शनिवार, 5 मई 2012

भक्तिप्रधान कर्मयोग में अधिकारी भेद-अनुसार उपासना

|| भक्तिप्रधान कर्मयोग में अधिकारी भेद-अनुसार उपासना ||
भगवान ने [ १२ / २ ] में सगुण- साकार परमेश्वर के उपासकों को उत्तम योगवेत्ता बताया और निर्गुण - उपासना की अपेक्षा सगुण- उपासना की सुगमता का प्रतिपादन किया | इसलिए अब भगवान अर्जुन को उसी प्रकार मन , बुद्धि लगाकर सगुण - उपासना [ १२ / ८ , ९ , १० , ११ ] करने की आज्ञा देते हैं | भगवान ने पहले मन - बुद्धि को अपने में लगाने के लिए कहा , फिर अभ्यासयोग बतलाया , तदनंतर मदर्थ कर्म के लिए कहा और अंत में सर्वकर्मफलत्याग के लिए आज्ञा दी और एक में असमर्थ होने पर दुसरे का आचरण करने के लिए कहा ; भगवान का इस प्रकार का यह कथन न तो फलभेद की दृष्टि से है , क्योंकि सभी का एक ही फल भगवतप्राप्ति है ; और न एक की अपेक्षा दुसरे को सुगम ही बतलाने के लिए है , क्योंकि उपर्युक्त साधन एक - दुसरे की अपेक्षा उत्तरोत्तर सुगम नहीं है | जो साधन एक के लिए सुगम है , वही दुसरे के लिए कठिन हो सकता है | इस विचार से यह समझ में आता है की इन चारों साधनों का वर्णन केवल , अधिकारीभेद से ही किया गया है , जो इस प्रकार से है : -
[ १ ] जिस पुरुष में सगुण भगवान के प्रेम की प्रधानता है , जिसकी भगवान में स्वाभाविक श्रद्धा है , उनके गुण , प्रभाव और रहस्य की बातें तथा उनकी लीला का वर्णन जिसको स्वभाव से ही प्रिय लगता है - ऐसे पुरुष के लिए [ १२ / ८ ] में बतलाया हुआ साधन [ मन और बुद्धि को भगवान में लगाना ] सुगम और उपयोगी है |
[ २ ] जिस पुरुष का भगवान में स्वाभाविक प्रेम तो नहीं है , किन्तु श्रद्धा होने के कारण जो हठपूर्वक साधन करके भगवान में मन लगाना चाहता है - ऐसी प्रकृति वाले पुरुष के लिए [ १२ / ९ में बतलाया गया ] साधन [ अभ्यासयोग ] सुगम और उपयोगी है |
[ ३ ] जिस पुरुष की सगुण परमेश्वर में श्रद्धा है तथा यज्ञ , दान , तप आदि कर्मों में जिसका स्वाभाविक प्रेम है और भगवान की प्रतिमादी की सेवा - पूजा करने में जिसकी श्रद्धा है - ऐसे पुरुष के लिए [ १२ / १० में बताया ] साधन [ मदर्थ कर्म ] सुगम और उपयोगी है |
[ ४ ] जिस पुरुष का सगुण - साकार भगवान में स्वाभाविक प्रेम और श्रद्धा नहीं है , जो ईश्वर के स्वरूप को केवल सर्वव्यापी निराकार मानता है , व्यावहारिक और लोकहित के कर्म करने में ही जिसका स्वाभाविक प्रेम है तथा कर्मों में श्रद्धा और रुचि अधिक होने के कारण जिसका मन [ १० / ९ में बतलाये हुए ] अभ्यासयोग में भी नहीं लगता - ऐसे पुरुष के लिए [ १२ / ११ में बतलाया हुआ ] सर्वकर्मफलत्याग का साधन सुगम और उपयोगी है |
समस्त कर्मों को भगवान में अर्पण करना , भगवान के लिए समस्त कर्म करना और सब कर्मों के फल का त्याग करना - ये तीनों ही ' कर्मयोग ' हैं ; और तीनों का ही फल परमेश्वर की प्राप्ति है , अतएव फलमें किसी प्रकार का भेद नहीं है | केवल साधकों की भावना और उनके साधन की प्रणाली के भेद से इनका भेद किया गया है | समस्त कर्मों को भगवान में अर्पण करना और भगवान के लिए समस्त कर्म करना - इन दोनों में तो भक्ति की प्रधानता है ; सर्वकर्मफलत्याग में केवल फल - त्याग की प्रधानता है | यही इनका मुख्य भेद है |
|| इत्ती ||

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