ / ५४ ] श्लोक के अनुसार सगुण भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन कर लेना , उनको भलीभाँती तत्त्व से जान लेना और उनमें प्रवेश कर जाना है | अभिप्राय यह है की उपर्युक्त लक्षणों से युक्त जो भगवान का अनन्य भक्त है , वह भगवान को प्राप्त हो जाता है |
इससे पूर्व [ ११ / ५२ - ५३ ] दो श्लोकों में भगवान ने अपने चतुर्भुज देवरूप के दर्शन की दुर्लभता और उसकी महिमा बताई है | निष्कामभाव से भगवदर्थ और भगवदअर्पणबुद्धि से किये हुए यज्ञ , दान और तप आदि कर्म भक्ति के अंग होने के कारण भगवान की प्राप्ति में हेतु हैं - सकामभाव से किये जाने पर नहीं | अभिप्राय यह है की उपर्युक्त यज्ञादि क्रियाएँ भगवान का दर्शन कराने में स्वभाव से समर्थ नहीं हैं | भगवान के दर्शन तो प्रेमपूर्वक भगवान के शरण होकर निष्कामभाव से कर्म करने पर भगवतकृपा से ही होते हैं |
|| इत्ती ||

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